अभी भी नहीं खोजा लॉकडाउन से निकलने का रास्ता, तो बहुत ही दुखद होगा आगे का भविष्य
थाली बजाने, दिया जलाने और सड़कों पर निकलकर पटाखे फोड़ने वाले मध्यवर्ग ने तो इस संक्रमण की चपेट में आने के बदले थोपे गए इस लॉकडाउन को स्वीकार कर लिया है, लेकिन लाखों मजदूर पैदल ही घरों को निकल पड़े तो साबित हो गया कि जहां काम न मिले, उस शहर में न जान बचेगी, न जहान।
गुड़गांव में कपड़े और चमड़े का सामान बनाकर निर्यात करने वाली मैट्रिक्स क्लोदिंग नाम की कंपनी ने अपने 9 वर्कशॉप में से तीन को पर्सनल प्रोटेक्शन सूट बनाने में लगा दिया है। यह पर्सनल प्रोटेक्शन सूट कोरोना रोगियों के इलाज में लगे स्वास्थ्यकर्मियों के इस्तेमाल में आते हैं। वर्कशॉप में कामगार एक-एक मशीन छोड़कर काम करते हैं और असेम्बली लाइन में इनके बीच 3 से 4 फीट की दूरी रहती है। मशीनें भी एक-दूसरे से 6-7 फीट की दूरी पर रखी गई हैं।
कंपनी के संस्थापक और कार्यकारी निदेशक गौतम नायर बताते हैं कि सभी कर्मचारी मास्क पहनते हैं, दिन में चार बार हाथ धोते हैं, सुबह और लंच के बाद काम शुरू करने से पहले उनकी थर्मल स्क्रीनिंग, यानी टेम्परेचर की जांच की जाती है। नायर का कहना है कि टेक्सटाइल कमिश्नर के दफ्तर का कोई-न-कोई अधिकारी नियमित तौर पर आकर देखता है कि वर्कशॉप में इन मानकों का पालन किया जा रहा है या नहीं।
नायर कहते हैं कि उद्योगों पर लॉकडाउन का भीषण आर्थिक असर हुआ है इसलिए अब उद्योगों और कारखानों को धीरे-धीरे खोलना शुरू करना चाहिए। कपड़े और चमड़े के निर्यात उद्योग में बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को रोजगार मिला हुआ है जो पहले खेती-किसानी से जुड़े हुए थे और ऐसे ही लोगों पर लॉकडाउन का सर्वाधिक असर पड़ने की आशंका है। नायर का आकलन है कि इस सेक्टर में काम करने वाली आधी से भी ज्यादा यूनिट अब शायद ही दोबारा शुरू हो पाएं। जितनी यूनिट लगी हुई थीं, लॉकडाउन के असर की वजह से उनमें से आधी भी शायद ही बची रह पाएं।
इसके अलावा वह बताते हैं कि विदेशी खरीदार ज्यादा-से-ज्यादा डिस्काउंट चाहते हैं, क्योंकि उनके पास पहले का जो माल है, स्टोर्स बंद होने के चलते वही नहीं बिक पाया है, इससे भुगतान में भी देरी हो रही है। हालत यह है कि अगर कोई एक्सपोर्टर 100 रुपये के माल पर 5 रुपये मुनाफा कमा रहा था, उसे अब वही माल 70 रुपये में बेचने का दबाव झेलना पड़ रहा है। ऐसे में वह धंधा कैसे करेगा?
दुनिया में ऑटो-रिक्शा और मोटरसाइकिल उत्पादन में चौथे नंबर पर रहे बजाज ऑटो के कार्यकारी निदेशक राजीव बजाज इस मामले में काफी मुखर हैं। वह कोरोना से लड़ाई में सरकार की आधी-अधूरी तैयारियों और बे-सिर पैर के कदमों की आलोचना करते रहे हैं। इंडिया टुडे टीवी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने साफ कहा कि ऑटो सेक्टर के लिए स्पेयर-पर्जेु आदि बनाने वाले छोट-छोटे कारखानों में मुसीबत सामने खड़ी है। इन कारखानों में वेतन काटे जाएंगे, लोगों की नौकरी जाएगी और अन्य खर्च कम करने होंगे तभी कारखाने बचेंगे।
वह बताते हैं कि बजाज ऑटो तो बड़ी कंपनी है और कर्जमुक्त है और वहां अभी छंटनी भी नहीं हुई है, लेकिन कर्मचारी यूनियन ने खुद ही लॉकडाउन के दौरान वेतन में कटौती का प्रस्ताव रखा है, जिस पर अभी विचार किया जा रहा है। बजाज कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों और म्युनिसिपल सीमा से बाहर स्थित फैक्टरियों को खोलने की इजाजत सबसे पहले देनी चाहिए।
बजाज ऑटो को पुणे के पास चाकन और औरंगाबाद के वालुंज स्थित प्लांट में काम शुरू करने की अनुमति मिल गई है। लेकिन शर्त लाद दी गई है कि अगर तीन माह में एक भी कोरोना पॉजिटिव केस मिला तो पूरे प्लांट को सील कर दिया जाएगा। इस शर्त के बाद कोई बहुत हिम्मत वाला ही कारखाना खोलने का खतरा मोल लेगा।
29 अप्रैल को जब यह खबर फाइल की जा रही है, भारत में 1,007 लोगों की कोविड से मृत्यु हो चुकी है। इस बीमारी से वैश्विक मृत्यु दर 6.94 प्रतिशत रही है जबकि इसकी तुलना में भारत में इसकी दर आधी से भी कम है। संभव है कि कम टेस्ट किए जाने की वजह से यह स्थिति हो। यह भी हो सकता है कि डायबिटीज और हाइपरटेंशन से इन दिनों होने वाली मौतों का आंकड़ा इसमें शामिल नहीं किया जा रहा हो जबकि ये रोग कोविड-19 के कारक बनते हैं।
इन बातों को छोड़ भी दें, तब भी कोविड-19 चीन, ईरान, यूरोप और अमेरिका की तरह भारत में अब तक उस हद तक जानलेवा नहीं रहा है। लेकिन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ब्लावैटनिक स्कूल की एक स्टडी के हवाले से पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने एक ट्वीट में कहा कि भारत, रवांडा और सीरिया में लॉकडाउन सबसे सख्त रहे हैं। अर्थव्यवस्था को चलाए रखने के लिए चीन, ताइवान और इटली ने सोशल डिस्टेन्सिंग के नियमों का पालन करते हुए लॉकडाउन को तेजी से खत्म किया है।
एक अन्य ट्वीट में बसु ने कहाः आज की चुनौतियों को खत्म करने की कोशिश करने वाला समाज आने वाले दिनों के लिए दुख और अभाव का रास्ता ही बनाता है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ का भी मानना है कि इस साल भारत की जीडीपी सिर्फ 0.5 प्रतिशत रहेगी। उनके मुताबिक, जिस अर्थव्यवस्था को 6-6.5 प्रतिशत की दर से बढ़ना था, उसका यह हाल बहुत बड़ा झटका है। उन्होंने 2020-21 के लिए विकास दर 1.9 प्रतिशत रहने की उम्मीद जताई है।
यह तो साफ है कि लॉकडाउन 3 मई के बाद भी बढ़ाया गया, तो भारत की जीडीपी विकास दर नकारात्मक क्षेत्र में चली जाएगी। थाली बजाने, दिया जलाने और सड़कों पर निकलकर पटाखे फोड़ने वाले मध्य वर्ग ने तो इस संक्रमण की चपेट में आने के बदले इस थोपे गए लॉकडाउन को स्वीकार कर लिया है, लेकिन गरीबी के हाशिये पर खड़े लोगों के लिए ‘जान है तो जहान है’ जैसे वाकयों का कोई अर्थ नहीं है। लाखों मजदूर पैदल ही घरों को निकल पड़े तो यह साबित हो गया कि जहां काम न मिले, उस शहर में न जान बचेगी, न जहान।
भले ही देश की जीडीपी में आधे से अधिक हिस्सेदारी सेवा क्षेत्र की हो लेकिन देश के पूर्व मुख्य साख्यिकीविद (स्टिटैस्टिशन) प्रोनब सेन कहते हैं कि विनिर्माण क्षेत्र को दोबारा जिंदा करना होगा क्योंकि इसके तार सेवा क्षेत्र से जुड़े हैं। सेवा क्षेत्र के ही रीटल और होलसेल कारोबार में बड़ी तादाद में रोजगार है, इसे फलने-फूलने देने की जरूरत है। जरूरी चीजों के लिए ई-कॉमर्स खोल दिया गया है, लेकिन इसे गैरजरूरी चीजों के लिए भी खोलना चाहिए। हाईवे के इर्दगिर्द ढाबों को खोलने और फेरी लगाने वालों को भी अनुमति दी जानी चाहिए। होटल, रेस्टोरेंट चलाने और रेल तथा विमान सेवाएं भले ही देर से शुरू हों लेकिन होटल, रेस्टोरेंट से फूड टेकअवे की अनुमति दी जा सकती है।
फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (फिक्की) ने कोविड-19 संक्रमण की दर और आर्थिक नुकसान को कम-से-कम रखते हुए लॉकडाउन ’एक्जिट’ प्लान तैयार किया है। उसका कहना है कि जहां कोरोना का कोई केस या मजदूरों का विस्थापन नहीं हुआ है, उन इलाकों को गैर कोरोना क्षेत्रों तक सामानों को ले जाने समेत सभी कामों की अनुमति दी जानी चाहिए। जहां से मजदूरों का विस्थापन हुआ है लेकिन वहां कोरोना का कोई मामला नहीं हुआ है, तो वहां सभी आर्थिक गतिविधियों की अनुमति दी जानी चाहिए, भले ही यह किया जा सकता है कि जांच के बाद विशेष बसों और ट्रेनों से लोगों को आने-जाने की अनुमति दी जानी चाहिए। उन इलाकों में जहां कोविड-19 के नए मामले सामने आ रहे हैं, वहां लॉकडाउन बढ़ाने के साथ रैंडम रैपिड जांच की जानी चाहिए।
स्वास्थ्य राज्यों का विषय रहा है और विभिन्न राज्यों ने अपनी सामाजिक पूंजी, हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर और नेतृत्व की क्षमता के हिसाब से अलग-अलग तरीके से इस संकट से निबटने में काम किया है। उन पर छोड़ देना चाहिए कि वे अपने हिसाब से देख लें कि किस तरह लॉकडाउन से निकलना उचित होगा। राज्यों का हेल्थकेयर खर्च बढ़ गया है लेकिन जीएसटी कलेक्शन कम हो जाने की वजह से उनका राजस्व काफी कम हो गया है।
लॉकडाउन के दौरान शराब की बिक्री बंद है जबकि राज्यों की कमाई में इसकी हिस्सेदारी सबसे अधिक है, इसलिए समझा जा सकता है कि इसने राज्य की वित्तीय व्यवस्था को किस तरह प्रभावित किया होगा। अर्थव्यवस्था को और अधिक अव्यवस्थित किए बिना इस महामारी से निबटने में केंद्र को टीम प्लेयर की तरह अधिक बर्ताव करना होगा। उसे अभी की तुलना में अधिक सहयोगात्मक संघवाद के नजरिये से काम करना होगा।
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