अमेरिका का पिछलग्गू बन रहा भारत, नए समझौतों के बाद बात-बात में अमेरिका का मुंह ताकना पड़ेगा
पांच वर्षों में 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने का सपना देख रहा देश अपने आप को ऐसी स्थिति में डाल रहा है जहां उसे बात-बात में अमेरिका को मुंह ताकना होगा।
आखिरकार अमेरिका ने भारत को बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बेका) पर दस्तखत के लिए तैयार कर ही लिया। कहा जा रहा है कि इस समझौते से दोनों देशों की सेनाओं के बीच सहयोग गहरे होंगे। लेकिन हकीकत यह है कि इससे अमेरिका का फायदा कहीं अधिक है।
इस समझौते पर दस्तखत भारत और अमेरिका के बीच 26-27 अक्तूबर को नई दिल्ली में होने वाली सालाना 2+2 बैठक में हो रहे हैं। इस बैठक में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो की विदेश मंत्री एस. जयशंकर के साथ जबकि अमेरिका रक्षा मंत्री मार्क एस्पर की बातचीत रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ होगी। बहरहाल, दोनों देशों ने बेका समझौते को अंतिम मुकाम तक पहुंचाने की बेसब्री दिखाई है। ट्रंप प्रशासन के ये वरिष्ठ मंत्री बेका समझौते के लिए ऐसे समय भारत आ रहे हैं जब वहां राष्ट्रपति चुनाव महज एक हफ्ते दूर होंगे। अमेरिका में 3 नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव होने हैं और वहां पूरी तरह चुनावी माहौल है। अमेरिका के लिहाज से तो यह भी सवाल उठता है कि क्या किसी निवर्तमान सरकार को इतने बड़े फैसले पर आगे बढ़ने का नैतिक अधिकार है और क्या उसे चंद माह बाद ही बनने वाली नई सरकार के लिए नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए था ?
ऐसी भी क्या जल्दी!
दूसरी ओर, भारत में कोविड-19 महामारी के प्रकोप के अलावा लद्दाख में चीन के साथ अत्यधिक तनाव का माहौल है और नरेंद्र मोदी सरकार इस संकट से निपटने में स्पष्ट तौर पर विफल रही है। ऐसे समय में इस सवाल का उठना वाजिब ही है कि बेका समझौते को लेकर इतनी हड़बड़ी क्या सही है?
दोनों देशों के बीच यह तीसरी 2+2 बैठक होगी। पहली बैठक 2018 में नई दिल्ली में हुई थी जबकि दूसरी पिछले साल वाशिंगटन में हुई। दोनों पक्षों ने इससे पहले जिन दो “रणनीतिक” समझौतों पर हस्ताक्षर किए, वे हैं अगस्त, 2016 में हुआ लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (लेमोआ) और सितंबर, 2018 में हुआ कम्युनिकेशंस कम्पैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कॉमकासा)। तीनों समझौतों पर वर्षों से बातचीत हो रही थी और इनका उद्देश्य दोनों देशों के बीच “सहज सैन्य संबंध” बनाना है।
लेमोआ को पहले लॉजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए) के तौर पर जाना जाता था लेकिन अमेरिका ने भारत को ध्यान में रखते हुए इसमें संशोधन किया। वैसे ही, उसने सिसमोआ (कम्युनिकेशंस इंटरप्रेन्योरशिप एंड सिक्योरिटी मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट) को भी बदलकर कॉमकासा कर दिया। लेमोआ अमेरिकी नौसेना को भारतीय नौसेना के रसद प्लेटफार्मों से आपूर्ति लेने के काबिल बनाता है जबकि कॉमकासा इस बात का वैधानिक आधार बनाता है कि अमेरिका अतिसंवेदनशील संचार सुरक्षा उपकरणों और वास्तविक समय में परिचालन जानकारी भारत को दे सके। यह भारत को अमेरिकी इंटेलिजेंस के विशाल डाटा बेस तक पहुंच प्रदान करता है जिसमें रीयल- टाइम इमेजरी भी शामिल है। इसके साथ ही सी-130 जे सुपर हरक्यूलिस, सी-17 ग्लोबमास्टर और पी-8 आई पोसिडॉन-जैसी उच्च तकनीक वाली सैन्य प्रणालियों को भारत को बेचे जाने का रास्ता साफ करता है।
एक बार फिर अमेरिका ने भारत को ध्यान में रखते हुए बेका का प्रारूप तैयार किया है और समझौते पर दस्तखत के बाद अमेरिका के संवेदनशील डाटा तक भारत की पहुंच हो जाएगी। इससे दोनों देश एक-दूसरे के सैन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल कर सकेंगे- मसलन, लॉजिस्टिक संबंधी मदद, ईंधन भरना और रक्षा संबंधी मुद्दों में मददगार इंटेलिजेंस को साझा करना। इसके अलावा भारत की लक्ष्य भेदने और नेविगेशन की क्षमता को सटीक बनाने के लिए अमेरिका सैटेलाइट से मिलने वाली जानकारी समेत तमाम गुप्त सूचनाओं को भारत के साथ साझा करेगा। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि अमेरिका की मदद से भारत की मिसाइलें ज्यादा सटीकता से लक्ष्य को भेद सकेंगी।
इसमें दो राय नहीं कि बेका को अंतिम रूप देने में अमेरिका जरूरत से ज्यादा जल्दबाजी दिखा रहा है और इस हड़बड़ी को लेकर उसकी आधिकारिक प्रतिक्रिया यह है कि भारत से निकट संबंध अमेरिका की प्राथमिकता में हैं और सितंबर, 2019 में ह्यूस्टन में हाउडी मोदी कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसकी बेबाक तरीके से पुष्टि भी कर दी थी। उसी दौरान अमेरिका ने न्यूयॉर्क में क्वाड मंत्रिस्तरीय बैठक का भीआयोजन किया था। क्वाड विशुद्ध रूप से भारत प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ी ताकत को संतुलित करने के इरादे से शुरू किया गया।
इधर मोदी सरकार ने मालाबार युद्धाभ्यास में ऑस्ट्रेलिया को भी शामिल होने का न्योता दिया है और इस तरह नौसेना का यह अभ्यास क्वाड आयोजन में तब्दील हो गया है। अमेरिका और जापान ने इसमें शामिल होने की पुष्टि कर दी है। दो चरणों में होने वाला यह अभ्यास भारत के पूर्वी तट पर 3 से 6 नवंबर तक और पश्चिमी समुद्र तट पर 17 से 20 नवंबर तक होगा। 2019 में यह अभ्यास जापान के समुद्री क्षेत्र में हुआ था।
अमेरिका रहेगा हावी !
अमेरिका के साथ इन समझौतों के पैरोकार यह तर्क दे रहे हैं कि पहले भी अमेरिका और गुटनिरपेक्ष देशों के बीच लेमोआ, कॉमकासा और बेका समझौते हुए हैं और तब संप्रभुता को लेकर कोई शक-शुबहा नहीं उठा। इन लोगों की दलील है कि हमें यह भी समझना होगा कि अमेरिका से उच्च तकनीक हासिल करने वाले देशों को इसी राह से गुजरना होता है और भारत के लिए कोई अलग व्यवस्था नहीं की जा रही है। ये समझौते केवल इस तरह के सहयोग की वैधानिक स्थिति बनाते हैं। लेकिन इन समझौतों को लेकर दूसरा मत यह है कि ये तथाकथित मूलभूत समझौते स्पष्ट रूप से भारत के हित में नहीं हैं क्योंकि अमेरिका के पास समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देश की संप्रभुता का उल्लंघन करने की क्षमता है।
आधिकारिक तौर पर यह दावा किया गया है कि ये समझौते चीनी विस्तारवाद पर अंकुश लगाने में भारत की स्थिति मजबूत करते हैं लेकिन इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि अगर चीन के साथ सैन्य टकराव हो जाए तो अमेरिकी सेना के भारत के साथ आकर मोर्चा थामने की संभावना न के बराबर है। इसलिए भारतीय सेनाओं को अमेरिका के आचार संहिता और ऑपरेटिंग प्रक्रियाओं से बांध देने का कोई मतलब नहीं था। इसका एक पक्ष यह भी है कि इससे भारत कीअमेरिका पर निर्भरता बढ़ जाएगी और भारत अंतिम इस्तेमालकर्ता से जुड़े अमेरिकी नियम-कानूनों के दायरे में आ जाएगा और वह तमाम चीजों में रद्दोबदल भी नहीं कर सकेगा।
हमारे लिए चिंता की एक बड़ी वजह यह भी है कि इस तरह के समझौतों से अमेरिका को अपने सहयोगी देशों की तुलना में कहीं अधिक लाभ होता है। भारत और चीन के बीच तनाव के बीच पूरी तरह से सशस्त्र अमेरिकी नौसेना ने भारत के सामरिक दृष्टि से अहम अंडमान और निकोबार बेस पर लंगर डाला। अमेरिकी नैसेना में लंबी दूरी तक मार करने वाली पनडुब्बी, समुद्री निगरानी विमान पी-8 पोसिडॉन भी थे। इस टुकड़ी ने यहां रुककर ईंधन भरा और यह सुविधा अमेरिका को लेमोआ के तहत मिली।
अमेरिका का पिछलग्गू बनता भारत
पांच वर्षों में 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने का सपना देख रहा देश अपने आप को ऐसी स्थिति में डाल रहा है जहां उसे बात-बात में अमेरिका को मुंह ताकना होगा। अमेरिका भारत की ओर से गहरी निष्ठा के प्रति आश्वस्त रहा है। मई, 2019 में मोदी सरकार के फिर से चुने जाने के बाद ट्रंप प्रशासन ने भारत को अमेरिका का एक ‘महान सहयोगी’ बताया और प्रधानमंत्री मोदी के साथ मिलकर काम करने का संकल्प व्यक्त किया। एक सवाल के जवाब में विदेश विभाग के तत्कालीन प्रवक्ता मॉर्गन ऑर्टागस ने संवाददाताओं से कहा था, “शर्तिया हम मोदी के साथ मिलकर काम करेंगे, जैसा पहले भी कई बार किया है।”
एक ओर तो भारत की आकांक्षा एक बड़ी शक्ति बनने की हैं और दूसरी ओर ट्रंप प्रशासन की ओर से भी इसे पूरा करने में उतनी ही आतुरता दिखाई गई जिसका नतीजा यह हुआ है कि भारत के रक्षा आयात में खासा इजाफा हो गया। रक्षा मंत्रालय भी स्वीकार करता है कि अमेरिका के साथ सैन्य सहयोग द्विपक्षीय संबंधों का प्रमुख कारक बन गया है जिसे अब “एक नए स्तर पर” ले जाया जा रहा है। ट्रंप प्रशासन भारत के लिए कथित तौर पर लाभकर स्थिति बनाकर भारत को महंगे हथियार खरीदने के लिए प्रेरित करता है जो अमेरिका के सैन्य उद्योग में नौकरियों को बनाए रखने और उत्पादन लाइनों को चालू रखने में मदद करता है।
2016 में अमेरिका ने भारत को अपने प्रमुख रक्षा सहयोगी के रूप में मान्यता दी, ताकि वह नई दिल्ली को हथियारों और प्रौद्योगिकियों का हस्तांतरण कर सके। अमेरिका भारत के साथ किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक सैन्य अभ्यास करता है। इन कड़ियों को एक रेखा में लाते हुए अमेरिकी सीनेट ने नेशनल डिफेंस अथॉराइजेशन एक्ट पास किया जो भारत को नाटो सहयोगी का दर्जा दे देता है। यह कानून न केवल हिंद महासागर में समुद्री सुरक्षा, आतंकवाद-निरोधी गतिविधियों, पाइरेसी-रोधी गतिविधियों और मानवीय सहायता के क्षेत्रों में बेहतर सहयोग के दरवाजे खोलता है बल्कि भारत के लिए अत्याधुनिक हथियारों और संवेदनशील तकनीकें उपलब्ध कराने का रास्ता भी साफ करता है।
चीन के खिलाफ मोहरा
हालांकि यह भारत के साथ अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी ही है जिसके बूते वाशिंगटन विशाल भारत प्रशांत समुद्री क्षेत्र में चीन के प्रभाव को संतुलित करना चाहता है। अपने कार्यकाल के दौरान दो बार भारत का दौरा करने वाले पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत के साथ गहरे सहयोग के लिए प्रतिबद्धता का इजहार किया था और उन्होंने दोनों देशों के सहयोग को “21वीं सदी का प्रभावकारी केंद्र” करार दिया था।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मूलभूत समझौतों और रणनीतिक साझेदारी-जैसे क्षेत्रों ने नई दिल्ली को बड़ी तेजी से वाशिंगटन का आभारी बना दिया है। स्थिति यह है कि भारत सरकार के अलावा खुद प्रधानमंत्री मोदी भी व्यक्तिगत रूप से अमेरिका के प्रति कृतज्ञ होते जा रहे हैं। वर्ष 2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री रहते दंगों को रोक पाने में विफलता के कारण वाशिंगटन ने मोदी के अमेरिका में प्रवेश पर रोक लगा दी थी। दंगों में 1,044 लोग मारे गए थे और मोदी के खिलाफ अमेरिका ने 1998 में बने उस कानून को अमल में लाया था जो प्रावधान करता है कि “धार्मिक स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघन” के जिम्मेदार व्यक्ति को अमेरिका वीजा के लिए अयोग्य माना जाए। लेकिन जब 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री चुने गए तो ओबामा प्रशासन ने उनके प्रवेश पर लगी रोक को हटाते हुए उन्हें एक तरह से अंतरराष्ट्रीय वैधता दिलाई। प्रतिबंध हटने के बाद मोदी ने भी जैसे खोए समय की भरपाई करते हुए किसी भीअन्य देश की तुलना में अमेरिका की ज्यादा बार यात्रा की।
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