अगर नीति निर्धारक बदलें मानसिकता तो कृषि फूंक सकती है अर्थव्यवस्था में नई जान

कृषि क्षेत्र की कायाकल्प तभी संभव है जब नीतियां तय करने वाले इस मानसिकता से बाहर निकलें जो खेती को देश के राजस्व पर बोझ मानती है। नीति निर्धारकों को महसूस करना होगा कि देश के भावी आर्थिक विकास की राह कृषि और कृषि से ही होकर गुजरती है।

फोटो : सोशल मीडिया
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देवेंदर शर्मा

ऐसे कालखंड में जब नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज कह रहे हों कि नव-उदारवाद की ‘मौत हो चुकी है और इसे दफना दिया गया’ है, और इसके परिणाम स्वरूप दुनिया बढ़ती बेरोजगारी और असामनता की भयावह समस्याओं से जूझ रही है और जलवायु परिवर्तन खतरनाक स्तर तक तेजी से पहुंचता जा रहा है, अकेले कृषि ही ऐसा क्षेत्र है जो अर्थव्यवस्था में जान फूंक सकता है ।

पश्चिमी देशों में धन का संचय अनिवार्य रूप से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नजरअंदाज करके किया गया है और लेखक अमिताभ घोष की बातें गौर करने के काबिल हैं कि संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून ने यह स्वीकार करने का साहस दिखाया था कि “दुनिया का वर्तमान आर्थिक मॉडल पर्यावरण की दृष्टि से आत्महत्या जैसा है। जलवायु परिवर्तन हमें बता रहा है कि पुराना मॉडल बिल्कुल अप्रचलित हो चुका है और वैश्विक अर्थव्यवस्था को टिकाऊ बनाए रखने के लिए एक क्रांति की जरूरत है।” हालांकि विश्व आर्थिक मंच की 2011 की बैठक में बान की मून की इस चेतावनी को अनसुना कर दिया गया। किसी मीडिया ने भविष्य की इस वैश्विक आर्थिक संकट पर एक गंभीर विचार-विमर्श तक कराने की जहमत नहीं उठाई।

जबकि, वर्तमान आर्थिक मॉडल की उपयोगिता खत्म हो चुकी है, और इस तरह की कोई भी व्यवस्था केवल प्राकृतिक संसाधनों के विनाश को ही बढ़ाएगी और इससे दुनिया के सामने खड़ी जलवायु तबाही की विकराल स्थिति हमारे और करीब आ जाएगी और इसके कारण ऐसे-ऐसे सामाजिक-आर्थिक अवरोध पैदा होंगे जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


हिमालय के बर्फ का खतरनाक दर से पिघलना शुरू हो चुका है, हर साल इसकी मोटाई डेढ़ फुट कम होती जा रही है जिससे नदी का प्रवाह सिकुड़ता जा रहा है, झील और तालाब गायब होते जा रहे हैं; और प्रदूषित समुद्र के जल स्तर के लगातार बढ़ने से अंदाजा हो रहा है कि आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाला असर कितना खतरनाक है। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं, यहां औद्योगिक कृषि के कारण पर्यावरण को हुए नुकसान पर नजर डालना उचित होगा। सघन खेती वाले क्षेत्रों में मिट्टी की उर्वरता लगभग शून्य हो गई है; भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण जलाशय वगैरह सूख रहे हैं; कीटनाशकों और रसायनों के कारण पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है और इस तरह पूरी खाद्य श्रृंखला ही दूषित हो गई है।

जैसे-जैसे मिट्टी बीमार होती जाती है, जंगलों का इस्तेमाल औद्योगिक खेती के विस्तार के लिए किया जाने लगता है, मिट्टी के कटाव और पानी की कमी के कारण भूमि का मरुस्थलीकरण तेज हो जाता है। लेकिन इस अनुभव से कोई सबक नहीं लेते हुए ब्राजील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो ने अमेजॉन के वर्षावनों पर जैसे हमला बोल दिया है। पदभार ग्रहण करने के कुछ ही घंटों के भीतर उन्होंने एक कार्यकारी आदेश जारी कर इन वर्षावनों की मौत का फरमान सुना दिया।

गौरतलब है कि इस वर्षावन को दुनिया का फेफड़ा माना जाता है। पंजाब के मुख्यमंत्री ने बार-बार आगाह किया है कि जिस पैमाने पर भूजल की निकासी हो रही है, उस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो मरुस्थलीकरण तेज हो जाएगा। केंद्रीय भूजल बोर्ड की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि अगर वर्तमान की तरह भूजल निकाला जाता रहा तो आने वाले 25 सालों में पंजाब और हरियाणा रेगिस्तान में बदल जाएंगे। फिर भी मैं पाता हूं कि आर्थिक उदारीकरण से अपेक्षाएं काफी बढ़ गई हैं।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में कारपोरेट समर्थित थिंकटैंक, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से लेकर आर्थिक विषयों के लेखक तक एक सुर से और उदारीकरण की पैरोकारी कर रहे हैं। ये लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि सरकार को साहसी उदारीकरण की ओर बढ़ना चाहिए। मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि आर्थिक उदारीकरण की राह पर चलते हुए ऊंची विकास दर हासिल करने वाली यूपीए-1 और यूपीए-2 के दस सालों के दौरान आर्थिक उदारीकरण की अवधारणा को रोजगार सृजन में तब्दील नहीं किया जा सका तो और अधिक उदारीकरण से भला अब नौकरियां कैसे सृजित हो जाएंगी? यह ऐसा सवाल है जिसका कोई जवाब देना नहीं चाहता, खास तौर पर ऐसे समय में जब हम लोग तेजी से रोजगार नहीं पैदा कर रही अर्थव्यवस्था से रोजगार के मौके घटाने वाली अर्थव्यवस्था की ओर बढ़रहे हैं। हाल के अध्ययन बताते हैं कि शहरी केंद्रों के अलावा गांवों में खेतिहर से लेकर गैर-खेतिहर मजदूरों का भी काम कम हो गया है।

इसी तरह, निवेश को आकर्षित करने और रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए कॉरपोरेट कर को कम करने मांग ऐसे समय में आई है जब वैश्विक स्तर पर इसके लिए कोई अनुभवजन्य साक्ष्य नहीं है। चूंकि कॉरपोरेट के लिए यह फायदेमंद है, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां और थिंक-टैंक इसे उचित ठहराने के लिए कुछ भी दलील दे रहे हैं।


नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन ने अपने एक ट्वीट में इस दोषपूर्ण सोच पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह मान लेना सरासर गलत है कि कॉरपोरेट करों में कमी से निवेशों में भारी उछाल आ जाएगा। उन्होंने अपनी बात के पक्ष में एक ग्राफ भी ट्वीट किया जिसमें स्पष्ट रूप से दिखाया गया कि कॉरपोरेट टैक्स में कटौती और निवेश के बढ़ने में कोई संबंध नहीं है और न ही इससे रोजगार के मौके पैदा होते हैं। हकीकत तो यह है कि इसने सिर्फ इतना किया कि अमीरों की जेब में ज्यादा पैसे डाल दिए ताकि वे शेयर बाजार में ज्यादा पैसा लगा सकें।

एक और साहसिक सुधार है जिसके लिए उद्योग संघ मरे जा रहे हैं, वो है श्रम बाजारों में सुधार। इसका सीधा सा मतलब यह है कि उद्योग ऐसी सहूलियत चाहते हैं कि जब चाहें श्रमिक को रखें, जब चाहें निकाल सकें। पॉल क्रुगमैन ने इस बारे में अपनी राय एक ट्वीट से जाहिर की है, “मूलतः इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता कि अपने श्रम बाजारों में इस तरह की क्रूरता करके हम कुछ भी हासिल कर पाते हैं।” सरल शब्दों में कहें तो अमेरिका में ‘क्रूर’ श्रम सुधार कामयाब नहीं रहे हैं। मुझे हैरत इस बात पर होती है कि अगर यह अमेरिका में काम नहीं कर पा रहा है, जिससे हम आर्थिक नीतियों की नकल करते हैं तो यह आखिर भारत में कैसे कामयाब हो सकता है। इसे बदलना होगा। निश्चित रूप से यह कोई आसान काम नहीं है, लेकिन यह देखते हुए कि अब लोगों को इस बात का अहसास हो गया है कि कृषि क्षेत्र में संरचनात्मक सुधार जरूरी हैं, मुझे आशा की किरण दिखाई देती है।


मेरी समझ यही है कि मौजूदा आर्थिक परिदृश्य में केवल कृषि ही है जो अर्थव्यवस्था में नई जान फूंक सकती है, लाखों लोगों की आजीविका को बनाए रख सकती है और इसके साथ ही ग्लोबल वार्मिंग को भी काफी हद तक कम कर सकती है। इसके लिए पहली जरूरत यह स्वीकार करने की है कि आने वाले वर्षों में अर्थव्यवस्था में जान फूंकने में खेती भूमिका निभा सकती है। ऐसे आर्थिक विचारों को छोड़ना होगा जो किसानों को मजबूर करते हैं कि वे खेती-किसानी छोड़कर शहरों में सस्ते श्रम की जरूरत को पूरा करने लगें।

अगर खेती आर्थिक रूप से लाभकारी हो जाती है, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी तेजी से बदल जाएगी और गांवों से शहरों की ओर पलायन भी काफी हद तक रुक जाएगा। ऐसे में गांव आर्थिक विकास की धुरी बन जाएंगे और शहरों को भी लगातार पलायन के कारण बनते दबाव से बचाया जा सकेगा। खेती के आर्थिक रूप से लाभदायक बनने का एक नतीजा यह भी होगा कि शहरों में अधिक रोजगार सृजन का दबाव भी कम हो जाएगा। इसलिए कृषि ही तारणहार की भूमिका निभा सकती है।


हाल ही में नई दिल्ली में नीतिआयोग की गवर्निंग काउंसिल की पांचवीं बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कृषि में संरचनात्मक सुधारों के उपाय सुझाव के लिए एक उच्च-स्तरीय टास्क फोर्स के गठन की घोषणा की थी। यह एक सकारात्मक कदम है और अगर सही तरह से इसे आगे बढ़ाया गया तो वर्ष 2024 तक कृषि में आधारभूत बदलाव लाने का आवश्यक काम पूरा हो सकेगा। इसमें नई सोच की जरूरत है जो पर्यावरण के लिहाज से महफूज हो और देश की स्थानीय जरूरतों को पूरा करने वाली हो।

कृषि क्षेत्र की कायाकल्प तभी संभव है जब नीतियां तय करने वाले इस मानसिकता से बाहर निकलें जो खेती को देश के राजस्व पर बोझ मानती है। नीति निर्धारकों को महसूस करना होगा कि देश के भावी आर्थिक विकास की राह कृषि और कृषि से ही होकर गुजरती है। सही तरीके से नीतिगत समर्थन से ही खेती को एक आर्थिक गतिविधि में बदलना संभव हो सकेगा और इससे न केवल प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर 60 करोड़ लोगों की आजीविका सुनिश्चित हो सकेगी बल्कि इससे मांग में उल्लेखनीय इजाफा होगा और आर्थिक विकास का पहिया भी चलने लगेगा। पर्यावरण अनुकूल आर्थिक विकास का यही वह फार्मूला होगा जो आय असमानता को दूर कर सकेगा। इसी की तो दुनिया बेसब्री से तलाश कर रही है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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