संविधान लागू कराने वालों की सोच दूषित होगी तो कैसे सच होगा बाबा साहेब का सपना

भारतीय संविधान देश में समता को प्रोत्साहित करने की भावना से भरा है। आरक्षण का प्रावधान इसी भावना का एक अंग है। लेकिन समाज के वर्चस्वशाली वर्ग की जो सोच है, वह आजादी के 70 सालों के बाद भी नहीं बदली है।

फोटोः सोशल मीडिया
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राज वाल्मीकि

ट्रेन में सफर करते हुए कई बार यात्रियों की दिलचस्प बातें सुनने को मिल जाती हैं, जिससे वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की झलक दिख जाती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए जब चार-छह लोग एक साथ होते हैं तो उनमें बातचीत शुरू हो ही जाती है। अक्सर बातचीत वर्तमान मुद्दों से ही शुरू होती है। लोगों को समसामयिक मुद्दों पर बात करना अच्छा लगता है। और जब बात निकलती है तो दूर तक जाती ही है।

मैं ट्रेन के एसी क्लास में सफर कर रहा था। उम्मीद के अनुसार उसमें सफर करने वाले लगभग सभी लोग शिक्षित थे। कुछ उच्च शिक्षित भी थे। लेकिन उनकी बातों को सुनने पर लगा कि हमारी सामाजिक व्यवस्था कुछ ऐसी है कि व्यक्ति कितना भी पढ़-लिख जाए, बचपन से लेकर युवावस्था तक परिवार से और आसपास के वातावरण यानी पास-पड़ोस, स्कूल-काॅलेज से जो संस्कार मिलते हैं, वे व्यक्ति की मानसिकता पर गहरी छाप छोड़ते हैं। और तब उसकी सटीक विश्लेषण करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। उसमें ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ करने का विवेक नहीं रह जाता।

ट्रेन के एसी क्लास में सफर करते समय स्वयं को ‘उच्च श्रेणी’ का समझने वाले लोग इस बात की कल्पना ही नहीं कर पाते कि उनके साथ कोई दलित भी सफर कर रहा होगा। कथित उच्च जाति के अधिकांश लोग यह मानकर चलते हैं कि दलित तो हमारी सेवा करने के लिए हैं। उन्हें अपने सेवा कार्य के अलावा और कुछ नहीं होना चाहिए और न कुछ अलग सोचना चाहिए। आमने-सामने की सीटों पर बैठे 5-6 लोग बैठे थे। उनमें से एक व्यक्ति के हाथ में दैनिक अखबार था। उन्होंने ही बात शुरू करते हुए कहा, ‘‘अरे भाईसाहब, क्या बताएं, आजकल इन दलितों ने बड़ा हंगामा मचा रखा है। अब देखिए, सुप्रीम कोर्ट, जो देश का सर्वोच्च न्यायालय है, उसके निर्णय को भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं। बताइए, इसमें सुप्रीमकोर्ट ने क्या गलत कह दिया कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लोग ज्यादातर झूठे मामले दर्ज कराते हैं। इसलिए इन मामलों में तुरंत प्रभाव से पुलिस कार्यवाही न करें।’’

दूसरे साहब ने उनकी बातों का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘अरे साहब, अब तो पर निकल आए हैं इन दलितों के। वे ये भूल गए हैं कि कल तक हमारी टट्टियां उठाते थे, उसके बदले हम जो रोटी देते थे, वह खाकर ये पले बढ़े हैं। हमारे मरे जानवर उठाते हैं। इनकी औरतें हमारे घरों में साफ-सफाई से लेकर सारे काम किया करतीं थीं। ये लोग हमारे खेतों में बेगार किया करते थे। इनकी औरतें हमारी गुलाम थीं और मर्द हमारे बंधुआ मजदूर! लेकिन आज इनके तेवर देखिये...।’’

तीसरे सज्जन ने भी उनकी हां में हां मिलाते हुए कहा, ‘‘अब देखो इनके लड़के हमारे लड़कों की तरह मूंछें रखेंगे। घोड़ी पर सवार होकर हमारे सामने से निकलेंगे।... बताओ कैसे बर्दाश्त करें ये सब! और जब हम इन्हें इनकी औकात दिखाते हैं, तो लोग कहते हैं कि हम दलितों पर अत्याचार करते हैं। अरे ये लोग ऐसे काम ही क्यों करते हैं। अपनी औकात में रहें तो क्यों हम इनकी मां-बहनों के साथ बलात्कार करें। क्यों इनकी हत्याएं करें, क्यों इनके महापुरुषों की मूर्तियां तोड़ें....।’’

चौथे सज्जन इस चर्चा में शामिल होते हुए बोले, ‘‘अरे भीमराव अंबेडकर ने इनका दिमाग खराब कर दिया है। जब से ये लोग अंबेडकर को अपनाने लगे हैं। उनके बताए रास्ते पर चलने लगे हैं। उनके शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो जैसे नारों को जीवन में अपनाने लगे हैं। तब से इनका कायाकल्प हो गया है। और हमारी राजनीतिक पार्टियों को भी देखिए कि उस अंबेडकर का ही गुणगान किए जा रही हैं...।’’

इस पर पहले सज्जन ने जवाब देते हुए कहा, ‘‘अरे भाईसाहब, पार्टी वाले भी क्या करें। उनकी मजबूरी हो गई है, अंबेडकर का नाम लेना। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को भी कहना पड़ता है कि हम अंबेडकर का सबसे ज्यादा सम्मान करते हैं। हमें उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए। मजबूरी ये है कि बिना अंबेडकर के दलित वोट नहीं मिलते। इसलिए चाहे बीजेपी हो या कोई और पार्टी, सभी अंबेडकर के नाम पर दलित वोटरों को लुभाने लगी हैं। वैसे सच्चाई आप भी जानते हैं कि 2019 के चुनाव में इनका इस्तेमाल कर इन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंक दिया जाएगा।’’

इसका समर्थन करते हुए दूसरे शख्स ने कहा, ‘‘हां, ये तो है। लेकिन अब दलित पढ़ने-लिखने लगे हैं। इसी वजह से उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता आ रही है। इसीलिए मेरी राय तो ये है कि इन दलितों के शिक्षा की तरफ बढ़ते रूझान को रोको। इन्हें कर्मकांडों में उलझाए रखो। जैसा कि हमारे पूर्वज उलझाते आए हैं। जब ये पढ़ेंगे-लिखेंगे नहीं, तो जागरूक भी नहीं होंगे। और यथावत हमारी गुलामी करते रहेंगे।’’

इस बात पर फौरन हां में हां मिलाते हुए एक अन्य सज्जन ने कहा, ‘‘हां आपने बात तो पते की कही है। इससे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।’’

उस समय मुझे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का एक उद्धरण याद आ रहा था-‘‘शिक्षा ही समाज में समानता ला सकती है। शिक्षा ही समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकाती है। मनुष्य जब शिक्षित हो जाता है तो उसमें अच्छे और बुरे की पहचान करने की क्षमता बढ़ जाती है।’’ और यहां दलितों को शिक्षा से ही वंचित होने का षड़यंत्र रचा जा रहा था।

हमारा भारतीय संविधान इस देश में समता को प्रोत्साहित करने की भावना से भरा है। आरक्षण का प्रावधान भी उसकी इस भावना का एक अंग है। पर वर्तमान में समाज के वर्चस्वशाली वर्ग की जो सोच है, वह आजादी के 70 सालों के बाद भी नहीं बदली है। बाबा साहेब ने इसी को ध्यान में रखते हुए कहा था, ‘‘हमारी लड़ाई धन या शक्ति के लिए नहीं है। यह आजादी की लड़ाई है। यह मानवीय व्यक्तित्व का दावा करने के लिए लड़ाई है।’’

हमारा संविधान देश के हर नागरिक को किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना समान मानवीय गरिमा प्रदान करना चाहता है। समतादर्शी समाज का निर्माण करना चाहता है। पर संविधान को लागू कराने वालों की सोच अगर उपरोक्त यात्रियों जैसी ही रहेगी तो कैसे सच होगा बाबा साहेब का समता का सपना।

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