बीते आठ सालों में भारत में और चौड़ी हुई विषमता की खाई, इसे पाटने के लिए नहीं उठाया गया एक भी कदम
राजसत्ता अंधी श्रद्धा के उन्मूलन की बजाय उसके बढ़ावे में लगी है। गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी, रामायण काल में विमान का उड़ना, गणेश जी की प्रतिमाओं का दूध पीना उसी का सबूत है।
कुछ सालों पहले बांग्लादेश की 'ग्रामीण बैंक' नामक महिला आर्थिक सशक्तिकरण को समर्पित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित संगठन को देखने-समझने का अवसर मिला। उसी के तहत प्रो. मोहम्मद युनूस से भी मुलाकात हुई। वे स्पष्टतः मानते हैं कि गरीबी कोई दैवीय प्रकोप या कुदरती दुर्घटना नहीं है। यह विशुद्ध रूप से मानव निर्मित है और उसकी जड़ में विषमता है।
विगत आठ सालों से हुक्मरान भारत में विषमता की खाई को पाटने की बजाय और चौड़ा करने की फिराक में है। ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया जिससे विषमता कम हो। बल्कि नोटबंदी, कॉरपोरेट टैक्स में कमी, दोषपूर्ण जीएसटी, लॉकडाउन और सामाजिक-आर्थिक कवच प्रदान करने से बचने की नीति ने हाशिये की ओर लाखों लोगों को धकेला है।
इसमें कोई ताज्जुब नहीं। जब सत्ता का उपयोग चंद पूंजीपतियों के गठजोड़ को मजबूत करने के लिए होगा, तो उसका यही परिणाम होना है। ताज्जुब तो इस बात का है कि जिम्मेदार राजनीतिक दल के नेता और एक प्रांत के मुख्यमंत्री मानव निर्मित मंदी के लिए देव आराधना करने पर आमादा हैं। क्या सच ही वह मानते हैं कि 'भगवान ही मालिक है?' क्या इसी आत्मविश्वास के साथ वह प्रदेश-दर-प्रदेश अपना राजनीतिक विस्तार कर रहे हैं। यदि यह कोई दैवीय प्रकोप होता, जो टोटके से ही शांत होगा, तो फिर नेतृत्वकर्ताओं की आवश्यकता क्या है? क्यों न सब कुछ उन पुरोहितों के हवाले कर दिया जाए जो नित नए-नए उपाय बताकर ढकोसला फैलाते हैं और आम भोले लोगों को ठगते हैं। कभी गाय दान में लेकर मृत व्यक्ति को वैतरणी पार कराते हैं, कभी ग्रहों को शांत करने के लिए 'पत्थर' सुझाते हैं। एक श्रेष्ठ उच्च तकनीकी डिग्री प्राप्त जनप्रतिनिधि से कम-से-कम ऐसी उम्मीद नहीं थी। यह भी स्पष्ट हो गया कि मात्र डिग्री किसी भी प्रकार से चैतन्य का प्रमाण नहीं है।
गौरतलब है कि देवों का सजीव चित्रण दूसरी तीसरी ईस्वी में मिस्त्र, यवनी प्रभाव के कारण भारत में शुरू हुआ। पार्थियाई शासक अजीलिसस ने पहली बार लक्ष्मी देवी की छवि छिद्रों वाले अपने राजसी सिक्के में छापी। कालांतर में यूची समूह के कुषाण शासकों ने जब छिद्र वाले सिक्कों की बजाय भारी पूरे सिक्के ढालने शुरू किए, तब छवि उकेरना सरल हो गया। वे अपने क्षेत्र के हिसाब से यवनी देवी-देवता, बुद्ध, शिव आदि की छवि उकेरने लगे। 'दैवकुल' या मंदिर भी उन्हीं के द्वारा पहले पहल बनवाए गए। खुद को देवपुत्र और दिव्य स्थापित करने के लिए दिव्यता को छवि में बांधकर प्रस्तुत करना जरूरी हो गया होगा, तभी राजसत्ता ने उसका उपयोग किया। कालांतर मे सामंतवादी व्यवस्था के फैलाव ने पुरोहिताई को और मजबूत किया। दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। सामंतों को उच्च कुलीनता का प्रमाण पुरोहितों से चाहिए था। पुरोहितों को राजाश्रय और जमीन की दरकार थी। परिणामतः मंदिर और उसके गर्भगृह की प्रतिष्ठा बढ़ती गई। वैसे समुद्री व्यापार की इजाजत नहीं थी लेकिन चंदा देने वाले व्यापारी को छूट मिल ही जाती थी।
वर्तमान राजसत्ता भी धर्म की आड़ लेकर अपने ऊपर उठती उंगली की दिशा मोड़ने के हुनर में पारंगत हो चली है। वे भी जानते हैं कि यह सब धर्म नहीं है। यह तो कर्मकांड है, ढकोसला या भय निर्मिति का साधन है। राजसत्ता अंधी श्रद्धा के उन्मूलन की बजाय उसके बढ़ावे में लगी है। गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी, रामायण काल में विमान का उड़ना, गणेश जी की प्रतिमाओं का दूध पीना उसी का सबूत है। विज्ञान प्रौद्योगिकी के मंत्री तक ऐसा बयान देते हैं। माननीय मुख्यमंत्री जी की जिस उच्च प्रौद्योगिकी संस्थान में शिक्षा हुई, विगत दिनों उसी संस्था ने ऐसी ही अतार्किक, अवैज्ञानिक तथ्यों से भरा कैलेंडर प्रकाशित किया था। राजसत्ता की भक्ति में लगी मीडिया द्वारा कई बार अश्वत्थामा के जिंदा रहने के प्रमाण रहस्यमय ढंग से दिखाए गए हैं। उन्हीं के खेमे के भक्त कलाकार 'रामसेतु' जैसी नितांत अवैज्ञानिक, फूहड़ फिल्म करते हैं।
असल में, यह मात्र वैज्ञानिक नजरिये की बात नहीं है। एक सत्यान्वेषी समाज हर तथ्य को परखकर ही मानेगा। विज्ञान की सृष्टि में रहते हुए कोरोनिल का सेवन नहीं कर लेगा। ना ही रेमडेसिविर को बिना जांचे रामबाण मान लेगा। मगर पूर्वाग्रह का निर्माण करने पर तुली राजसत्ता को वैज्ञानिकता से डर लगता है। सवाल पूछने की बीमारी का बढ़ना उसके लिए शुभ संकेत नहीं है। न ही प्रभुत्व संपन्नता के गठजोड़ को संस्थापित करने में यह सहायक है। तो क्या अब राजसत्ता एक नए पुरोहित वर्ग को पुनर्सृजित करने जा रही है जो पहले से ही सामाजिक, आर्थिक विषमता झेलते समाज को और भी भयभीत करें? राजसत्ता कर्मकांडों की मदद से खुद ही पुरोहिताई पर उतारू है। क्या कभी भूमिपूजन, तो कभी नोट में दैवीय चित्रों के प्रदर्शन की पैरवी; मध्ययुगीन यूरोप की तर्ज पर राजसत्ता और सांप्रदायिक सत्ता के एकीकरण का प्रयास तो नहीं है?
आखिर जनता को कोविड के दौरान ईश्वर भरोसे छोड़ा ही गया। तथाकथित देशप्रेम और धार्मिक कर्मकांड लाभकारी साबित हुए ही थे। लेकिन जनसमाज और सत्ता यह याद रखे कि सारे दैव चित्र मानव की कल्पना हैं। साकार सजीव दैव चित्र मानव निर्मित है। मंदी की ही तरह। उससे निपटने, विषमता को दूर करने के लिए कई स्थानीय प्रयोग हो रहे हैं। जैसे रायचूर के ग्राकूस द्वारा मनरेगा मजदूरों का संघ एवं बैंक बनाकर देवदासी रही महिलाओं को मुक्त किया जा रहा है। भारत जोड़ो यात्रा ने उसके दर्शन कराए। असल में राजसत्ता सत्यान्वेषण की परंपरा को सार्वजनिक समझ से गायब करना चाहती है। बापू की छवि सत्यान्वेषण का प्रतीक है। इसलिए वह राजसत्ता को सहनीय नहीं है। भारत यदि सचमुच विश्व पटल पर अपने को संस्थापित करना चाहे, तो वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बगैर असंभव है। उम्मीद है कि लोकसमाज की चेतना इस ओर बढ़ेगी।
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