होली व्यंग्यः खुद को भूल चुके चड्ढा जी को चाहिए बस एक अदद ऑस्कर!
चड्ढा जी फिल्म इंडस्ट्री के नामी प्रोड्यूसर हैं, बल्कि थे। थे कहना इसलिए मुनासिब होगा, क्योंकि उन्होंने आखिरी फिल्म कब बनाई थी, यह शायद उन्हें भी याद न होगा। जैसा कि रिवाज है, लोग उन्हें भूल गए हैं। इंडस्ट्री उन्हें भूल गई है। शायद वे भी खुद को भूल गए हैं।
याद नहीं, चड्ढा जी से आखिरी बातचीत कब हुई थी। बल्कि यूं कहें कि मुझे ताज्जुब हुआ कि उनका फोन नंबर अभी तक नहीं बदला और अभी भी मेरे मोबाइल में सेव है। करीब दो बजे फोन की घंटी बजी और स्क्रीन पर ओ पी चड्ढा नाम लिखा आया तो मुझे आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई।
‘अबे कहां मर गया बे तू? ना कोई फोन, ना कोई खोज खबर। मैंने सोचा पूछ लूं कि जिंदा है भी या नहीं।’ सामान्य किस्म की शिकायतों के बाद उन्होंने एक असामान्य सी बात की।
‘आजा...आज तुझे एक एक्सक्लुसिव खबर देता हूं। ब्रेकिंग न्यूज, बहुत बड़ी वाली। सुनकर मस्त हो जाएगा।’ शाम पांच बजे मुंबई के लोखंडवाला स्थित उनके ऑफिस में मिलना तय हुआ।
चड्ढा जी मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के फिल्म प्रोड्यूसर हैं, बल्कि थे। थे कहना इसलिए मुनासिब होगा, क्योंकि उन्होंने आखिरी फिल्म कब बनाई थी, यह शायद उन्हें भी याद ना होगा। जैसा कि रिवाज है, लोग बाग उन्हें भूल गए हैं। इंडस्ट्री उन्हें भूल गई है। शायद वे भी खुद को भूल गए हैं। ऐसा मेरा खयाल है कि आज उन्हें जब खुद की याद आई होगी तो मुझे फोन किया होगा।
एक समय ऐसा था कि कोई ऐसा दिन नहीं गुजरे जब मैं उन्हें फोन ना करूं। फिल्म इंडस्ट्री के वे नामचीन प्रोड्यूसरों में गिने जाते थे। कई हिट फिल्में उनके खाते में दर्ज थीं। पैसे भी खूब बनाए लेकिन जब किस्मत के सितारों ने साथ देना बंद कर दिया तो धरती के सितारों ने भी मुंह फेर लिया। फिल्में पिटने लगीं। पैसे लगाने वाले पीछे हटने लगे और सितारों ने उनके साथ काम करने से मना करना शुरू कर दिया। बाद में सुना कि चड्ढा जी को अपनी कुछ प्रॉपर्टी बेचनी पड़ी। वे साइलेंट हो गए।
खैर, शाम ठीक पांच बजे उनके दफ्तर पहुंच गया। संयोग से दफ्तर वही पुराना वाला था और मुझे अब भी उसका पता याद था। देखते ही बड़ी गर्मजोशी से गले मिले और इधर-उधर की बातों, शिकायतों का आदान- प्रदान हुआ।
मेरे अंदर का पत्रकार अभी तक पूरी तौर से मरा नहीं है। सो, बेसब्री से उस एक्सक्लूसिव खबर का इंतजार कर रहा था। हां, आपको बता दूं, चड्ढा जी दो सूरतों में पंजाबी में उतर जाते हैं। जब वे बहुत एक्साइटेड होते हैं और जब वे गुस्से में होते हैं। खैर, वे शुरू हुए।
‘पिछले कुछ टाइम से मैं सोच रहा हूं कि इस कौम दा भला किस करके करूं? बहुत सोचा, बहुत माथापच्ची की। उसके बाद मैंने तय किया है कि इस मुलक दे वास्ते, इस कंट्री दे वास्ते एक ऑस्कर विनिंग फिल्म बनावांगा। इंडिया को हमारी तरफ से गिफ्ट होगा ऑस्कर अवार्ड।’ ‘अच्छा..? फिल्म प्रेमियों के लिए इतना करेंगे आप?’
‘कौम के लिए नहीं, कंट्री के लिए। कौम तो जाहिल है। कंट्री ग्रेट है। कौम के लिए कोई कमिटमेंट नहीं, कंट्री के लिए है।’‘कौम से क्यों नाराज हैं?’
‘इसे अच्छी फिल्म की तमीज नहीं है। घटिया डायरेक्टर की घटिया पिक्चर पसंद करते हैं। हमारी पिक्चर इसे पसंद नहीं। इस वास्ते हमने तय कित्ता कि ये जाहिल कौम इस लायक नहीं है कि इसके वास्ते मैं कोई फिलम बनाऊं। इसलिए घर बैठ गया।’
‘लेकिन इसी जाहिल कौम ने तो पहले आपकी फिल्म हिट कराई है।’‘पहले की कौम समझदार थी। अब काहिल और जाहिल हो गई है।’ ‘लेकिन अच्छी फिल्में तो बन रही हैं। अच्छी फिल्मों के लिए तो यह सबसे अच्छा दौर है।’ ‘कौन कह रहा है।?’
‘लोग और फिल्म क्रिटिक कह रहे हैं।’
‘लोग जाहिल हैं। फिल्म क्रिटिक कम पढ़े-लिखे लोग हैं।’
‘आप भी तो दसवीं फेल हैं।’
‘ओय, मैं कोई किताबी पढ़ाई-लिखाई की गल नहीं कर रहा। मैं फिल्मी समझ और तहजीब की गल कर रहा। समझ में आई बात?’
‘ऑस्कर अवार्ड की बात कहां से दिमाग में आ गई?’
‘बड़ा सोच्या तो याद आया के इस मुल्क के पास एक ऑस्कर अवार्ड नसीब ना हुआ। मैं ले आवंगा कंट्री दे वास्ते ऑस्कर।’
‘बाऊजी, ऑस्कर अवार्ड कोई केला नहीं है जिसे आप बाजार से खरीद लाएंगे?’
‘ओय गल सुन, तू मेरे संग गल कर रिया है। एक चपरासी नूं गल नइ कर रिया है? जानता है ना मुझे? एक टाइम पे शोमैन कहते थे मुझे।’
‘लेकिन अब, ‘गोमैन’ कहते हैं।’
‘क्या कहा?’
‘कुछ नहीं। पूछते हुए बुरा लगता है लेकिन ऑस्कर के लिए आपकी उमर थोड़ी ज्यादा नहीं? मतलब, फिल्म बनाने के लिए?’
‘तू अपने आपको बड़ा जहीन समझता है? दुनिया भर में लोग अस्सी-अस्सी, नब्बे-नब्बे साल में फिल्में बना रहे हैं। मैं तो अभी सिर्फ पचहत्तर का हूं।’
‘अच्छा तो ये बताइए कि युवाओं द्वारा बनाई गई फिल्मों की रोशनी में आप क्या देखते हैं?’
‘क्या सवाल किया तूने? युवाओं द्वारा बनाई गई फिल्मों की रोशनी में क्या देखते हैं। भई, मैं सिर्फ अंधेरा देखता हूं अंधेरा। कोई फ्यूचर नहीं है।’
‘आपकी नजर में आजकल के फिल्मकार कैसी फिल्में बना रहे हैं?’
‘देखो भाई, मेरी नजर हो गयी है कमजोर। मेरी नजर से देखोगे तो कमजोर ही नजर आएगी।’
‘आप लोगों की सबसे बड़ी प्रॉब्लम ये है कि आप लोग एक दूसरे की तारीफ सुनना नहीं चाहते।’
‘बकवास ना कर मेरे से। सिर्फ वो सवाल कर जिसे करन दे वास्ते मैंने तुझे बुलाया है।’
‘तो ऑस्कर अवार्ड के लिए क्या तैयारी कर रहे हैं? सबसे पहले तो कोई एक अदद फिल्म बनानी पड़ेगी। वो भी ऐसी जो दुनिया भर के मुल्कों की बेहतरीन फिल्मों से ज्यादा अच्छी हो।’
‘मैंनू पता सी।’
‘फिल्म का नाम क्या रखा है?’
‘जय माता दी।’
‘जय माता दी? फिल्म का नाम?’
‘होर की केह रिया हूं मैं? इसमें ‘भारत’ सायलेंट है। दरअसल, फिल्म का नाम ‘जय भारत माता दी’ है।’
‘भारत’ साइलेंट क्यों कर दिया?
‘इस वास्ते कर दिया कि बिचारी माता वैसे भी साइलेंट रहती है आजकल। भारत माता भी साइलेंट है। खैर, हमने अपनी फिल्म दे वास्ते एक वड्डा ऐक्टर फाइनल कर दिया है।’
‘शाहरुख खान?’
‘उससे भी बड़ा वाला।’
‘आमिर खान?’
‘उससे भी बड़ा वाला। गेस कर।’
‘नहीं कर सकता। मेरी सोच इससे ऊपर नहीं जा सकती।’
‘जानता हूं तेरी सोच ही छोटी है। तू पत्तरकार ठेहरा। तो सुन। ‘जय माता दी’ के लीड रोल में हमारे आदरणीय परधानमंत्रीजी रहेंगे।’
‘क्या बात करते हैं चड्ढा जी? होश तो ठिकाने हैं आपके। क्या कह रहे हैं आप?’
‘ओय, कंट्रोल कर, कंट्रोल कर ले। जानता था सुनके हिल जावेगा।’
‘है ना कमाल का कास्टिंग? बोल, चुप क्यों हो गया? जुबान पे ताले क्यों लग गए।?’
‘ऐक्टिंग करने के लिए पीएम तैयार हो जाएंगे?’
‘तैयार क्यों ना होंगे? कोई पहली दफा ऐक्टिंग कर रहे हैं? ऐक्टिंग का इतना पुराना एक्सपेरिएन्स है उनका। अभी डिस्कवरी चैनल में ऐक्टिंग ना की उन्होंने?’
‘बात तो आपकी ठीक है लेकिन प्रधानमंत्री को किसी फिल्म में हीरो बनाना सुना नहीं इससे पहले।’
‘यही तो फर्क है शोमैन में और दूसरों में। वे जहां सोचना बंद करते हैं, वहां से मैं सोचना शुरू करता हूं।’
‘कहानी फाइनल हो गई है?’
‘बस होने वाली है।’
‘क्या कहानी है?’
‘बता नहीं सकता। सीक्रेट है।’
‘लेकिन आपको क्यों लगता है कि प्रधानमंत्रीजी को हीरो बनाकर आपकी फिल्म ऑस्कर ले आएगी?’
‘पहली बार तूने ढंग का कोई सवाल किया है। सुन, बात ये है। सबसे पहले तो करोड़ों रुपए, माफ करना करोड़ों डॉलर की पब्लिसिटी फ्री में मिल जानी है।’
‘लेकिन उससे ऑस्कर अवार्ड का क्या ताल्लुक?’
‘ओय गल तो सुन। तेरे अंदर ये बड़ी खराबी है। बात तो कर लेने दे। हां तो मैं क्या कह रिया था कि मुझे तो परधानमंत्रीजी को सिर्फ रोल देना है। बाकी काम तोअपने आप ही हो जाना है।’
‘मतलब समझा नहीं।’
‘देख, परधानमंत्रीजी फिलम के अंदर जो परिधान पहनेंगे, वो मुफ्त। उनके साथ उनका ड्रेस डिजायनर, हेयर ड्रेसर, खाना-पीना, गाड़ी-घोड़े सब फ्री। फिलम तो बन जाएगी अपने आधे से कम बजट में।’
‘और ऑस्कर?’
‘ऑस्कर अवार्ड है ही हाय लेवल दी सेटिंग और कुछ नहीं। समझा?’
‘तो आपने सेटिंग कर ली।’
‘कर ली बिलकुल। फुल प्रूफ’
‘फूल प्रूफ या फुल प्रूफ?’
‘ए तैंनू की तंज कित्ता?’
‘तो सेटिंग का काम भी क्या उनपे छोड़ दोगे आप?’
‘देख सेटिंग में कोई बुराई नहीं। इस बार अमरीका के पुराने प्रेसीडेंट ओबामा की एक फिलम को ऑस्कर अवार्ड मिला है। तैनूं पता है?’
‘जी हां पता है।’
‘उससे पहले अमरीका के पुराने वाइस प्रेसीडेंट की फिलम को भी ऑस्कर अवार्ड मिल चुका है। पता है तैनूं?’ ‘जी हां।’ ‘तो फिर किस तरह की गल कर रिया है तू? बिना सेटिंग के अवार्ड नहीं मिला करते।’ ‘तो आपकी सेटिंग अमेरिका में किससे है?’
‘मेरी सेटिंग अपने आदरणीय परधानमंत्री से है। उनकी सेटिंग अमरीका के प्रेसीडेंट से है। बस अपना काम हो जाना है। काम होने से मतलब है? बता क्या कहता है? है ना एक्सक्लूसिव ब्रेकिंग न्यूज?’
‘बिलकुल है। छा गए आप।’
‘एक बात बता भाई। ऑस्कर के बाद मुझे पद्मश्री तो मिल जावेगा?’
‘पद्मभूषण की बात कीजिए चड्ढा जी पद्मभूषण की।’
‘वाह, खुश कर दित्ता। ए होंदी है सपोर्टमेन सपरिट। बोतल खुलवाऊं?’
‘चड्ढा जी, अभी माफ कीजिए। अभी जाकर खबर को तोड़ना है। माफ कीजिएगा ब्रेक करना है।’
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