मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए भारत 7वां सबसे खतरनाक देश बना, दुनिया भर में बीते साल 300 से ज्यादा हत्या

भारत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए 7वां सबसे खतरनाक देश बनकर उभरा है। मानवाधिकार हनन के सबसे खतरनाक देशों की हालत भी भारत से बेहतर है। इस दौरान अफगानिस्तान में 3, चीन में 2, पाकिस्तान में 4, रूस में 2 और सीरिया में 1 मानवाधिकार कार्यकर्ता की हत्या हुई।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

दुनिया भर की सरकारें मानवाधिकार का हनन करती जा रही हैं। तमाम सरकारों को अब मावाधिकार की आवाज उठाने वाले देशद्रोही और सरकार द्रोही नजर आने लगे हैं। इस मामले में तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तानाशाही सरकारों से होड़ लेने लगी हैं। आयरलैंड की गैर सरकारी संस्था, फ्रंटलाइन डिफेंडर्स द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ग्लोबल एनालिसिस 2019 के अनुसार पिछले साल दुनिया के कुल 31 देशों में 304 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई और हजारों ऐसे कार्यकर्ताओं को लगभग सभी देशों में बंदी बनाया गया, कानूनी पचड़े में फंसाया गया, धमकी दी गई या फिर प्रताड़ित किया गया।

इस रिपोर्ट को मारे गए सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को समर्पित किया गया है। फ्रंटलाइन डिफेंडर्स दुनिया के सभी देशों में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न से संबंधित प्रकाशित आंकड़े एकत्र करता है और हर साल इससे संबंधित एक रिपोर्ट प्रकाशित करता है। रिपोर्ट के अनुसार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए कोलंबिया दुनिया का सबसे खतरनाक देश है, जहां पिछले साल 106 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई। इसके बाद फिलीपींस में 43, होंडुरास में 31, ब्राजील में 23, मेक्सिको में 23, ग्वाटेमाला में 15 और फिर भारत में 12 हत्याएं की गईं।

इस तरह भारत मानवाधिकार पर काम करने वाले लोगों के लिए सातवां सबसे खतरनाक देश बनकर उभरा है। मानवाधिकार हनन के लिए सबसे खतरनाक माने जाने वाले देशों की स्थिति भी भारत से अच्छी है। ऐसे कार्यकर्ताओं की हत्या अफगानिस्तान में 3, चीन में 2, पाकिस्तान में 4, रूस में 2 और सीरिया में 1 हुई। इन देशों में जिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, उनमें से 85 प्रतिशत को पहले धमकी मिल चुकी थी और 40 प्रतिशत से अधिक कार्यकर्ता पर्यावरण से जुड़े मसलों पर काम कर रहे थे। मारे गए कार्यकर्ताओं में से 13 प्रतिशत महिलाएं भी थीं।

रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल दुनिया भर में जनता ने अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की। हमारे देश में भी पिछले साल के मध्य से आंदोलनों का एक नया सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक चल रहा है। केंद्र और कई राज्य सरकारें तमाम हथकंडे अपनाकर जनता के विरोध को कुचलने में लगी हैं। बीजेपी ने तो दिल्ली का चुनाव भी केवल इसी मुद्दे पर लड़ा।


मध्य एशिया की बात करें तो इराक में अक्टूबर के दौरान सरकारी धांधली और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन में लगभग 300 आंदोलनकारियों को मार डाला गया और एक महिला कार्यकर्ता सबा अल महदवी का अपहरण कर लिया गया। वहीं कजाकिस्तान में जून में आयोजित राष्ट्रपति चुनावों के समय इसमें धांधली का आकलन करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में यातनाएं दी गईं।

उधर चिली में अपने अधिकारों की मांग करते 22 लोगों को सेना ने मार गिराया और हजारों लोग घायल हो गए। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कोंगो के पूर्वी क्षेत्र में स्थित बेनी नामक कस्बे में आंदोलन कर रहे लगभग 3000 लोगों को सुरक्षा बलों ने भून डाला। ऐसी ही हालात सूडान, जांबिया, अल्जीरिया, इक्वाडोर, लेबनान और भारत तक में भी है। इंग्लैंड में भी जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध आंदोलनों को लगातार कुचलने की साजिशें की का रही हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार केवल एशिया के देशों में ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताती हैं। यहां के अधिकतर देशों में सत्तावादी और कट्टरपंथी सरकारें हैं, जो मानवाधिकार की आवाज उठाने वालों पर तुरंत मुकदमा चला कर जेल में डाल देती हैं, या फिर उनको राष्ट्रदोही करार देती हैं। हमारे देश में तो इसका अंतहीन सिलसिला चल रहा है।

इंग्लैंड की संस्था, ग्लोबल विटनेस की रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 के दौरान दुनिया में पर्यावरण की रक्षा करते हुए 164 लोग मारे गए थे, यानी प्रति सप्ताह औसतन तीन लोगों ने पर्यावरण को बचाने के क्रम में अपनी जान गंवाई। इस संदर्भ में भारत का स्थान 23 हत्याओं के साथ दुनिया में तीसरा था। भारत से ऊपर केवल दो देश थे- 30 हत्याओं के साथ पहले स्थान पर फिलीपींस और 24 हत्याओं के साथ कोलंबिया।


इस संदर्भ में देखें तो पर्यावरण संरक्षण के लिए आवाज उठाना आज के दौर में सबसे खतरनाक हो गया है। लगभग हरेक देश में एक जैसी ही स्थिति है। सभी देशों के नेता पर्यावरण संरक्षण पर भाषण तो देते हैं, पर असल में इसका दोहन करने वालों के साथ ही खड़े नजर आते हैं। हमारे देश में भी प्रधानमंत्री अनेक बार पर्यावरण संरक्षण की पांच हजार साल पुरानी परंपरा की दुहाई देते हैं, पर अडानी और दूसरे पूंजीपति जंगलों से वनवासियों को बेदखल कर कहीं भी खनन का काम करने लगते हैं या फिर जंगलों के बीच उद्योग खड़े कर देते हैं।

इतना तो तय है कि जिस पर्यावरण ने आज तक मानवजाति का अस्तित्व सहेजा है, उसी पर्यावरण के कारण अब इसका अस्तित्व संकट में है। प्रदूषण और पर्यावरण विनाश आपको मार डालेगा और यदि इसके विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो सरकारें और उद्योगपति आपको मार डालेंगे- अब इन दोनों में से एक को चुनना है।

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