आकार पटेल का लेख: आमदनी दोगुनी करने के पीएम मोदी के जुमले पर आखिर क्यों विश्वास नहीं कर सकते किसान!
प्रधानमंत्री चाहते हैं कि किसान इस बात पर भरोसा कर लें कि भले ही उनकी सरकार किसानों के लिए बाजार बढ़ाने में नाकाम रही है, लेकिन उनके पसंदीदा कार्पोरेट ऐसा कर दिखाएंगे। वैसे हकीकत यह है कि उनकी योजनाओं और उन्हें अमल में लाने का उनका रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं है।
प्रधानमंत्री कहते हैं कि वह किसानों की आमदनी दोगुनी करना चाहते हैं, लेकिन उनकी सरकार ऐसा करे, ऐसा वे नहीं चाहते। उनका मानना है कि कार्पोरेट को फायदा पहुंचाने वाले उनके द्वारा बनाए गए कृषि कानून से किसानों के लिए बाजार बढ़ेगा, लेकिन ऐसा कैसे होगा, वे यह विस्तार से बताना नहीं चाहते।
कार्पोरेट के कृषि क्षेत्र में आने से ऐसा तो होगा नहीं कि देश के लोग जितना खाना अभी खाते हैं उससे ज्यादा खाने लगेंगे। भारत में वैसे भी अनाज और दूध का जरूरत से ज्यादा उत्पादन होता है। लेकिन समस्या यह है कि हम जितना जरूरी है उतना भी खर्च नहीं करते क्योंकि ज्यादातर भारतीय गरीब हैं और दो जून की रोटी तक नहीं जुटा सकते। ऐसे में यह केंद्र सरकार की जिगम्मेदारी है कि लोगो को पर्याप्त भोजन मिल सके। लेकिन पीएम मोदी ने तो गरीबों को दी जाने वाली खाद्य सब्सिडी को ही घटा दिया है।
2020 के बजट में मोदी सरकार ने खाद्य सब्सिडी के रूप में दिए जाने वाले 1.8 करोड़ को घटाकर 1.15 लाख करोड़ कर दिया था। ऐसे में अगर देश के आधे गरीबों में भी यह पैसा बांटा जाए तो हर किसी के हिस्से में मात्र 150 रुपए महीना ही आएगा। तो फिर किसानों की आमदनी दोगुनी कैसे होगी अगर सरकार गरीबों का पेट भरने के लिए अनाज ही नहीं खरीदेगी? बाकी स्थानीय बाजारों का क्या।
देश में पैदा कृषि उपज और दूग्ध उत्पादों में से कितना निर्यात किया जाएगा इसकी जिम्मेदारी कार्पोरेट की तो है नहीं, वह तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह दूसरे देशों को इस बात के लिए तैयार करे कि वे हमारे किसानों के लिए अपने बाजार खोलें। लेकिन हकीकत तो यह है कि मोदी शासन में देश के कृषि निर्यात में गिरावट आई है।
सभी देश अपने यहां के कृषक समाज का ध्यान रखते हैं और इसीलिए कृषि निर्यात को लेकर काफी कड़ा मोलभाव होता है, लेकिन फिर एक रास्ता है। वियतनाम ने इसका तरीका सामने रखा है। वियतनाम ने लगातार अपने वैल्यू एडेड गुड्स के निर्यात में बढ़ोत्तरी दर्ज की है। लेकिन मोदी से नेतृत्व में भारत वह भी नहीं कर पा रहा है जो वह पहले करता रहा है।
देश का कृषि निर्यात 2013 में 43 अरब डॉलर का था जो मोदी शासन में गिरकर पिछले साल 38 अरब डॉलर पर पहुंच चुका है। इसके विपरीत 2013-14 में देश का कृषि आयात 15 अरब डॉलर से बढ़कर 2016-17 में 25 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। पूरी दुनिया में कृषि उत्पादों का व्यापार करीब 2000 अरब डॉलर का है, लेकिन भारत के आंकड़े देखें तो इसमें भारत की हिस्सेदारी गौण है। गौर करें तो इसमें एक मौका नजर आता है।
लेकिन मोदी शासनकाल में बीते करीब 7 वर्षों में भारत अपने कृषि उत्पादों के लिए एक अच्छा अंतरराष्ट्रीय बाजार तैयार करने में नाकाम रहा है। हमारा किसी देश के साथ ऐसा फ्री ट्रेड समझौता नहीं है जिससे कि किसान अपनी उपज को बाहर बेच सकें, वैसे भी कोरिया और जापान इस बाजार को विस्तारित होने में कोई मदद नहीं करने वाले।
मोदी वैसे भी योजना को अमल में लाने में फिसड्डी ही रहे हैं। कानून और नीतियों को लेकर सोच-विचार करने में भी उनका रिकॉर्ड कोई अच्छा नहीं है। उनके द्वारा लगाए गए लॉकडाउन से अफरा-तफरी तो मची और लोगों पर दिक्कतों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन कोरोना संक्रमण फैलने से तो नहीं रुका। उनके जीएसटी ने हजारों कंपनियों को खत्म कर दिया और सरकार को टैक्स से होने वाली रकम में इस हद तक कमी हो गई कि राज्य सरकारों के बकाए का भुगतान तक नहीं हो पा रहा। उनके द्वारा की गई नोटबंदी से न तो आंतकवाद रुका और न ही कालाधन और भ्रष्टाचार को खत्म हो सका, अलबत्ता अर्थयव्यवस्था को ऐसा जख्म जरूर लगा कि देश के लोग 2013 के मुकाबले 2018 में पहले के मुकाबले कम खर्च कर रहे थे और कम खा-पी रहे थे। और ये सब कुछ मोदी की सरकार के आंकड़ों से पता चलता है।
यह सारे रिकॉर्ड एक शानदार नेता के हैं। और अब वे चाहते हैं कि किसान उनकी बुद्धि पर भरोसा कर अपनी रोजी-रोटी का बलिदान दे दें। अपने औने-पौने आडिया के जरिए लाखों लोगों की जिंदगी मुश्किल में डालने के लिए उन्होंने आज तक देश से माफी तक नहीं मांगी है। ऐसे में आखिर किस आधार पर मोदी सोचते हैं कि किसान उनकी बातों पर या उनकी बुद्धि पर भरोसा कर लेंगे और उन्हें लगेगा कि खेती को लेकर मोदी का ज्ञान किसानों से ज्यादा है? किसानों को पता है कि उनकी उपज के लिए न तो कोई स्थानीय मार्केट है और न ही कोई विदेशी क्योंकि वे तो पीढ़ियों से खऱेती कर रहे हैं और अनाज पैदा कर रहे हैं। किसानों और देश के गरीब लोगों के लिए सबसे जरूरी और अहम तो यही है कि सरकार सभी फसलों के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे। जितनी भी जरूरत से ज्यादा उपज है उसे सरकार खरीदे। (ध्यान रहे कि 80 फीसदी किसान अपनी उपज बेचते ही नहीं क्योंकि उनके पास महज इतनी ही जमीन है जिसमें वे सिर्फ अपने भरणपोषण के लिए ही अनाज पैदा कर पाते हैं) और इसे गरीब लोगों में बांटे। अगर मोदी में इतनी योग्यता है (हालांकि इसमें मुझे शक है) तो वे कार्पोरेट इंडिया को फूड प्रोसेसिंग में निवेश के लिए तैयार करें ताकि इसे निर्यात किया जा सके। और यह सब मंडियों और एमएसपी को खत्म करने से पहले करना होगा, क्योंकि किसानों का भय यही है कि सरकार मंडिया और एमएसपी खत्म करने पर तुली है।
यह कहना मुश्किल है कि मोदी सरकार के कानून बिना वापस लिए या उनमें पर्याप्त संशोधन किए कैसे यह सब कर पाएंगे। मोदी के पास अपने बचाव में कुछ कहने को है नहीं सिवाय इसके कि किसानों को गुमराह किया जा रहा है। लेकिन किसानों की मांगों और विभिन्न मीडिया में उनके बयान देख-सुनकर साफ हो जाता है कि किसान गुमराह तो बिल्कुल नहीं हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें पता है कि वे क्या कर रहे हैं और क्या चाहते हैं। उन्हें यह भी पता है कि अगर वे सड़क पर नहीं उतरे तो उन्हें क्या झेलना पड़ेगा। ऐसे में किसानों का आंदोलन हाल फिलहाल या जल्दी ही खत्म हो जाएगा, ऐसा लगता नहीं है।
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