आकार पटेल का लेख: दावा विश्व गुरु होने का, लेकिन विदेश नीति का न तो कोई सिद्धांत और न ही कोई नाम

पड़ोसी देशों से लेकर कनाडा तक हमें ऐसे वक्त में आँख दिखा रहे हैं, जब हम विश्व गुरु होने का दावा करते हैं। और इसका कोई कारण है तो विदेश नीति को लेकर बेतरतीब व्यवहार जिसका न तो कोई सिद्धांत है और न ही कोई नाम।

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आकार पटेल

  • गाज़ा में जारी हिंसा को रोकने का आह्वान करने वाले प्रस्ताव पर अमेरिका की नाराजगी से बचने के लिए भारत ने इस प्रस्ताव से दूरी बना ली।

  • मालदीव के नए नेता ने भारत को साफ कहा है कि वहां से भारत अपने सैनिक हटा ले।

  • कतर ने नौसेना के 8 पूर्व अफसरों को मौत की सजा सुनाई है।

  • श्रीलंका ने चीन के जासूसी शिप को भारत के एतराज़ के बावजूद कोलंबो में रुकने की इजाजत दे दी है।

  • भूटान ने कहा है कि वह डोकलाम समेत सभी सीमाई मामलों पर चीन के साथ बातचीत कर रहा है।

  • नेपाल गौतम बुद्ध एयरपोर्ट इस्तेमाल नहीं कर सकता क्योंकि भारत ने यहां बड़े विमानों की अनुमति नहीं दी है।

  • कनाडा से स्पष्ट कहा है कि 2024 तक वह भारतीयों के लिए वीजा नियम सामान्य नहीं करेगा।

यह सबकुछ बीते कुछ दिनों के दौरान हुआ है।

दक्षिण एशिया में भारत को छोड़कर सभी देशों ने गाजा में हिंसा रोकने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इनमें नेपाल, श्रीलंका और भूटान भी शामिल हैं, जो परंपरागत रूप से लगभग हर मामले पर भारत के साथ वोट करते रहे हैं। मालदीव से वह सभी 70 सैन्य अधिकारी वापस आ जाएंगे जो अभी तक वहां रेडार स्टेशन और निगरानी विमानों पर नजर रखते हैं और भारतीय युद्धपोत मालदीव के एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन की चौकसी करते थे। जो कारण हमें बताया जा रहा है वह यह है कि मालदीव अब चीन के साथ जाना चाहता है।

बहस का मुद्दा यह नहीं है कि हम एक कामयाब विदेशी नीति चला रहे हैं, जैसा कि विदेशमंत्री के समर्थक मानते हैं, या फिर हम भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा को धूल में मिला रहे हैं, जैसाकि हम जैसे लोग सोचते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मोदी सरकार के 10 साल के शासन में हमारे सामने ऐसे काफी सबूत पड़े हैं जिनसे इस मुद्दे पर राय किसी भी तरफ जा सकती है।

एक और रोचक बात है जिसकी पड़ताल करना चाहिए कि आखिर मोदी सरकार की विदेश नीति है क्या और इससे क्या हासिल करने की मंशा है। 2014 में बीजेपी ने पने घोषणापत्र में कहा था कि वह सार्क को मजबूत करेगी और भारत की सरकार कूटनीति में क अहम भूमिका निभाएगी।  मसलन कनाडा से वीज़ा लेने में दिक्कतें सामने आने लगेंगी तो इससे दिल्ली को चेतना ही होगा।

2019 में इन दोनों ही बातों को घोषणापत्र से गायब कर दिया गया था। इसके बदले कोई नई इबारत भी नहीं लिखी गई थी, लेकिन जो लोग विदेश नीति का अध्ययन करते हैं उन्होंने इस नए रुख की तारीफें जरूर की थीं।


और इस नए रुख के तौर पर हमारे सामने विदेशमंत्री एस जयशंकर के ऐसे भाषणों की श्रंखला सामने आई जिसमें चीन के उभार, भारत के खो चुके दशक, महाभारत, मैरीटाइम पॉवर और कोविड महामारी जैसे विभिन्न विषय सुनने को मिले।

इन सभी चुने हुए भाषणों को एक पुस्तक की शक्ल दे दी गई है और इसका शीर्षक है, ‘द इंडिया वे: अनिश्चित विश्व के लिए रणनीतियां’। लेकिन यह रणनीतियां हैं क्या?

प्रथम, जयशंकर ने माना है कि अमेरिका और यूरोप अपने अंदरूनी मामलों में उलझे रहेंगे (उनकी पुस्तक ट्रंप के चुनाव हारने से कुछ वक्त पहले ही प्रकाशित हुई थी), जबकि चीन आगे बढ़ता रहेगा। इससे भारत जैसे देशों के लिए नए मौके खुलेंगे और उसे विश्व के साथ रिश्ते बनाने का अवसर मिलेगा और इनमें एकरूपता होनी जरूरी नहीं है।

भारत जो चाहता था, वह था मल्टी पोलर एशिया यानी बहुध्रुवीय एशिया, इसका अर्थ है कि भारत चीन के साथ अपनी बराबरी का दावा कर सकता है। इसके लिए कई गेंदों को हवा में रखना होगा (जयशंकर को स्टॉक वाक्यांशों को इस्तेमाल करने का शौक है) और भारत उन्हें कुशलता से नियंत्रित कर लेगा। यह वैसे तो मौकापरस्ती थी लेकिन फिर भी ठीक है, अवसरवादिता भारत की संस्कृति थी।

जयशंकर कहते हैं, महाभारत का सबक यह है कि छल और अनैतिकता केवल 'नियमों के अनुसार नहीं खेलना' ही है। द्रोण द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांगना, इंद्र द्वारा कर्ण का आवरण मांगना, अर्जुन का शिखंडी को मानव ढाल बनाना आदि उदाहरण हैं, लेकिन यह सब व्यवहार में थे परंपरा का हिस्सा रहे हैं।

नीति में असंगति या निरंतरता की की न केवल ठीक थी, बल्कि इसकी जरूरत भी थी क्योंकि बदलते हालात में 'निरंतरता के प्रति जुनून' का कोई मतलब नहीं था।

लेकिन ऐसी डॉक्टरीन या सिद्धांत तो क्या कहा जाए?

अपने भाषण में जब जयशंकर ने पहली बार मौकारस्ती और असंगति के इस सिद्धांत को सामने रखा था, तो कहा था कि इसे कोई नाम देना कठिन है। वह मल्टी अलाइनमेंट यानी बहुकोणीय संबंधों (यह थोड़ा 'बहुत अवसरवादी लगता है') और 'इंडिया फर्स्ट' यानी भारत सर्वप्रथम ('आत्म-केंद्रित लगता है') जैसे वाक्यों को इस्तेमाल करते हैं और फिर छोड़ देते हैं। फिर वह 'समृद्धि और प्रभाव को बढ़ाने' को चुनते हैं, जिसके बारे में उनका कहना है कि यही ठीक है, लेकिन मानते भी हैं कि यह बहुत ज्यादा आकर्षक नहीं है।

उनका मानना है कि अगर इसे ही लंबे समय तक अपनाया जाए तो आखिरकार कोई न कोई नाम इसके लिए आ जाएगा, क्योंकि चुनौती का एक हिस्सा यह है कि हम अभी भी एक बड़े बदलाव के शुरुआती दौर में हैं।

शायद ऐसा ही है।


वे इसके लिए कोई स्पष्ट और समझ में आने वाला नाम नहीं तय कर पाए हैं, जैसा कि गुटनिरपेक्ष आदि, तो इसका एक कारण यह हो सकता है कि दरअसल यह असली विदेश नीति है ही नहीं। इस लेख में पहले जिन समस्याओं की बात क गई है, वे हैं सुसंगता और प्रभावशीलता की कमी। ऐसे वक्त में रुस से सस्ता तेल खरीदने से नहीं रोक रहा है तो , यह कोई विदेश नीति नहीं है, लेकिन इसका प्रचार इसी तरह तारीफें करते हुए किया गया। बारी-बारी से मिलने वाली जी-20 कीअध्यक्षता भी कोई उपलब्धि नहीं थी, लेकिन इसे इसी तरह भारतीयों को बेच दिया गया।

प्रधानमंत्री की रुचि किसमें है और बड़े आयोजन और तमाशों से जो कुछ कियाजा रहा है, उसे कोई बेहद महत्वपूर्ण उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है। लेकिन ऐसे निष्कर्षों से नहीं बचा जा सकता क्योंकि जयशंकर ने मोदी के बेतरतीब और दिशाहीन व्यवहार को छिपाने के लिए इसे विदेश नीति की रणनीति के तौर पर सामने रखा है।

जयशंकर कहते हैं कि उनकी शीर्षक विहीन नीति का मकसद चार लक्ष्य हासिल करना है: घरेलू तौर पर महान समृद्धि, सीमाओं पर शांति, भारतीयों की रक्षा और विदेश में बढ़ा हुआ प्रभाव।

लेकिन हमारी सीमाओं पर या समृद्धि के मोर्चे पर जो कुछ हो रहा है, उसकी क्या ही बात की जाए। मुद्दा यह है कि यह पड़ताल करने के बाद कि हमने क्या हासिल करने की कोशिश की और उसके नतीजे हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं, हमें दुनिया के सामने भारत की भूमिका का दोबारा आंकलन करना होगा, और यह भी देखना होगा कि हम अपने लिए कुछ सही कर भी रहे हैं या नहीं।

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