‘पर्सनैलिटी कल्ट’ में उलझ हिंदी-हिंदू राष्ट्र का विचार आगे बढ़ा, तो आजादी के आंदोलन से जन्मा देश बिखर जाएगा
प्रवासी भारतीय भरम में रह सकते हैं, लेकिन देश में रहने वाले अब महसूस करते हैं कि न तो भगवान राम, न ‘मसीहा’ मोदी उस दुखदायी संकट से उबार सकते हैं, जिसमें वे हैं। और अगर हिंदी-हिंदू राष्ट्र का विचार और आगे बढ़ाया गया, तो आजादी के आंदोलन से जन्मा देश बिखर जाएगा!
किस सीमा के बाद लोकप्रियता और प्रसिद्धि ‘पर्सनैलिटी कल्ट’ बन जाती है? यह कल्ट किस तरह अद्भुत घटना बन जाती है? उदाहरण के लिए, हम मनोरंजन उद्योग, बॉलीवुड या हॉलीवुड में इस तरह का कल्ट जानते-समझते रहे हैं। खेल में भी इस तरह के लोग हम पाते रहे हैं। लेकिन आम तौर पर, महान वैज्ञानिक या असाधारण कलाकार भी कल्ट नहीं बनते, भले ही उन्हें खूब लोकप्रियता मिली हो और उन्होंने जबर्दस्त प्रसिद्धि पा ली हो। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी कई विशिष्ट लोग विशेष सुविधा प्राप्त और शक्तिशाली हैं, लेकिन वे आम तौर पर कल्ट नहीं हैं।
लेकिन राजनीति में कई ‘पर्सनैलिटी कल्ट’ हैं और रहे हैं। कई बार वे दशकों तक याद किए जाते हैं और कई दफा वे आलीशान तरीके से भुला दिए जाते हैं। एडोल्फ हिटलर के कल्ट ने न सिर्फ जर्मनी बल्कि यूरोप के कुछ हिस्सों और यहां तक कि अमेरिका को भी मंत्रमुग्ध किया था। उसके कल्ट की सनक 1930 के दशक में शरू हुई। लेकिन वह युद्ध हार गया जिसकी उसने शरुआत की थी। इसमें लाखों लोग मारे गए और बहुत बड़ा हिस्सा तबाह हो गया।
अपने व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द कल्ट उतार फेंकने के लिए उसे गोली मारकर आत्महत्या करनी पड़ी। स्वघोषित सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान फ्यूरर खतरनाक तानाशाह बन गया था, जिसका सब तिरस्कार करते थे। इतिहास में मुसोलिनी से पोल पॉट और ईदी अमीन तक कई उदाहरण हैं, जिन्होंने हथियार के तौर पर आतंक और इसके माध्यम के तौर पर भय का उपयोग करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाने का प्रयास किया था।
इस तरह की प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए काफी सारा साहित्य उपलब्ध है। अतिशय आत्मकामी प्रवृत्तियों वाले लोग, ऐसे लोग जिनकी विशालकाय छवि उनके वास्तविक व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती है, ऐसे लोग जिनकी विशाल महात्वाकांक्षा होती है और जो डींग हाकने वाले होते हैं, वे ‘पर्सनैलिटी कल्ट’ की जाल में उलझ जाते हैं! कुछ टिप्पणकारों, समाजविज्ञानियों और मनोविज्ञानियों ने ‘शान’ की इस सूची में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी रखा है!
इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दर्शन और क्रियाकलाप में वशीभूत और डराने वाला अंतर्विरोध है। वे हिटलर की प्रशंसा का रुख रखते हैं, और इनमें से कुछ तो आज भी कहते हैं कि उसने जिस तरह यहूदियों का सत्यानाश किया, भारत को उसका अनुसरण करना चाहिए और मुसलमानों के साथ वैसा ही करना चाहिए। हिटलर के प्रतिरूप वाले इस तरह के उपद्रवपूर्ण तर्क और यहूदियों के प्रति कोई सम्मान न प्रदर्शित करने के बावजूद बीजेपी और आरएसएस के नेता इजरायल और उसकी आक्रामक यहूदीवादी राजनीति के साथ निकट का संबंध रखते हैं।
आरएसएस का इजरायली इंटेलिजेस ‘मोसाद’ के साथ गहरा रिश्ता है। आरएसएस के संस्थापकों में से एक ने 1920 के दशक के आखिरी वर्षों में इटली का दौरा किया था और मुसोलिनी के साथ फासिस्ट संगठन की संरचना पर बातचीत की थी। वह तब जर्मनी और इटली में यहूदियों की भयानक दुर्दशा के बारे में जानते थे।
वैसे, अपने नियमित ‘बौद्धिक या अभ्यास वर्ग’ में 95 साल पुराना आरएसएस बताता है कि ‘कोई व्यक्ति नगण्य है, संगठन ही सर्वोपरि है।’ इनमें ‘पर्सनैलिटी कल्ट’ की निंदा की जाती है। और तब भी, आज आरएसएस और बीजेपी को नरेंद्र मोदी के कल्ट को सक्रिय तौर पर प्रोत्साहित करते देखा जा रहा है। यह जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ‘पुराने स्कूल वाले’ स्वयंसेवक इस कल्ट निर्माण पर काफी दुखी और यहां तक कि गुस्से में भी हैं। उन्हें यह भी भय है कि अगर यह कल्ट सामाजिक और राजनीतिक चरित्र के आवरण में लिपट गया तो संगठन अधिकारहीन हो जाएगा। वैसे, पिछले छह साल के दौरान यह ‘ओल्ड स्कूल’ शक्तिहीन हो गया है।
इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से संघ ने स्वयंसेवकों को शामिल करने की अपनी रणनीति में बदलाव किया। उस वक्त सर संघचालक बाला साहब देवरस ने वरिष्ठ प्रचारकों को अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के बीच फैल जाने और उनके परिवारों के बच्चों को अपने साथ जोड़ने का सुझाव दिया। ओबीसी के लोग शाखाओं में बल्कि भारतीय जनता पार्टी के साथ ज्यादा जुड़ने लगे। बीजेपी ने इसका लाभ उठाया।
संघ ने ओबीसी और यहां तक कि अनुसूचित जनजातियों और जातियों को शामिल करने की रणनीति अपनाई। सैद्धांतिक प्रभुत्व ब्राह्मणवादी ही रहा। उच्चतम स्तर पर (आप चाहें, तो इसे पोलित ब्यूरो कह लें) उच्च जाति के लोग ही दृढ़तापूर्वक बने रहे और मनुस्मृति उनका वास्तविक मत रहा।छुपा हुआ एजेंडा असावधानीवश (या विचारपूर्वक) तब सामने आया है, जब अयोध्या में भूमि पूजन का कार्यक्रम हुआ और इसमें सर संघचालक मोहन भागवत ने भविष्य के रोड मैप के तौर पर मनुस्मृति को वाक्पटुता के साथ उद्धृत किया।
पूरे संघ परिवार ने मोदी का साथ दिया, उसकी वजह गुजरात में उनकी कठोर मुस्लिम-विरोधी राजनीति थी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भले ही 2002 जनसंहार की निंदा की हो, मोदी संघ परिवार और नए मध्य वर्ग में उसके बड़ी संख्या वाले सहयात्रियों के आइकन बन गए। हिंदू प्रवासी भारतीय मुस्लिम-घृणा के एजेंडे से खास तौर पर प्रभावित थे।
वैश्वीकरण के बाद वाला नया मध्य वर्ग आधुनिक मैनेजमेंट स्कूलों के विचारों में बड़ा हुआ है। उसने ’किलर इन्स्टिक्ट’ की बात पढ़ी है। उसके लिए ’बराबरी’ वाला आदर्श पुराना पड़ चुका है और वह मानता है कि ’गैरबराबरी’ की वास्तविकता स्वीकार की जानी चाहिए। उसके लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ झूठा है, क्योंकि इसमें मसलमान शामिल हैं, इसलिए यह ‘छद्म-धर्मनिरपेक्षता’ है। इसका प्रतिकार हिंदुत्व में था। मोदी ने अति-हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व किया।
पर प्रवासी भारतीय भरम में रह सकते हैं लेकिन देश में रहने वाले लोग अब महसूस करते हैं कि न तो भगवान राम, न ‘मसीहा’ मोदी उस दुखदायी संकट से उबार सकते हैं जिसमें वे हैं। और अगर हिंदी-हिंदू राष्ट्र का विचार और आगे बढ़ाया गया, तो आजादी के आंदोलन से जन्मा देश बिखर जाएगा!
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