आज के दमनकारी माहौल में राजनीति पर सीरीज बनाने के लिए ‘तांडव’ टीम की होनी चाहिए सराहना
बहुत स्पष्ट है कि ये वेब सीरीज एक औसत बॉलीवुड फिक्शन है, इसकी कहानी भी कोई बहुत अच्छी नहीं और ये कई बिन्दुओं पर धीमी और उबाऊ भी हो जाती है। सीरीज देख कर ये भी बहुत साफ हो जाता है। फिर एक औसत काल्पनिक कहानी पर बने नाटक पर इतना हंगामा क्यों?
जिस दिन तांडव रिलीज़ हुयी थी, मीडिया और सोशल मीडिया पर इसकी आलोचना करती कई समीक्षाओं की बाढ़ आ गई थी। और ये समीक्षाएं हकीकत से बहुत दूर नहीं थीं। शुरुआती दौर में इसे दर्शकों से भी कोई उत्साहवर्धक रेस्पोंस नहीं मिला। लेकिन कुछ दिन बाद ‘तांडव’ सोशल मीडिया पर छा गया और बहुत सी नाराज़ और गुस्सैल आवाजों ने इसे ‘बैन’ करने की मांग उठानी शुरू कर दी, ‘आहत भावनाओं’ का हवाला देकर। ज़ाहिर है, इसके बाद अचानक इसकी व्यूअरशिप भी बढ़ गई। अगले चरण में बहुत से हिंदुत्व वादियों, नेताओं और मंत्रियों तक ने अमेज़न और वेब सीरीज निर्माताओं की आलोचना करते हुए इसे प्रतिबंधित करने की मांग उठानी शुरू कर दी। सोशल मीडिया तो है ही बहुत अजीबोगरीब मंच। यहाँ लोग किसी को गरियाने से पहले अपने विवेक और मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख देते हैं, ऐसा हमारे यहाँ चलन हो गया है। दरअसल जो सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया स्वरुप कहा जाता है , उस पर चिंतन और विमर्श होना आवश्यक है। बहरहाल, फिर जैसा कि हमारे यहाँ होने लगा है, तुरंत एफआईआर दर्ज हुईं, निर्माताओं कि तरफ से माफ़ी मांगी गई और बाद में सीरीज में बदलाव करने का सुझाव दिया गया।
इस अब के बीच एक औसत हिन्दीभाषी दर्शक इसी असमंजस में रहा कि एक औसत वेब सीरीज पर आखिर इतना गुस्सा और रोष क्यों उमड़ा? जो बेहद वास्तविक और तात्कालिक समस्याएं हैं, जैसे विरोध करते किसान, महामारी, बेरोजगारी, नौकरियों का अकाल और भुखमरी- इन पर लोगों का गुस्सा क्यों नहीं उमड़ता, इन्हें लेकर नेता मंत्री हिन्दुत्ववादी वगैरह एफआईआर क्यों नहीं करते? ये आखिरकार कौन लोग हैं जिन्हें इन वास्तविक समस्याओं की कोई फ़िक्र नहीं लेकिन उन्हें भगवान, देवी-देवताओं को लेकर गुस्सा आ जाता है, उन देवी देवताओं और भगवन को लेकर जो सर्वशक्तिमान, सर्व व्यापी हैं, जिन्हें अपने अस्तित्व के लिए नश्वर मनुष्य की मदद की ज़रुरत भी नहीं?
इससे तो फिर यही साबित होता है ना कि हमारी ईश्वर और अपने देवी-देवताओं पर आस्था ही इतनी कमज़ोर हो गई है कि चंद शब्दों या हाव-भावों से ‘आहत’ हो जाती है! तो फिर हमें दरअसल ईश्वर पर अपनी कमज़ोर आस्था के बारे में चिंता करनी चाहिए ना कि देवी देवताओं की। एक कलाकार (या कलाकारों) को अपने समाज, देश और समुदाय पर विचार व्यक्त करने की आजादी आखिरकार क्यों नहीं होनी चाहिए? एक लोकतंत्र में ये हमारा मूलभूत अधिकार है और लोकतंत्र की जड़ें भी इसी अधिकार पर टिकी हैं।
पिछले कुछ बरसों में इस देश में ‘आधुनिक’ होने का दावा करने वाले हम लोग कुछ ज्यादा ही ‘टची’ और तुनकमिजाज़ हो गए हैं। इस तथाकथित ‘अहिंसक’ समाज की हिंसा अपनी बर्बरता से हमारे इंसानी विवेक पर लगातार कठोर अघात कर रही है, इस हद तक कि अब नृशंस बलात्कार और ‘लिंचिंग’ सिर्फ ख़बरों का हिस्सा बन कर रह गए हैं, जिन पर राजनीति तो होती है लेकिन हमारी संवेदनाएं विचलित नहीं होतीं। ये विडम्बना ही है कि समाज का एक ख़ास वर्ग ‘ईश्वर’ या देवी देवताओं पर की गई किसी ज़रा सी टिप्पणी पर तुरंत और उग्र प्रतिक्रिया ज़ाहिर करता है लेकिन इंसान पर होने वाले अत्याचार उसे ‘राजनीति से प्रेरित’ नज़र आते हैं। जबकि आलम ये है कि आपके और मेरे जैसा एक आम नागरिक लगातार एक भय में जी रहा है जिसे वह व्यक्त भी नहीं कर सकता।
ऐसे माहौल में जहां मूल मानवीय मूल्यों (लोकतांत्रिक मूल्यों की तो बात ही छोड़ दीजिए) पर रोजाना तलवार लटकी हो, तांडव जैसी वेब सीरीज लिखना और बनाना अपने आप में एक साहसिक काम है।
चाहे तांडव एक औसत सीरीज क्यों ना हो, इसके निर्माताओं और अभिनेताओं की दरअसल प्रशंसा होनी चाहिए कि उन्होंने राजनीति पर आधारित एक नाटक की रचना की, जिसमें ‘सभी कुछ काल्पनिक’ है, कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा गया है और ,कुछ संवेदनशील मुद्दों को तो बस उठा कर छोड़ दिया गया है। दर्शक खुद ही इन सूक्षमताओं और असल घटनाओं की तरफ संकेतों को समझ लें तो बेहतर।
संक्षेप में, ये बहुत अजीब सा एहसास है, इस अर्थ में कि मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक बहुत औसत सी कृति का समर्थन करूंगी; जो कि मैं कर रही हूँ, और बहुत मजबूती से कर रही हूँ। 'तांडव' टीम आपने अच्छा, सराहनीय काम किया है!
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