नई सरकार आएगी तो कैसे दिलाएगी देश पर हावी कुशासन, क्रूरता और धार्मिक कट्टरता से आजादी!
एक नई, गैर-बीजेपी सरकार का इंतजार है। लेकिन बीते वर्षों में देश पर हावी हुए कुशासन, क्रूरता और धार्मिक कट्टरता के जहर को निगलने के लिए नई व्यवस्था (सरकार) को कुछ ज्यादा ही मजबूत होना होगा।
2024 में होने वाले आम चुनाव का माहौल बनने लगा है। मतदान पूर्व सर्वेक्षणों की बाढ़ आ गई है और वे लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। विपक्षी दलों ने INDIA नाम से अपना गठबंधन बना लिया है। बीजेपी का 38 दलों (ईडी, सीबीआई और आईटी विभागों को छोड़कर) का गठबंधन विचारधारा कम और एफआईआर आधारित ज्यादा दिख रहा है। राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा-2 के लिए कमर कस रहे हैं। उधर, नरेंद्र मोदी ने पहले ही खुद को 2024 का विजेता घोषित कर रखा है और सुप्रीम कोर्ट ने संदिग्ध मिश्रा को 45 और दिन के लिए ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) का प्रमुख बने रहने की इजाजत देकर उनका काम आसान ही कर दिया है।
हमारी राजनीतिक दुनिया का स्वदेशी स्टॉक एक्सचेंज, “सत्ता” बाजार ने अभी विजेता पर दांव लगाना शुरू नहीं किया है, लेकिन अगर विपक्षी गठबंधन सरकार बना ले तो भी देश तो एक मुश्किल दौर में है ही। आइए, इस पर गौर करते हैं कि अगर यह सच हो जाए, तो क्या होगा।
हर सरकार अपने पीछे वैसे आधे-अधूरे काम का बोझ छोड़ जाती है जिसकी कटाई-छंटाई कर आगे बढ़ाने का काम अगली सरकार पर आ जाता है। लेकिन एनडीए जो छोड़कर जाने वाला है, वह तो जैसे मलबे का एक पहाड़ होगा- ध्वस्त घरों, मस्जिदों, कानूनों, बुनियादी अधिकारों के अलावा बेरोजगार युवाओं की फौज, बदहाल जंगल।
इस मलबे की सफाई हरक्यूलिस के ‘सात कामों’ या चीनियों को गलवान झड़प से पूर्व की स्थिति में लौटने को कहने से कम मुश्किल नहीं होगा। हालांकि, संभावना है कि नई सरकार हमारे लोकतंत्र को अस्थिर बनाने में योगदान करने वाले एनडीए के कुछ विनाशकारी फैसलों को पलटना चाहे। इस दुविधा को दो घटनाओं के संदर्भ में समझाता हूं।
पहला, पिछले दस वर्षों में एनडीए ने संघीय व्यवस्था को बेहद कमजोर कर दिया है। इसने ईडी, सीबीआई, एनआईए और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों जैसी केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल, राज्यपालों के दुरुपयोग, भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त आयोगों जैसे संस्थानों के जरिये इसे अंजाम दिया है। अखिल भारतीय सेवाओं को अपने नियंत्रण में रखने के लिए नियम-शर्तें को बदल दिया है, न्यायपालिका की बांहें मरोड़ी जा रही हैं।
दूसरा, संवैधानिक एवं स्वायत्त संस्थाएं- चुनाव आयोग; मानवाधिकार, महिला, अनुसूचित जाति और जनजाति कल्याण से जुड़े विभिन्न आयोग; नियामक प्राधिकरण; विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा संबंधी परिषदें; यूपीएससी, बैंक - सभी जगहों पर खास विचारधारा के लोगों को बैठा दिया गया है ताकि सत्ता पर दबदबा बना रहे।
यह दोहरी रणनीति किसी भी सत्ताधारी सरकार के लिए अपनी विचारधारा और नीतियों को पूरे देश पर थोपना आसान बना देती है। एनडीए ने इस टेम्पलेट को विकसित करने में सभी गंदे काम किए हैं- क्या नई सरकार इस ताकत को त्यागने का लोभ छोड़ सकेगी? क्या उसे बीजेपी को दूर रखने के लिए इन नीतियों को बरकरार रखने का प्रलोभन नहीं होगा?
वैसे तो नई सरकार के लिए मौजूदा शासन के कुछ बेहद नुकसानदेह फैसलों को वापस लेना भी आसान नहीं होगा। प्रशासन के तीन स्तंभों को लें: सिविल सेवा, पुलिस और न्यायपालिका। इन तीनों को इस कदर विकृत कर दिया गया है कि वे सत्ताधारी दल के आदेशों के आगे झुकते हैं।
केंद्र और राज्य- खास तौर पर हिन्दी पट्टी- की सिविल सेवाओं के लोगों पर हिन्दू राष्ट्र, विश्वगुरु महाशक्ति, धन-कुबेरों द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था, अल्पसंख्यकों को उनकी ‘हद’ में रखने की बहुसंख्यवादी भावनाओं का खुमार चढ़ चुका है। ‘प्रगति’ के लिए मानवाधिकारों को ताक पर रखने को जरूरी मानने वाली सोच हावी हो गई है। अमिताभ कांत की ‘टू मच डेमोक्रेसी’ वाली उक्ति तो याद ही होगी? विभिन्न आईएएस समूहों का सदस्य होने के नाते, मैं इसे आकार लेते देख सकता हूं। याद रखें, ये ‘अमृतकाल’ के नौकरशाह हैं, पटेल के भारत के नहीं। क्या उन्हें नई हुकूमत अपने हिसाब से ढाल सकेगी?
मौजूदा शासन में पुलिस उपनिवेशवाद के ताकतवर अवशेष के रूप में हमारे बीच है: चाहे बात जेएनयू, एएमयू, कठुआ, हाथरस, भीमा कोरेगांव और मणिपुर की हो या फिर किन्हीं और जगहों की। सरकार ने इसकी पीठ पर हाथ रखकर उसे कानूनों, अधिकारों और यहां तक कि अदालतों के आदेशों को हाशिये पर डालने के लिए उकसाया है। क्या अब उसपर लगाम लगाना संभव है?
न्यायपालिका कमोबेश ऐसी स्थिति में पहुंच गई है जब वह कोड़े फटकारती तो है लेकिन इससे मारती नहीं। अनुच्छेद 370, पूजा स्थल अधिनियम, इलेक्टोरल बॉन्ड, ईवीएम, यूएपीए हिरासत, बंदी प्रत्यक्षीकरण, मणिपुर, ईडी निदेशक की सेवा का विस्तार, धन विधेयक का दुरुपयोग…ऐसे तमाम मामले हैं जिसमें ठोस कार्रवाई न होने से सरकार को मदद मिली, आम लोगों को नहीं।
अगर यह डरा-धमकाकर दबाव डाले जाने का नतीजा है तो शायद नई सरकार इस सड़ांध को दूर कर सकती है; लेकिन अगर यह छिपी हुई सहानुभूति हुई जो सिविल सेवाओं ने जातीय-बहुसंख्यकवादी विचारधारा के लिए अपना ली है तो किसी भी नई सरकार के लिए करने को कुछ नहीं होगा।
हालांकि नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि पिछले नौ वर्षों में भारतीय समाज जैसा बेपरवाह राक्षस बन गया है, उस पर लगाम कैसे करे? हम एक ऐसी सरकार के संरक्षण में क्रूर सभ्यता बनकर रह गए हैं जिसमें दया नाम की कोई चीज नहीं, चाहे बलात्कार, हत्या या सांप्रदायिक लिंचिंग की शिकार महिला का मामला हो; एक उद्योगपति को कुछ और अरब कमाने में सक्षम बनाने के लिए आदिवासियों को उनके जंगलों से बेदखल करने का मामला हो; एक लड़की को इस वजह से तालीम देने से इनकार कर देने का मामला हो क्योंकि वह हिजाब पहनना चाहती थी; भूमिहीन मजदूरों को पीडीएस या मनरेगा के फायदा नहीं देने का मामला हो क्योंकि उनके पास आधार कार्ड नहीं था; तमाम परिवारों को उस ‘अतिक्रमण’ की गई जमीन से बेदखल करने का मामला हो जहां वे वे दशकों से रह रहे थे; छोटे-छोटे अपराधियों के घरों को बिना किसी कानूनी आदेश के बुलडोजर से ढहा देने का मामला हो…,
ऐसे लोगों की सूची अंतहीन है। यह अपने बदशक्ल चेहरे के साथ हमारे सामने आ खड़ा हुआ जब हमने कोविड के दौरान अपने शहरों से प्रवासियों को निकाल बाहर किया, मणिपुर में आदिवासी महिलाओं के बलात्कार और हत्या पर वैसा ही आक्रोश दिखाने में विफल रहे जैसा कि हमने निर्भया प्रकरण के दौरान दिखाया था।
पिछले नौ वर्षों के दौरान आई इस सभ्यतागत गिरावट को नई सरकार को पलटना होगा क्योंकि जिस समाज में गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों के लिए करुणा का अभाव है, वह लोकतांत्रिक मूल्यों और समतावादी भावना के विकास के लिए उपजाऊ जमीन नहीं है। हालांकि ऐसा कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल क्योंकि इसके लिए नैतिक नेतृत्व के एक ऊंचे प्रतिमान की जरूरत होती है जिसका देश में बेहद अभाव है।
नए शासन को अत्यधिक असमानता और द्वेष से लड़ना होगा। ऐसे कानूनों को बदलना होगा जिन्होंने हमारे अधिकारों और प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट किया है, गोपनीयता का उल्लंघन किया है, यूएपीए और वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन किया है, डेटा संरक्षण विधेयक, दिल्ली अध्यादेश, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, सीएए और एनआरसी… ऐसे कानूनों की लंबी सूची है।
हजारों असंतुष्टों को जेलों से रिहा करना होगा, सशस्त्र बलों को जिस तरह वैचारिक स्तर पर बंधक बना लिया गया है, उससे उसे आजादी दिलानी होगी।
समाचारों से दुर्गंध फैलाने वाले मीडिया को पुनर्जीवित करते हुए उसे भय, पक्षपात से आजाद होकर काम करने दिया जाएगा। उनके कुछ नफरत फैलाने वाले एंकरों के खिलाफ सांप्रदायिक दुश्मनी भड़काने के लिए मुकदमा चलाना होगा।
इनके अलावा वित्तीय लेन-देन; कौड़ियों के भाव पर पीएसयू के विनिवेश; हवाई अड्डों, बंदरगाहों के ठेकों; झुग्गी-झोपड़ियों में सुधार; राजमार्गों, रक्षा खरीद, खदानों, बिजली परियोजनाओं से जुड़ी निविदाओँ की भी जांच-पड़ताल करनी होगी। एक नई, गैर-बीजेपी सरकार का इंतजार है। कुशासन, क्रूरता और धार्मिक कट्टरता के इस जहर को निगलने के लिए नई व्यवस्था का हाजमा कुछ ज्यादा ही मजबूत होना होगा।
शायद मैं तार जोड़ते-जोड़ते बहुत आगे निकल गया क्योंकि सवाल वही है: क्या यह सब कभी पूरा होगा? मुझे नहीं पता, जैसा कि कवि ने कहा है:
“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत, लेकिन
दिल के खुश रखने को, गालिब ये ख्याल अच्छा है!”
(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं। यह http://avayshukla.blogspot.com के लेख का संपादित रूप है। )
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