लोकतांत्रिक संकेतकों में रवांडा, नाइजीरिया और पाकिस्तान के बराबर पहुंच गया है 2014 के बाद का भारत

हमने दुनियादारी के चलते हमारे आसपास बढ़ते तापमान और स्थितियों में आ रहे उबाल को शायद नोटिस नहीं किया, लेकिन दुनिया कुछ वर्षों से हमें लगातार चेतावनी दे रही है कि सही रास्ते पर चलना चाहिए और लोकतंत्र और बहुलतावाद के रास्ते पर वापस जाना चाहिए।

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आकार पटेल

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने 2014 में कहा था कि, "मुझे पूरा विश्वास है कि नरेंद्र मोदी का भारत के प्रधानमंत्री के रूप में होना देश के लिए विनाशकारी होगा।" चार साल बाद उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि उनके शब्द कुछ ज्यादा ही कठोर थे, लेकिन साथ ही कहा किस "वह समय दूर नहीं है जब बड़े पैमाने पर जनता के पास मोदीजी की नीतियों की प्रभावकारिता पर फैसला देने का मौका होगा या इस पर अपनी अन्यथा प्रतिक्रिया देने का अवसर होगा।”

बस कुछ ही दिनों में देश मोदी शासन के 10वें वर्ष में प्रवेश करेगा। 10 साल कोई छोटा वक्त नहीं होता जिसमें हम तय कर सकें कि पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने जो कुछ कहा वह सही साबित हुआ, थोड़ा बहुत सही साबित हुआ या फिर पूरी तरह गलत साबित हुआ। कुछ बरस पहले जब मुझे लगा कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं जिनके आधार पर मोदी के शासन के प्रदर्शन को आंका जा सकता है, तो मैंने अपनी किताब लिखना शुरु की जिसका शीर्षक था ‘द प्राइस ऑफ द मोदी ईयर्स’ (मोदीकाल की कीमत)। पहले यह पेपरबैक एडिशन में छपी लेकिन इसका दूसरा संस्करण हार्डकवर में और फिर अब तीसरा संस्करण पेपरबैक में प्रकाशित हुआ है।

हर नए संस्करण में मुझे कुछ अध्यायों को अपडेट करना होता है खासतौर से उन हिस्सों को जिनमें मैंने वैश्विक संकेतों को इस्तेमाल किया है।

इन संकेतों से विभिन्न मोर्चों पर भारत की स्थिति 2014 से पहले और बाद में आंकी जा सकती है। और मोदी के आलोचकों को यह जानकर बिल्कुल हैरानी नहीं होगी कि भारत इन सूचकांकों में से अधिकतक में नीचे गिरा है। इसी तरह उनके समर्थकों को भी यह जानकर अचंभा नहीं होगा क्योंकि वे समझते हैं कि पूरी दुनिया सिर्फ एंटी-इंडिया (भारत विरोधी) एजेंडा ही चला रही है।

बहरहाल, पुस्तक लिखना और फिर हर संस्करण के लिए इसे अपडेट करने का अर्थ है कि मुझे विभिन्न और विविध मुद्दों और विषयों से जुड़े आंकड़ों पर नजर रखना होती है। अब किसी को ये आंकड़े अच्छे लगे या न लगें, लेकिन आंकड़े देखना तो पड़ेंगे ही। अगर कोई इन आंकड़ों को पूर्वाग्रह से ग्रसित बताता है तो सच्चाई से मुंह छिपाना होगा, और सरकार कुछ यही करती रही है।


इस सप्ताह की कुछ घटनाओं पर नजर डाली जाए तो मैं उन सभी घटनाओं, मुद्दों आदि को एक जगह लिखना चाहता हूं जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता और भारत में अधिकारों से जुड़े हैं और जिन्हें बाहर की दुनिया बहुत रुचि और गंभीरता से देखती है। यह थिंक टैंक द्वारा संकलित सामग्री है, जिनमें से कुछ रूढ़िवादी हैं (जिन्हें 'दक्षिणपंथी' कहा जाता है) जबकि अन्य उदारवादी हैं। उन्होंने केवल भारत का ही नहीं, सभी देशों का अध्ययन किया है और उनकी रैंकिंग की है, इसलिए यह विशेष रूप से हैरान करने वाला है कि किसी को यह सोचना चाहिए कि उनका भारत को लेकर कोई खास एजेंडा है।

लंदन स्थित द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने 2020 में भारत को अपने लोकतंत्र सूचकांक में डाउनग्रेड करते हुए, इसे 'त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र' की श्रेणी में डाला। 2022 के सूचकांक में भी यही स्थिति बनी हुई है। चुनावी प्रक्रिया के मोर्चे पर भारत की रैंकिंग बहुत हाई या उच्च है और यहां तक कि, आश्चर्यजनक रूप से, बहुलवाद पर भी स्कोर काफी अच्छा है। लेकिन नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक संस्कृति पर इसकी साख काफी कम है। ये सूचकांक 2006 के आसपास शुरु हुए थे लेकिन 2017 के बाद भारत कई सूचकांकों में भारत की स्थिति गिरना शुरु हुई है।

वाशिंगटन स्थित काटो इंस्टीट्यूट का सूचकांक ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स है, जिसमें वह किसी देश में कानून के शासन, धार्मिक आजादी, नागरिक स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार करने की स्वतंत्रता को आंकते हैं। इस इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 2015 में 75 थी जो कि 2022 में (हालांकि इसमें 2020 के आंकड़े हैं) गिरकर 112 पहुंच गई। कारण है कि भारत का स्कोर मानवीय स्वतंत्रता और निजी आजादी के मोर्चे पर काफी नीचे है। इस इंस्टीट्यूट के संस्थापकों में चार्ल्स कोच भी हैं जो रिपब्लिकन पार्टी के दानकर्ता भी हैं।

ऐसे ही फ्रीडम हाउस एक थिंक टैंक है जिसकी फंडिंग अमेरिकी सरकार करती है। 2014 की फ्रीडम इन द वर्ल्ड रिपोर्ट में भारत को 77 रैंकिंग के साथ एक मुक्त देश के तौर पर वर्गीकृत किया गया था। इस रेटिंग में दो बातों का मिश्रण होता है, पहला राजनीतिक अधिकार, जिसमें भारत हमेशा अच्छे अंक हासिल करता रहा है, जिसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना भी शामिल हैं। दूसरा है नागरिक स्वतंत्रता। इस मोर्चे पर भारत की स्थिति 2014 के बाद से खराब हुई है और 2020 में भारत को आंशिक रूप से स्वतंत्र और कश्मीर को तो ‘स्वतंत्र नहीं’ की श्रेणी में अंकित किया गया है। दो साल बाद यानी 2022 में भी इन दोनों स्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ है।


इसी तरह सिविकस दक्षिण अफ्रीका के ज्हांसबर्ग स्थित सिविल सोसायटी संगठनों का वैश्विक गठबंधन है। इसके सालाना नागरिक अधिकार सूचकांक मे भारत की स्थिति नीचे गिरी है जो 2017 में बाधित या अवरुद्ध की श्रेणी में थी और वह खराब होकर 2021 और 2022 में दमित यानी दमन की शिकार वाली श्रेणी में पहुंच गई है।

बर्टेल्समैन स्टिफ्टंग पॉलिटिकल ट्रांसफॉर्मेशन इंडेक्स को गुटर्सलोह, जर्मनी में संकलित किया जाता है। लोकतंत्र की उनकी अवधारणा मुक्त चुनाव और राजनीतिक भागीदारी से थोड़ा परे है। इसमें कानून के शासन के कामकाज के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्वीकृति, प्रतिनिधित्व और राजनीतिक संस्कृति शामिल है।

भारत 2015 में 26वें स्थान पर था, 2020 में 34वें स्थान पर आ गया और 2022 में 50वें स्थान पर आ गया, जिसे 'दोषपूर्ण लोकतंत्र' के रूप में वर्गीकृत किया गया है। आर्थिक परिवर्तन में, भारत रवांडा के समान ही 65वें स्थान पर था।

गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय, स्वीडन ने 1972 से लोकतंत्र सूचकांक की श्रेणियों को सामने रखा है। इसने आपातकाल के दौरान 1975 और 1976 में भारत को 'चुनावी निरंकुशता' के रूप में वर्गीकृत किया। 1977 से 2016 तक भारत एक 'चुनावी लोकतंत्र' था। पिछले छह वर्षों से इसे फिर से 'चुनावी निरंकुशता' के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत दुनिया के 40-50% देशों में नाइजीरिया, सर्बिया, पाकिस्तान और सिंगापुर जैसे देशों के साथ सबसे नीचे है।

मुझे एक भी सूचकांक नहीं मिला है, चाहे वह रूढ़िवादी थिंक टैंक हो या उदारवादी, जो कहता है कि भारत 2014 की तुलना में आज अधिक लोकतांत्रिक और अधिक स्वतंत्र है। मुद्दा यह है कि हमारे आसपास जो हो रहा है वह लंबे समय से चल रहा है। हमने दुनियादारी के चलते हमारे आसपास बढ़ते तापमान और स्थितियों में आ रहे उबाल को शायद नोटिस नहीं किया, लेकिन दुनिया कुछ वर्षों से हमें चेतावनी दे रही है कि सही रास्ते पर चलना चाहिए और लोकतंत्र और बहुलतावाद के रास्ते पर वापस जाना चाहिए।

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