मृणाल पाण्डे का लेखः देश के ज्यादातर जल स्त्रोत सूखे, अब भी सरकार और लोग नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी
विशेषज्ञ बताते हैं कि 1947 से अब तक जल संरक्षण की उपेक्षा के कारण पुराने जल स्रोतों में से एक तिहाई ही बचे हैं। यही हाल रहा तो 2030 तक धरती माता और गंगा मां का वंदन, अभिनंदन, आरती, चंदन भले ही होता रहेगा पर भारत की धरती के भीतर जल 40 फीसदी तक घट चुका होगा।
ट्रेफाल्गर स्क्वायर लंदन का एक प्रसिद्ध चौराहा है, जहां 19वीं सदी के भारत में बनीं शेरों की प्रतिमाएं देखकर हर बार अपने पर्यावरणविद् (दिवंगत) मित्र अनुपम मिश्र याद आते हैं। उन्होंने अपने एक लेख में खुलासा किया था कि पहले पहल ऐसी मूर्तियां भारत के सुदूर इलाके रुड़की में गंग नहर के पुल के दोनों तरफ बिठाने के लिए तराशी गई थीं।
आज से तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले रुड़की कोई 5-7 हजार की आबादी वाला छोटा कस्बा था, जहां कोई इंजीनियरिंग कॉलेज क्या, नए विज्ञान की शिक्षा देने वाला सरकारी स्कूल तक नहीं था। पर तब भी वहां जल प्रवाह के कुदरती नियम और मिट्टी, चूने-गारे के तमाम गुणावगुण जानने वाले राज मिस्त्री मौजूद थे। उनकी मदद से बनवाया गया मानवीय हाथों से परिसीमित गंग नहर नाम का यह जल प्रवाह, अक्वाडक्ट, आज भी सिविल इंजीनियरिंग का श्रेष्ठ नमूना माना जाता है।
18वीं सदी के उत्तरार्ध तक अंग्रेज उत्तरी भारत की अर्थव्यवस्था और उसके कुदरती संसाधनों में छुपी अपार संभावनाएं समझने लगे थे। आर्थिक तरक्की की रफ्तार को तेज करने के लिए पहली जरूरत थी पानी की। लिहाजा तब नॉर्थ वेस्टर्न सूबा कहलाने वाले इलाके के अधिकारियों ने लंदन स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय को गंगा की धारा का एक अंश अपने सैन्य इंजीनियरों द्वारा मेरठ छावनी तक पहुंचाने की दरख्वास्त दी।
कंपनी के सैन्य अंग्रेज इंजीनियरों को सिविल इंजीनियरी की दृष्टि से स्थिति को समझना था। इसलिए स्थानीय पारंपरिक भारतीय राज मिस्त्रियों की मदद और सलाह से इस नहर का प्रारूप बनाया और सफलता से तामीर किया गया। इसके बाद स्थानीय लोगों की संगतराशी, स्थापत्य प्रतिभा और पर्यावरण ज्ञान को देखते हुए छोटे से कस्बे रुड़की में भारत का पहला इंजीनियरिंग कालेज खोलना तय हुआ और इस तरह जलधारा ने नवंबर 1847 में रुड़की विश्वविद्यालय का अवतरण कराया।
अंग्रेजों के लिए तो नदी के ऊपर से नहर निकालने की इस सारी जटिल मुहिम का इकलौता उद्देश्य अपनी सेना की छावनी तक जल प्राप्ति तय करवाना था। फिर यह भी दिखने लगा कि गंगा जी की धारा को हरिद्वार से एक नहर के जरिए स्थानीय नदी (सोनाली) के ऊपर से उतार कर मेरठ तक लाया जाएगा, तो शहर के लोगों से उसके पानी पर कर लेकर कई लाख पाउंड भी कमाए जा सकेंगे।
काम स्वीकृत हुआ और इस काम को करवाते हुए खुद अंग्रेज इंजीनियरों और हाकिमों ने स्थानीय वास्तुकारों के सिखाए परंपरागत नजरिए से जाना कि जलधारा अपने आप में एक जीवंत उपस्थिति है। वह हमारी ही तरह सांस लेती, दौड़ती, रुकती हुई चलती है। और यह भी, कि जल अपनी राह, अपना बहाव और अपना इलाका कभी नहीं भूलता। इंजीनियरी का काम पूरा होने के बाद इंजीनियरों को स्थानीय वास्तुकारों ने यह भी सलाह दी, कि पानी को हमेशा बहुत कीमती और पवित्र मानकर उसका संरक्षण करना जरूरी है। इसलिए एक तरफ से गंगा की पवित्र धारा को विदा करने और दूसरी तरफ उसका स्वागत करने के लिए नहर के दोनों तटों पर 16-17 फुट की शेरों की जोड़ी को बिठा कर उनकी विधिवत प्राण प्रतिष्ठा की जाए।
मान्यता थी कि शेरों की यह प्राण प्रतिष्ठित जोड़ियां इस अक्वाडक्ट का संरक्षण, अभिवादन तथा संरक्षण दोनों करेंगी। अंग्रेज इस विश्वास से सहमत थे या नहीं यह तो पता नहीं, अलबत्ता उन्होंने हामी भर दी। जब मूर्तियां बनीं तो वे इतनी सुंदर थीं कि चार धारा रक्षकों के अलावा एक शेर की प्रतिमा तो मुख्य अभियंता थॉमसन साहिब की कोठी पर लगवाई गई और कुछ अन्य वैसी ही प्रतिमाएं 17 साल बाद लंदन के चौराहे के सौन्दर्यीकरण के लिए भी बनवा कर भेजी गईं।
जीवन भर पानी के पारंपरिक संरक्षण पर जोर देते और देश भर में घूम-घूम कर तमाम स्थानीय नदी, तालाबों, झीलों और कुंओं-बावड़ियों को बचाने के लिए निरंतर संघर्षरत अनुपमजी आज नहीं रहे। लेकिन आज जब चेन्नै से बुंदेलखंड तक पानी के लिए हाहाकार मचा है, और औद्योगिक मर्मनगरी मुंबई जलभराव से डूब रही है, अनुपम जी की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाहें स्मरणीय हैं।
सबसे ऊपर उनकी यह सलाह कि जल का सही तरह से बचाव न तो सरकारी किलेबंदी से होगा, न ही मैं, मेरा मुहल्लावादी स्वांत: सुखाय दृष्टि अपनाने से। यह काम परंपरा और आधुनिकता के मेल से बहुजन हिताय नजरिए से ही संभव है। इस दई मारे स्मार्टफोन और नेट के युग में हम हिंदुस्तानियों की आर्थिक संपन्नता, तकनीकी ज्ञान और अंग्रेजी से उधार लिए शाब्दिक जुमलों के भंडार भले बढ़ गए हों, लेकिन बतौर एक समाज आज सारी दुनिया में लोग बाग अकेले, स्वार्थी और अंतर्मुखी बन गए हैं।
लिहाजा जल संकट का मसला वे दूसरों से नहीं सिर्फ अपने हित स्वार्थ या राजनीतिक चालबाजी के चश्मे से देखने लगे हैं। अभी माननीय प्रधानमंत्री ने अपने साप्ताहिक रेडियो प्रवचन में जल संरक्षण का मुद्दा उठाया। यह सामयिक तो था, लेकिन उसमें सरकारी या गैर सरकारी विकास कार्यों के तहत भीषण जल दोहन के लिए सरकारी जिम्मेदारी का स्वीकार नहीं था। जल संकट की घोर शिकार जनता को ही इसकी जिम्मेदारी देने पर अधिक बल दिया गया।
अब जब मानसून आने में देर कर रहा है और चेन्नै जैसे शहर में लोगबाग घर की बजाय बाजार जाकर खाने को मजबूर हो रहे हैं, तो जनता को जल संचय के काम में लगने को कहना आग लगने पर कुंआ खोदने को कहने सरीखा है। ठीक है ,सरकार जल संरक्षण पर कमेटियां बिठा रही है। पर कुछ समय पहले एक जाने-माने बाबाजी ने हरित ट्राइब्यूनल की चेतावनी की अनदेखी कर यमुना तट पर भारी शो कराया जिसने उस इलाके को क्षत-विक्षत कर दिया। उस पर सरकार चुप ही रही।
जब कृषि वैज्ञानिकों से कहा जा रहा है कि कम जल का इस्तेमाल करने वाले बीजों पर शोध करें, तो यह भी गौरतलब है कि आज के लगभग सभी कद्दावर नेता गन्ना, सहकारी चीनी मिलों, कृषि व्यापार मंडियों की अध्यक्षाई और बड़े निर्माणकर्ताओं के दिए चुनावी बॉन्डों के बल पर ही राजनीति में उतरे और चमके हैं। क्या वे धनकुबेर जनता से कहीं ज्यादा भूजल के दोहन के दोषी नहीं हैं?
राजनीति में बापू की सिखाई साध्य और साधन की पवित्रता तो भूल ही जाएं। नेतृत्व ही नहीं, विपक्ष ने भी जल संकट को चुनावी संघर्ष के वक्त कोई बड़ा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया। हर पांच जून को पर्यावरण दिवस आने पर ‘जल ही जीवन है, हम सबको जल बचाना है’ आशय की तख्तियां लेकर स्कूली बच्चे टीवी पर दिखाए जरूर जाते हैं, पर चौड़ी की जा रही सड़कों, भवनों के निर्माण पर, पंपों से सींचे जा रहे खेतों में, भू-जल का गैरजरूरी दोहन भी जारी रहता है।
चुनावी हंगामे के बीच हमने हजारों गैलन जल से काशी की सड़कों की धुलाई होती देखी। उधर वरुणा और अस्सी नदियां और उनके सदियों पुराने कुंड सूखे पड़े हैं। वाराणसी में बचा खुचा गंगाजल आज औद्योगिक रसायनों और जल मल व्ययन से इतना प्रदूषित हो गया है कि डॉक्टर उससे कुल्ला आचमन न करने की सलाह दे रहे हैं। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि 1947 से अब तक जल संरक्षण की उपेक्षा और पंपों की मार्फत भूगर्भ की जल संपदा के बेतहाशा दोहन की वजह से पुराने जल स्रोतों में से कुल एक तिहाई ही बच रहे हैं। यही हाल रहे तो 2030 तक धरती माता और गंगा माता का वंदन, अभिनंदन, आरती, चंदन भले ही होता रहेगा पर भारत की धरती के भीतर जल 40 फीसदी तक घट चुका होगा।
एक दूसरा रोग है सरकारों द्वारा किसानों को मुफ्त बिजली और पंपों को देने का। इससे किसान कम जल से पारंपरिक मोटे अन्नों की बजाय खूब सिंचाई मांगने वाली गन्ना या बासमती जैसी कैश दिलाने वाली फसलों की तरफ खिंचे हैं। बेतहाशा बोरवेलों का प्रयोग होने से देश में 4500 नदियां, 20 लाख झीलें, कुएं और तालाब सूख चुके हैं।
कई जगह तो सूखे तालाबों को पाटकर उनपर विशाल इमारतें बना दी गई हैं। नैनीताल के पास खुर्पाताल इलाके में प्रकृति रचित छोटे जलाशय सदियों से भूमि के भीतर छिपे जल को पूरते हुए आसपास की बड़ी झीलों की सतह को भी कायम रखते थे। पिछली गर्मियों में नैनी झील का सूखना और बाद को मानसून काल में जलबहाव न होने से बारिश के पानी से शहर में भूस्खलन और सड़कों का धंसना सीधे संचयन स्रोतों के खात्मे और बेतहाशा पर्यटन उद्योग पनपाई से जुड़ा है।
लोग प्रतिरोध करते तो हैं, पर ईमान से कहें आज जल, जंगल, जमीन किस पर जनता का हक रह गया है? पंचायत से लेकर राज्यों की राजधानियों तक फैसले लेने में राजनेता ही हावी रहते हैं। अभी तेलंगाना में बंजर भूमि में सामाजिक वानिकी की तहत पेड़ लगवाने के काम को गई एक महिला वन अधिकारी को उस जमीन पर कब्जा किए हुए स्थानीय विधायक के गुर्गों ने बुरी तरह पीट कर हस्पताल भेज दिया।
जाति, धर्म और लिंगगत भेदभाव से बांट दिए गए देश में पानी बचाने को समवेत जनभागीदारी होगी तो कैसे? निरंतर विपक्ष को या जनता की नासमझी को दोषी ठहराना बहुत हो गया। अब हमको शिखर नेतृत्व से प्रकृति और मानव जाति दोनों के प्रति परंपरागत समभाव, ममत्व और समझदारी की ध्वनियां भी सुनाई देनी चाहिए।
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