संविधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री बना एक व्यक्ति कैसे संविधान की बुनियादी सोच को खारिज कर सकता है?
संविधान की उद्देशिका में दर्ज एक महत्वपूर्ण शब्द ‘सेक्युलर’ को ‘सबसे बड़ा झूठ’ बताने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का अपने पद पर बने रहना नैतिक और संवैधानिक रूप से तर्कसंगत है?
‘सेक्युलर’ शब्द और सोच से उनकी चिढ़ स्वाभाविक है। यह चिढ़ वह अपने मूल संगठन या किसी एनजीओ के प्रतिनिधि के तौर पर जाहिर करते तो ज्यादा अचरज और आपत्ति जताने वाली बात नहीं होती, पर आज वह भारत के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री हैं। इस पद पर रहते हुए संविधान की उद्देशिका (Preamble) में दर्ज सेक्युलर शब्द और सोच को सबसे बड़ा झूठ बताना न केवल आपत्तिजनक, बल्कि पूरी तरह असंवैधानिक और अनैतिक है। आखिर, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी संविधान के तहत शपथ लेकर मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए हैं। ऐसे में संविधान की उद्देशिका में दर्ज एक महत्वपूर्ण शब्द और सोच को ‘सबसे बड़ा झूठ’ बताने के बाद उनका पद पर बने रहना क्या नैतिक और संवैधानिक रूप से तर्कसंगत है?
योगी आदित्यनाथ ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित एक समारोह के दौरान इस आशय की टिप्पणी करके सबको हैरत में डाल दिया। मुख्यमंत्री बनने से पहले वह बहुत कुछ ऐसा किया करते थे या कहा करते थे, जो किसी राजनीतिक व्यक्ति या शालीन नागरिक के लिये स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। उनकी हिन्दू युवा वाहिनी गोरखपुर और आसपास के इलाकों में सामाजिक और सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के लिये कुख्यात रही है। पर योगी अब किसी हिन्दू सभा या किसी हिन्दू युवा वाहिनी के नेता भर नहीं हैं, वह एक संवैधानिक पद पर आसीन महत्वपूर्ण और जिम्मेदार व्यक्ति हैं। क्या उन्हें भारत के संविधान में विश्वास नहीं है? यह दलील देकर वह छूट नहीं सकते कि संविधान में तो उन्हें विश्वास है पर उसके ‘उद्देशिका’ में नहीं है! अगर उद्देशिका में विश्वास नहीं है तो उन्होंने ऐसे संविधान के तहत उत्तर प्रदेश का शासन संभालने की शपथ ही क्यों ली?
सेक्युलर शब्द संविधान के उद्देशिका में जब नहीं जुड़ा हुआ था, तब भी हमारा राष्ट्र-राज्य सेक्युलर ही था। संविधान-निर्माण के दौरान संविधान सभा की बहसों में सेक्युलर शब्द अनगिनत बार उपयोग हुआ और संविधान सभा के सभी सदस्यों की उसे लेकर व्यापक सहमति थी। संविधान-निर्माण प्रक्रिया के दौरान उसे एक सर्व-स्वीकार्य विचार या धारणा के रूप में लिया गया। शायद इसीलिए संविधान-निर्माताओं को उस वक्त उद्देशिका में इसे शामिल करने की जरूरत नहीं महसूस हुई।
संविधान की उद्देशिका में शामिल सेक्युलर शब्द को लेकर पहले भी विवाद उठते रहे हैं क्योंकि यह 42वें संविधान संशोधन के जरिये श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में जोड़ा गया था। लेकिन सेक्युलर शब्द संविधान के उद्देशिका में जब नहीं जुड़ा हुआ था, तब भी हमारा राष्ट्र-राज्य सेक्युलर ही था। संविधान-निर्माण के दौरान संविधान सभा की बहसों में सेक्युलर शब्द अनगिनत बार उपयोग हुआ और संविधान सभा के सभी सदस्यों की उसे लेकर व्यापक सहमति थी। संविधान-निर्माण प्रक्रिया के दौरान उसे एक सर्व-स्वीकार्य विचार या धारणा के रूप में लिया गया। शायद इसीलिए संविधान-निर्माताओं को उस वक्त उद्देशिका में इसे शामिल करने की जरूरत नहीं महसूस हुई। पर बाद में इंदिरा गांधी की सरकार ने इमरजेंसी के दौर में 42 वें संविधान संशोधन के जरिये इसे उद्देशिका में शामिल कराया।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उस समारोह के दौरान दूसरी बात जो कही, वह भी भारत और उसकी जनता के सार्वभौम हितों के विरूद्ध जाती है। उन्होंने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के नाम को घृणित बताने की कोशिश करते हुए यहां तक कह दिया कि यूरोप में ‘पाकिस्तान’ या ‘पाक’ शब्द एक ‘गाली’ बन गया है! इसका प्रयोग बेहद अपमानजक माना जाता है। योगी आदित्यनाथ ने यूरोप के किन-किन देशों के दौरे में ऐसा पाया यह तो वही बता सकते हैं, लेकिन किसी देश के नाम को इस तरह अपमान या कलंक से जोड़ना संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति के लिये सर्वथा अनुचित है। फिर पाकिस्तान तो हमारा एक पड़ोसी देश है, जिसके साथ हमारे देश के रिश्ते चाहे जितने खट्टे-मीठे रहे हों पर यह नहीं भूला जाना चाहिए कि आज की तारीख में भी उसके साथ हमारे राजनयिक रिश्ते कायम हैं। किसी भी पड़ोसी या अन्य देश के साथ भारत के रिश्तों को खराब करने का यत्न करना भी हमारे यहां गैर-कानूनी कृत्य माना गया है। अगर शासकीय स्तर पर गैर-जिम्मेदारी और गैर-जवाबदेही का यह आलम है तो हमारे विदेश मंत्रालय को इस विषय में जरूरी हस्तक्षेप करके उत्तर प्रदेश शासन को ‘एडवाइजरी’ जारी करनी चाहिए थी।
क्या योगी आदित्यनाथ या उनकी पार्टी या केंद्र और राज्य की सरकारें (चाहे वे जिस दल की हो ) इतिहास लेखन या लिखे हुए इतिहास के मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन के लिये कोई ‘नया इतिहास-न्यायाधिकरण’ बनाने जा रही हैं या बीजेपी-आरएसएस-हिन्दू महासभा-हिन्दू युवा वाहिनी-बजरंग दल के नेता-कार्यकर्ता या गोरक्षा दल के हत्यारे-लठैत ही तय कर लिया करेंगे कि सही इतिहास क्या है? इतिहास में गलत क्या लिखा है और सही क्या है? किसने सही लिखा है और किसने गलत लिखकर ‘देशद्रोह’ किया है?
योगी आदित्यनाथ की तीसरी बात सर्वाधिक दिलचस्प और हास्यास्पद है। उन्होंने उसी समारोह में कहा कि इतिहास को गलत ढंग से या तोड़-मरोड़ कर पेश करना देशद्रोह से कुछ कम नहीं है। अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि इतिहास क्या है?, इतिहासकार कौन है? कौन तय करेगा कि सही इतिहास क्या है और कौन उसे तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है? क्या योगी आदित्यनाथ या उनकी पार्टी या केंद्र और राज्य की सरकारें (चाहे वे जिस दल की हो ) इतिहास लेखन या लिखे हुए इतिहास के मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन के लिये कोई ‘नया इतिहास-न्यायाधिकरण’ बनाने जा रही हैं या बीजेपी-आरएसएस-हिन्दू महासभा-हिन्दू युवा वाहिनी-बजरंग दल के नेता-कार्यकर्ता या गोरक्षा दल के हत्यारे-लठैत ही तय कर लिया करेंगे कि सही इतिहास क्या है? इतिहास में गलत क्या लिखा है और सही क्या है? किसने सही लिखा है और किसने गलत लिखकर ‘देशद्रोह’ किया है?
अभी हाल ही में यूपी सरकार ने केंद्र को लिखा है कि फिल्म ‘पद्मावती’ के कारण समाज के वर्ग बहुत आहत है। बीजेपी-आरएसएस के नेता और अनेक मंत्री भी ‘पद्मावती’ प्रकरण में सेट जलाने वालों, फिल्म रिलीज होने पर सिनेमा हॉलों में आग लगा देने, फिल्म निर्देशक और फिल्म की अभिनेत्री को मारने-पीटने, यहां तक कि नाक काटने की धमकी देने वालों का समर्थन करते नजर आ रहे हैं। क्या यही हुड़दंगी, दंगाई और उपद्रवी सही इतिहासकार हैं? अलाउद्दीन खिलजी की सल्तनत, राज-विस्तार के लिए उसके द्वारा किये युद्धों और चित्तौड़गढ़ की भूमिका के बारे में किसके विचार को सही माना जाए? पद्मावती या पद्मिनी सोलहवीं सदी के महान अवधी कवि मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ की काल्पनिक नायिका भर हैं या चौदहवीं सदी में कथित जौहर करने वाली चित्तौड़गढ़ की कोई महारानी हैं? यह सब कौन तय करेगा और कहां से तय होगा? शासन की कुर्सी से या इतिहास के शोध-आधारित अध्ययन से? यह बात इतिहासकार सही बतायेंगे या ‘बजरंगी’ और ‘हुड़दंगी’ समझायेंगे?
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