खरी-खरी: जरूर साकार होगा एक आजाद फिलिस्तीन राज्य का सपना
दुनिया कुछ भी कहे, फिलिस्तीनी आज भी स्वतंत्रता के लिए हर वह कुर्बानी दे रहे हैं जो जिंदा कौमों को देनी पड़ती है। फिलिस्तीनी भी वही कर रहे हैं।
यह बात है सन 1983 की। इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आ चुकी थीं। उधर, एक वर्ष पूर्व इजरायली फौज लेबनान में बसे फिलिस्तीनियों पर सितम ढा चुकी थी। लेकिन फिलिस्तीनी अपने नेता यासिर अराफात के नेतृत्व में अपनी आजादी की लड़ाई में अपने दुश्मन के दांत खट्टे कर रहे थे। ऐसे वातावरण में ये खबरें आने लगीं कि नई दिल्ली में गुट निरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) देशों की कॉन्फ्रेंस होने वाली है। राजनीतिक गलियारों एवं समाचार जगत में उस समय गूंज उठी जब यह खबर आई कि इस कॉन्फ्रेंस में फिलिस्तीन की ओर से यासिर अराफात स्वयं आने वाले हैं।
बस, हर छोटा-बड़ा पत्रकार अराफात से इंटरव्यू के सपने देखने लगा। आखिर दिल्ली के विज्ञान भवन में कॉन्फ्रेंस आरंभ हुई। सबकी निगाहें अराफात को खोज रही थीं जो तीसरी पंक्ति में अपने ट्रेडमार्क लिबास में विराजमान थे। वही शरीर पर अरबी काफीया, कमर में एक छोटी लटकती पिस्तौल और चेहरे पर मुस्कुराहट लिए अराफात सबके आकर्षण का केंद्र बने बैठे थे।
लेकिन वह कुछ अलग ही दौर था। सारा मंडप एक से एक बड़े नेताओं से भरा था। पहली पंक्ति में क्यूबा के राष्ट्रपति फीडेल कास्त्रो बैठे इंदिरा गांधी से बात कर रहे थे। कॉन्फ्रेंस आरंभ हुई। कास्त्रो ने पहला भाषण दिया। अपना भाषण खत्म कर कास्त्रो ने अपना पद इंदिरा गांधी को सौंपने के लिए उनको आमंत्रित किया। कास्त्रो जैसे लगभग 6 फुट से अधिक लंबे नेता के सामने छोटे से कद की इंदिरा गांधी एक गुड़िया लग रही थीं। कुछ कहने से पहले कास्त्रो ने इंदिरा गांधी को अपनी बांहों में जकड़ लिया। सारा हॉल नेताओं एवं वहां उपस्थित लोगों की तालियों से गड़गड़ा उठा।
तीन दिनों तक नेताओं के भाषण का क्रम चलता रहा। लगभग हर नेता इस बीच यासिर अराफात को फिलिस्तीनी आजादी का संघर्ष जारी रखने पर हौसला देता रहा। इधर पत्रकार अराफात से भेंट के लिए बेचैन थे। अंततः कॉन्फ्रेंस के अंतिम दिन अराफात पत्रकारों के बीच उनके सवालों के जवाब दे रहे थे। पत्रकार अराफात से सवाल करते रहे। ऐसे में दिल्ली से निकलने वाले दैनिक पैट्रियाट के पत्रकार जॉन दयाल ने अराफात से एक तीखा सवाल पूछा, “चेयरमैन, क्या कभी संसार में कोई फिलिस्तीनी राज्य बनेगा।”
मानो कहीं से एक बम गिर पड़ा हो। चारों ओर सन्नाटा छा गया। सभी अराफात के जवाब का इंतजार करने लगे। अराफात ने पहले जॉन की ओर गुस्से में मुड़कर देखा। रुके और फिर मुस्कुरा कर बोले, “हां, मेरे और आपके जीवन में ही।” कॉन्फ्रेंस समाप्त हुई। अराफात वापस गए, एक मुद्दत बाद इस फिलिस्तीनी क्रांतिकारी नेता का देहांत भी हो गया। लेकिन इन दिनों फिर से दुनिया जॉन दयाल के उस सवाल का जवाब पूछ रही है।
जी हां, हमास के नेतृत्व में गाजा पट्टी पर अमानवीय इजरायली बमबारी का सवाल फिर सामने है। फिर मानवता के सामने यही सवाल है कि क्या कभी कोई फिलिस्तीनी राज्य का सपना साकार होगा। जिस प्रकार गाजा में एक बार फिर फिलिस्तीनी मारे जा रहे हैं, उससे तो यह महसूस होता है कि फिलिस्तीनी राज्य का सपना, सपना ही रह जाएगा। जिनको अराफात का जवाब याद है कि जी हां, हमारे और आपके जीवनकाल में फिलिस्तीन आजाद होगा, वे अभी भी उस फिलिस्तीनी राज्य के सपने देख रहे हैं जो अराफात के अनुसार साकार होगा।
दुनिया कुछ भी कहे, फिलिस्तीनी आज भी स्वतंत्रता के लिए हर वह कुर्बानी दे रहे हैं जो जिंदा कौम को देनी पड़ती है। फिलिस्तीनियों को तो अभी केवल इस संघर्ष में सात दशक का समय बीता है। आजादी की लड़ाई तो सदियों तक चलती है। परंतु इस लड़ाई को लड़ने वालों को अपनी आजादी के और करीब पहुंचा देता है। वह संसार जो पिछले दो दशकों से फिलिस्तीनी समस्या भूल चुका था, वह एक बार फिर से फिलिस्तीनी राज्य की समस्या से गूंज रहा है। उधर, वे देश जो फिलिस्तीन से मुंह मोड़ इजरायल से हाथ मिलाने वाले थे, वे सोच रहे हैं कि यह फिलिस्तीनी विजय नहीं तो और क्या है।
हां, यासिर अराफात का सपना आज नहीं तो कल साकार होगा। हम नहीं तो हमारे बाद की पीढ़ी फिलिस्तीन राज्य बनता देख कर रहेगी।
आज भी जंगल राज का तांडव
कहां जाएं, किससे न्याय की आशा करें? इजरायल के गाजा पट्टी पर आक्रमण के बाद एक बार फिर यह सवाल मानव समाज के लिए एक बड़ा सवाल बन गया है। वैसे तो कहने को यूएनओ एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्था है जिसका निर्णय विभिन्न देशों के बीच उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए हुआ था। लेकिन क्या यूएनओ दो राज्यों के बीच उत्पन्न होने वाली समस्याओं का हल करने में सफल है? अब इजरायल और हमास के बीच चल रहे युद्ध को ही ले लीजिए।
दुनिया में आए दिन युद्ध होते ही रहते हैं। इसी कारणवश यूएनओ ने युद्ध के बीच दोनों पक्षों को कम-से-कम थोड़ी-बहुत मानवीय सहायता मिलती रहे, इस उद्देश्य से कुछ नियम बनाए थे। जैसे, कोई भी पक्ष आबादी वाले इलाकों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। युद्ध के बीच आम नागरिकों को खाना-पानी, दवा-इलाज की सुविधा बनी रहे, इसका दोनों ही पक्ष पालन करेंगे। लेकिन इजरायल यूएन के ऐसे तमाम नियमों का खुला उल्लंघन कर रहा है। सारी दुनिया को पता है कि इजरायल ने गाजा पट्टी को चारों ओर से घेर कर वहां जाने वाला खाना, पानी और दवा आदि तक की रसद रोक दी है।
आए दिन इजरायली सेना अस्पताल पर बमबारी कर वहां मरीजों तक की हत्या कर रही है। हद तो यह है कि जब यूएन ने इजरायल में अपने ऑब्जर्वर भेजने का फैसला किया कि वह इस बात पर निगाह रखें कि इजरायल यूएन के मानवीय नियमों का पालन कर रहा है कि नहीं, तो इजरायल ने उस ऑब्जर्वर को उनके देश में आने से रोक दिया।
स्थिति यह है कि गाजा में ठीक से न खाना है और न पानी है। सैकड़ों फिलिस्तीनी रोज मारे जा रहे हैं। न यूएन ही कुछ कर पा रहा है और न ही कोई दूसरा देश कुछ कर रहा है। इस समय गाजा में बसे फिलिस्तीनी अत्यंत अमानवीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस समस्या का न तो कई समाधान है न ही किसी देश को कोई चिंता। तब क्या समझें कि इस 21वीं शताब्दी में भी अपने को सभ्य कहने वाला प्राणी जंगल राज के नियमों का ही पालन करता है और यूएनओ जैसी संस्था एक ढकोसला मात्र है।
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