'भले ही लाशों के टीले दर टीले बनते जाएं, पर लॉकडाउन नहीं लगाऊंगा'
कोरोना वायरस की ऐसी बाढ़ अगर दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में आती तो निश्चित तौर पर वहां के स्वास्थ्य मंत्री पर नरसंहार का मुकदमा दर्ज हो जाता, पर अपने देश में तो वे शान से कोरोनिल का प्रचार करते हैं, हवन की सलाह देते हैं और काढा भी प्रचारित करते हैं।
भले ही हजारों लाशों के टीले बन जाएं, पर लॉकडाउन नहीं लगाऊंगा– यह हमारे प्रधानमंत्री जी के विचार तो हैं, पर यह कथन उनके घनिष्ट मित्र ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का है, और आजकल यूनाइटेड किंगडम में इस वक्तव्य पर खूब चर्चा की जा रही है। हमारे प्रधानमंत्री जी को भी पिछले साल मार्च में कोरोना से लड़ने का पहला हथियार लॉकडाउन समझ में आया था और अब जबकि कोरोना से अनगिनत लाशें बिछ रही हैं, तब लॉकडाउन कोई विकल्प ही नहीं नजर आ रहा है।
बोरिस जॉनसन ने यह वक्तव्य नवंबर 2020 में मंत्रियों की बैठक में चार सप्ताह के दूसरे लॉकडाउन की घोषणा के समय, तीसरे लॉकडाउन से संबंधित प्रश्न के जवाब में दिया था। इसका खुलासा लम्बे समय तक उनके प्रमुख सलाहकार रहे डोमिनिक कम्मिंस ने किया है, और उनके अनुसार सबूत के तौर पर उस समय की ऑडियो रिकॉर्डिंग मौजूद है। हालांकि प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के बाद भी वहां तीसरे चरण का लॉकडाउन जनवरी में लगाया गया था।
आश्चर्य यह है कि ब्रिटेन में यह मुद्दा ऐसे समय तूल पकड़ रहा है, जिस समय वहां दुनिया में सबसे तेज टीकाकरण का कार्यक्रम चल रहा है। वहां की 65 प्रतिशत से अधिक टीके के योग्य आबादी को टीका लगाया जा चुका है। हालांकि सबसे पहले डेली मेल द्वारा इस वक्तव्य को उजागर करने के बाद से प्रधानमंत्री और दूसरे वरिष्ठ मंत्री लगातार इससे इनकार करते रहे हैं, पर अब बोरिस जॉनसन के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ने लगी है।
मजेदार बात यह भी है कि कुछ मंत्री जो उस मीटिंग में उपस्थित नहीं थे, उन्होंने भी इस आरोप का खंडन किया है। ऐसे मंत्रियों से अब जनता पूछ रही है कि अनुपस्थित रहते हुए भी दावे का खंडन इस दावे की पुष्टि ही करता है। वहां यह भी मांग की जा रही है कि कोविड-19 से निपटने में तथाकथित सरकारी लापरवाही की उच्च स्तरीय जांच कराई जाए। कोरोना वायरस से यूनाइटेड किंगडम में लगभग 130000 मौतें हो चुकी हैं।
पिछले वर्ष ट्रम्प के जाने तक भारत, अमेरिका, ब्राजील और ब्रिटेन में घोर दक्षिणपंथी और छद्म राष्ट्रवादी सरकार एक साथ ही थी, और इन चारों देशों की सरकारों के मुखिया बहुत गहरे मित्र भी हैं। इन चारों की नीतियां भी एक जैसी है। यह महज संयोग नहीं था कि कोविड-19 का कोहराम भी सबसे अधिक इन देशों में ही देखा जा रहा है। घोर दक्षिणपंथी और छद्म राष्ट्रवादी सरकारें किस तरीके से काम करती हैं, इसे इन चारों नेताओं की नीतियों से आसानी से समझा जा सकता है।
इन चारों देशों में सरकारों को लाखों मौतों से कोई फर्क नहीं पड़ता है, बल्कि इस मौत के तांडव के बीच भी उन्हें चुनावों और अपनी ताकत बढाने का ही ध्यान रहता है। इन सबके बीच भारत की स्थिति थोड़ी सी अलग है- अमेरिका, ब्राज़ील और ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस से सम्बंधित अधिकतर फैसले लिए, जबकि हमारे देश में हमारे प्रधानमंत्री ने सभी फैसले बिना किसी से सलाह लिए ही किये।
यह एक जीवंत लोकतंत्र की पहचान है कि एक पुराने वक्तव्य पर भी प्रधानमंत्री से इस्तीफ़ा मांगा जा रहा है, दूसरी तरफ हमारे प्रधानमंत्री आज भी गर्व से मन की बात सुना रहे हैं, और कोरोना से होने वाली मौतों को भी विपक्ष पर थोप रहे हैं। हमारे देश की सरकार से अधिक परेशानी और संवेदनशीलता तो इस समय दुनिया दिखा रही है। देश में अब जो मौतें हो रही हैं, वह महामारी के कारण नहीं बल्कि एक बेपरवाह सरकारी तंत्र के चलते हो रही हैं। प्रश्न पूछने वाले या फिर हकीकत का बयान करने वाले देशद्रोही और अपराधी करार दिए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में जिन अस्पतालों ने खुलेआम कहा कि ऑक्सीजन की कमी है, उनपर अब सरकार कार्यवाही कर रही है।
हमारे देश की सत्तालोभी सरकार के पश्चिम बंगाल को लूटने की साजिश ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया है। यह अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का एक जीवंत नमूना है। अब तक ईरान, इराक और रूस जैसे देश के बारे में कहा जाता था कि ये देश जैविक हथियारों का प्रयोग करते हैं, पर हमारी सरकार ने तो कोविड-19 को ही जैविक हथियार बना लिया है, और इस हथियार से अपने ही नागरिकों को मार रही है। पूरे देश में कोरोना की पोजिटिविटी रेट 20 प्रतिशत से कम है, पर अनेक विशेषज्ञों के अनुसार कोलकाता में यह दर 50 प्रतिशत से भी अधिक है।
दुनिया के सामने अब मोदी जी के सपनों का भारत है। इसी सपनों के भारत के लिए मोदी सरकार पिछले 6 वर्षों से अधिक समय से काम कर रही थी, जहां लाशों के ढेर पर बैठे प्रधानमंत्री जिन्दा और मुर्दा लाशों को मन की बात सुना रहे हों। प्रधानमंत्री जी ने नोटबंदी से नरसंहार का सिलसिला शुरू किया था, जो अब कोरोना के दौर में पूरे शबाब पर नजर आने लगा है। प्रधानमंत्री जी के सपनों का भारत बनाने में मीडिया, न्यायपालिका, सभी जांच एजेंसियां और यहां तक की चुनाव आयोग ने भी अपनी पूरी ताकत झोंकी है।
इस दौर में जब पूरे देश की जनता अस्पतालों में बेड की कमी और ऑक्सीजन की कमी से और श्मशान घाट और कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार की जगह से जूझ रही है, तब देश के प्रधानमंत्री गर्व से पंचायत पुरस्कारों और पश्चिम बंगाल चुनावों के द्वारा कोरोना के मामलों को नियंत्रित कर रहे हैं। मार्च 2021 के शुरू में ही प्रधानमंत्री जी ने बड़े गर्व के साथ इतराते हुए कोरोना के लगभग खात्मे का दावा किया था, और अब डेढ़ महीने बाद विदेशी मीडिया भारत की तुलना नरक से करने लगा है।
लेकिन भांड मीडिया और कंगना जैसे लोग इसे ही मोदी सरकार की महान उपलब्धि बता रहे हैं। जाहिर है, प्रधानमंत्री जी का यही न्यू इंडिया है, जिसके लिए वे हरेक दिन 18 से 20 घंटे तक काम करते रहे और कभी छुट्टियां भी नहीं लीं। कुछ वर्ष पहले तक न्यायपालिका से कुछ उम्मीद रहती थी, पर अब न्यायपालिका कानून मंत्रालय से अधिक कुछ नहीं है, और मंत्रालय वही बोलता है जो आका चाहते हैं।
अब तो लगता है की अपने देश के मंत्री और अफसरशाह मनुष्य की श्रेणी से परे हैं, क्योंकि मनुष्य जैव-विज्ञान के अनुसार रीढ़धारी जानवर होता है, पर मंत्री और अफसरशाह तो रीढ़विहीन हैं। दरअसल वे कठपुतली हैं जो धागे के सहारे अपने आका के इशारों पर नाचते हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका, इटली और भी अनेक देशों में जब स्वास्थ्य मंत्रियों को लगा कि सरकार कोरोना को रोकने या नियंत्रित करने के लिए जरूरी कदम नहीं उठा रही है, उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और सरकार से अलग हो गए। दरअसल त्यागपत्र देने का साहस आपकी दक्षता और योग्यता से आता है, जिन्होंने त्यागपत्र दिया उन्होंने दूसरे तरीकों से कोरोना से लड़ाई लड़ी।
दूसरी तरफ, अपने देश में सभी मंत्रियों और नौकरशाहों को पता है कि वे सभी नकारा हैं, किसी नौकरी योग्य नहीं हैं– इसीलिए जनता को मरता छोड़कर भी अपनी कुर्सी बचा रहे हैं। कोविड-19 की ऐसी बाढ़ दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में आती तो निश्चित तौर पर स्वास्थ्य मंत्री पर नरसंहार का मुकदमा दर्ज हो जाता, पर अपने देश में तो वे शान से कोरोनिल का प्रचार करते हैं, हवन की सलाह देते हैं और काढा भी प्रचारित करते हैं|
विश्वगुरु बनने की चाह और छद्म राष्ट्रवाद की राह ने देश को यहां तक पहुंचा दिया है। इसमें मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी है। दरअसल तमाम समाचार चैनलों पर उछलते-कूदते, चिल्लाते और अफवाह फैलाते जो न्यूज़ एंकर दिखते हैं, उन्हें भी मालूम है की उन्हें पत्रकारिता या कोई भी दूसरा काम नहीं आता है, इसलिए अपनी कुर्सियों से चिपके हैं और वही कर रहे हैं जिसके लिए उनके मालिक इशारा करते हैं। हाल में ही टाइम्स नाउ के भूतपूर्व और वर्त्तमान कर्मचारियों ने अपने प्रबंधन को एक खुला पत्र भेजा है, जिसमें कहा गया है कि यहां जो हो रहा है वह पत्रकारिता के मौलिक सिंद्धांतों के विपरीत है। कोई लोकतंत्र और कितना मर सकता है, यह देखना और भुगतना अभी बाकी है।
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