अथ अडानी कथा: इतना सब हो गया लेकिन सरकार और बाजार पर नजर रखने वाली एजेंसियां खामोश हैं, आखिर कब तक?

हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट के बाद अडानी के मामले को आप स्कैम, स्कैैंडल या साजिश कुछ भी कह सकते हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप किस तरफ हैं। बाजार ने तो अपनी प्रतिक्रिया दे दी, लेकिन सरकार और एजेंसियां कब इस पर प्रतिक्रिया देंगे।

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आकार पटेल

कोई व्यक्ति अडानी-हिंडनबर्ग एपिसोड को स्कैंडल, स्कैम, भारत के खिलाफ षड्यंत्र या ऐसा ही कुछ कह सकता है। कोई क्या कहेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस सरकार के बारे में उसकी क्या धारणा है और यह बात समझी भी जा सकती है। वैसे, हमारे सामने जो सबूत हैं, उस आधार पर कहें तो इससे जुड़े दो और पहलू हैं जिनसे कोई इनकार नहीं कर सकता, या यूं कहें- इनकार करना मुश्किल होगा। पहला है- इस पर बाजार की प्रतिक्रिया और दूसरी है- भारत सरकार का इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करना।

पहले बात प्रतिक्रिया करने की। यह हकीकत है कि उन लोगों जिनके वास्तविक पैसे इस मामले में दांव पर लगे हुए हैं, ने हिंडनबर्ग के पक्ष में वोट किया है। पाठकों को पता होना चाहिए कि भारत में म्युचुअल फंडों में अडानी समूह को लेकर बेरुखी ही रही है। शायद ही कोई म्युचुअल फंड इसमें निवेश करना चाहता हो।

हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में कहा भी गया है: ‘अडानी की सूचीबद्ध कंपनियों के घरेलू और विदेशी सूचकांकों में शामिल होने के बावजूद, शेयरहोल्डिंग जानकारी के अनुसार, अडानी ग्रीन, अडानी एंटरप्राइजेज, अडानी टोटल गैस या अडानी ट्रांसमिशन में किसी भी सक्रिय स्थानीय फंड की इक्विटी के 1% से अधिक की भागीदारी नहीं।'

सवाल है, ऐसा क्यों? यह वाकई हैरान करने वाला है। दुनिया का दूसरा सबसे अमीर आदमी (कभी था), एक ऐसा भारतीय जिसने ‘सड़क से महलों तक’ की महान धीरूभाई अंबानी की यात्रा जैसी ही कहानी लिख डाली थी। ऐसे में भला आम भारतीयों ने अपना पैसा ऐसे व्यक्ति पर क्यों नहीं लगाया? दूसरा, उस व्यक्ति का व्यवसाय बुनियादी ढांचे में था: बंदरगाह, हवाई अड्डे, ऊर्जा, खनन आदि। मतलब यह कि वह व्यक्ति उन्हीं क्षेत्रों में काम कर रहा था जिन्हें सरकार विकास कहती है। उसका व्यापार कोई हवा में नहीं था। जमीन पर वास्तविक संपत्तियां थीं। यह हीरे या ऐसी चीजों का कारोबार नहीं है जिनकी समझ मुट्ठी भर लोगों को है।

इन सबके अलावा एक अहम बात और थी- अडानी हमारे प्रधानमंत्री के करीबी हैं और यह सभी जानते हैं। अडानी जिस मुकाम पर पहुंचे, वह प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान ही हो सका। आप इस ओर हों या उस ओर, इस बात से इनकार नहीं कर पाएंगे कि एक मजबूत नेता के सुरक्षा घेरे ने इतना तो सुनिश्चित कर ही दिया था कि अडानी के व्यवसायों को उस तरह के उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ेगा जो बाकी लोगों के लिए आम बात है। कुल मिलाकर, यह मानते हुए कि उन्होंने अच्छा काम किया है, अडानी समूह को जीतने से कोई भी नहीं रोक सकता था।


अब बात पहेली के दूसरे पहलू, यानी सरकार द्वारा प्रतिक्रिया न करने की। 'सरकार' से मेरा मतलब है: सरकार, उसकी एजेंसियां, न्यायपालिका, नियामक प्रणाली। कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। इस मामले में जो अकेली महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई, वह बाजार से हुई: पैसे पर बिजली गिर गई। अडानी समेत कई व्यापारियों, सट्टेबाजों और दलालों के अत्यधिक राष्ट्रवादी समुदाय को हिंडनबर्ग रिपोर्ट में वह दिख गया जो प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और अन्य केंद्रीय एजेंसियों को नहीं दिखा। (एक पल के लिए मान लें कि वे वास्तव में स्वतंत्र हैं और उन्हें पीएमओ और अमित शाह द्वारा आदेश नहीं दिया जा रहा है)।

यदि कोई सरकार और अडानी के पक्ष में है, या इसे और स्पष्ट करते हुए यह कहूं कि प्रधानमंत्री के पक्ष में है, तो वह कह सकता है कि उन्होंने कार्रवाई नहीं की क्योंकि यहां ऐसा कुछ था ही नहीं। वह यह भी कह सकता है कि बाजार जरूरत से ज्यादा या गलत तरीके से प्रतिक्रिया कर रहे हैं, और यह भी कि खुद कुछ अमेरिकी भी हिंडनबर्ग को 'नथिंगबर्गर' कहकर खारिज कर रहे हैं।

इसमें कोई गलत बात नहीं क्योंकि यह एक राय है। मैं कुछ कह सकता हूं और आप कुछ और। मुद्दा यह है कि क्या सरकार और उसकी एजेंसियां भी ऐसा कह सकती हैं, तो और इसका उत्तर है- नहीं। पूरी कहानी ‘न्यू इंडिया’ की बात करती है जो परेशान करने वाली है।

अडानी समूह की ओर से भारतीय झंडा लहराने वाले शख्स हैं ऑस्ट्रेलियाई सीएफओ। उन्होंने बचाव में जो कहा, उनमें से एक यह था कि सभी आरोप पुराने हैं। वास्तव में, यही तो हिंडनबर्ग रिपोर्ट का सबसे सोचने वाला पहलू है। अगर ये बातें पब्लिक डोमेन में थीं- और वे वास्तव में थीं- और अगर नियामक एजेंसियां उन पर नजर रख रही थीं तो उन्होंने उन्हें लाल झंडी क्यों नहीं दिखाई?

हिंडनबर्ग का कहना है कि ‘अडानी समूह से जुड़े विदेशी शेल और फंड में अडानी स्टॉक के सबसे बड़े ‘सार्वजनिक’ (यानी, गैर-प्रमोटर) धारक शामिल हैं। यह एक ऐसा विषय है जिसके कारण अडानी की कंपनियां डीलिस्ट की जा सकती हैं क्योंकि सेबी (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) के नियम यही कहते हैं।

मतलब साफ है, सेबी अपना काम नहीं कर रही है और सरकार को इससे कोई दिक्कत नहीं। हिंडनबर्ग कहते हैं: ‘सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत भी इस बात की पुष्टि होती है कि विदेशी फंड एक चालू जांच का विषय है। मीडिया और सांसद डेढ़ साल से भी अधिक समय से इस मामले में चिंताए जताते रहे हैं।’


पाठक शर्लक होम्स की कहानी ‘डॉग दैट डिड नॉट बार्क’ से परिचित हो सकते हैं। यह रेस के एक महंगे घोड़े के लापता होने और उसके ट्रेनर की हत्या की कहानी है। होम्स ने अपनी जांच में निष्कर्ष निकाला है कि यह एक भेदिये का काम था क्योंकि वहां मौजूद किसी ने भी उस कुत्ते को भौंकते नहीं सुना। यह हमारे लिए रहस्य की बात है कि निगरानी एजेंसियां खामोश हैं लेकिन यह बाजार है जो भौंकता रहा है और जिसने भौंकना बंद नहीं किया है।

जब तक ऐसा होता रहेगा, तब तक यह सिरदर्द दूर नहीं होगा। कुछ ऐसी चीजें जरूर होती हैं जिन्हें सरकार दबा सकती है या जिन्हें कुचलने के लिए क्रूर बल का प्रयोग कर सकती है। काश, यह मामला भी वैसा ही होता। यह स्कैंडल, स्कैम या कहानी तब तक जिंदा रहने वाली है जब तक इसे निपटा नहीं दिया जाता।

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