लोकतंत्र को तार-तार कर दिया इस चुनाव आयोग ने!
मौजूदा चुनाव आयोग का कामकाज अब तक के सभी चुनाव आयोगों से बुरा है। लोकतंत्र की बुनियाद का इस तरह कमजोर हो जाना बेहद चिंताजनक
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का असल मतलब क्या है? मेरे विचार से, इसकी कुछ जरूरी शर्तें हैं:
शुद्धता : संवैधानिक रूप से पात्र लोगों का मताधिकार सुनिश्चित करना और अपात्रों को इससे रोकने के लिए 100 प्रतिशत सटीक चुनाव का संचालन।
जागरूकता : हर नागरिक को मतदान प्रक्रिया के हर चरण की पूरी जानकारी होनी चाहिए। उन्हें बिना किसी भ्रम के अपने मत का प्रयोग करना चाहिए।
गैर-पक्षपातपूर्ण वातावरण : चुनाव प्रक्रिया और मीडिया पारिस्थितिकी तंत्र इतना तटस्थ हो कि बातें दबाई न जाएं, न ही कोई भी झूठ बोलकर बच निकलने में सफल हो।
विश्वसनीयता प्रक्रिया इतनी पारदर्शी रहे कि कई लोग पुष्टि कर सकें कि यह नियमानुसार हुआ और कुछ भी अप्रिय या गलत नहीं हुआ।
पहुंच की समानता सिस्टम को उम्मीदवारों के बीच उनकी पार्टी के आकार, भले ही वे निर्दल हों, के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। किसी भी आम नागरिक के चुनाव लड़ने पर कोई रोक नहीं होगी।
सबसे वांछनीय नतीजे तभी आएंगे जब मतदान की पूर्ण शुचिता, उपकरणों की निर्विवाद सुरक्षा, गणना और पूरी मतदान प्रक्रिया की विश्वसनीयता और इस सबमें मतदाताओं द्वारा व्यक्त इरादे के अनुरूप नतीजे देने वाले उपकरणों की सहभागिता शामिल होगी।
ऐसे नतीजे भरोसा जगाएंगे कि हर किसी को मतदाता बनने का निष्पक्ष और समान अवसर मिला है, कि कार्यकारी शक्ति रखने वाले दल ने प्रक्रिया पर अनुचित प्रभाव या लाभ नहीं लिया है, और सिस्टम ने जो नतीजे दिए हैं, वह वास्तव में मतदाताओं की इच्छा का प्रकटीकरण है।
लगभग 96 करोड़ (960 मिलियन) पात्र मतदाताओं और 12 लाख से अधिक मतदान केंद्रों के साथ, आम चुनाव के संचालन के लिए कई करोड़ बूथ अफसरों, बूथ एजेंटों, पर्यवेक्षकों और सुरक्षाकर्मियों की जरूरत होती है। इनमें से लगभग सभी की सेवाएं और भूमिकाएं उनकी मूल भूमिका से अलग और अस्थायी होती हैं।
चुनाव आयोग आज कागजी शेर बनकर रह गया है। हालांकि चुनावी प्रक्रिया के लिए लाखों-करोड़ों लोगों की जरूरत होती है, भारत का चुनाव आयोग महज 500 से भी कम पूर्णकालिक कर्मचारियों के ढांचे पर चलता है। इस छोटे समूह का काम प्राधिकरण के होने के अहसास के साथ सिस्टम का प्रबंधन और व्यवस्थाओं अनुपालन सुनिश्चित करना है।
मौजूदा चुनाव मॉडल का सूक्ष्म विश्लेषण बताता है कि सिस्टम संरचनात्मक रूप से त्रुटिपूर्ण है। किसी चुनाव में काम करने वाले 99 प्रतिशत से अधिक लोग सरकारी या अर्ध-सरकारी नौकरियों, राष्ट्रीयकृत बैंकों सहित सार्वजनिक उपक्रमों से आते हैं। आदर्श रूप से ये कर्मचारी इस अतिरिक्त कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हैं। उन्हें मिला प्रशिक्षण और कार्यात्मक समर्थन का स्तर किसी भी पेशेवर मानक के हिसाब से अपर्याप्त है। हालांकि यह चरम उदाहरण है लेकिन मध्य प्रदेश से ‘दैनिक भास्कर’ की रिपोर्ट के अनुसार, वहां माली और ड्राइवरों सहित 20 सरकारी कर्मचारियों को मतदान अधिकारी के रूप में लगाया गया था। इसे श्रमिकों के प्रति अनादर का भाव न माना जाए लेकिन काम का ऐसा लापरवाह बंटवारा, बेतरतीब प्रशिक्षण और समर्थन पूरी प्रक्रिया के प्रति सिस्टम की गंभीर उपेक्षा दर्शाता है।
अब मतदाता सूचियां ही कितनी सटीक हैं?
जिन पांच चुनावों में काम करने का मौका मिला, उनके आधार पर कह सकते हैं कि मतदाता सूचियां ग्रामीण क्षेत्रों में 10 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 15 प्रतिशत या उससे भी ऊपर तक ‘त्रुटिपूर्ण’ होती हैं। दशकों से जनगणना सरीखा कोई मतदाता पंजीकरण अभियान नहीं चला। तथ्य यह है कि साल दर साल बदलाव से लोगों की बूथ सूची में उनके क्रमांक लगातार बदलते रहते हैं। आयोग ने 2015 में ‘पूरी तरह से त्रुटि रहित और प्रमाणित मतदाता सूची लाने’ के उद्देश्य से राष्ट्रीय मतदाता सूची शुद्धिकरण और प्रमाणीकरण कार्यक्रम (एनईआरपीएपी) शुरू किया लेकिन इसकी भी अपनी कई दुशवारियां रही हैं। योजना के आलोचकों का कहना था कि आयोग पर न सिर्फ “अपने आप में अंत के रूप में, बल्कि तत्कालीन सरकार की अन्य महत्वाकांक्षाओं जैसे ‘एक साथ चुनाव या एक देश, एक चुनाव” की राह आसान करने के लिए एक शुरुआती कदम के रूप में दबाव डाला गया था।
ईपीआईसी (इलेक्टर्स फोटो आइडेंटिफिकेशन कार्ड) नंबर को आधार से जोड़ने के फैसले पर अगस्त, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। यह आशंका खारिज तो नहीं की जा सकती है कि इस तरह के लिंकेज का इस्तेमाल हाशिये के समुदायों के मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करने के लिए किया जाएगा। केवल आधार-आधारित लिंकेज के माध्यम से मतदाता सूची का आमूल-चूल शुद्धिकरण नहीं किया जा सकता है, खासकर उस देश में जहां हजारों आधार कार्ड ही फर्जी हों, और जिनमें भगवान हनुमान के लिए जारी आधार कार्ड भी शामिल है।
मतदान का दिन और ईवीएम का सुरक्षित रखरखाव
मौजूदा प्रणाली के तहत, प्रत्येक उम्मीदवार को प्रत्येक बूथ पर एक मुख्य और एक स्थानापन्न एजेंट की अनुमति होती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उचित प्रक्रिया का पालन किया जा रहा है, और बूथ पर किसी के द्वारा ‘कब्जा’ नहीं किया जा रहा है। ये एजेंट यह भी सुनिश्चित करते हैं कि सूची में मतदान करने वाले व्यक्ति के साथ केवल एक ही मिलान हो, और किसी भी मतदाता को वोट देने से इनकार न किया जाए या किसी विशेष उम्मीदवार/पार्टी को वोट देने के लिए मजबूर न किया जाए (जैसा कि इस चुनाव में मणिपुर में हुआ, यहां तक कि चुनिंदा रूप से अंधे चुनाव आयोग को भी पुनर्मतदान करने के लिए मजबूर कर दिया गया)।
मतदान के दिन प्रभावी प्रबंधन के लिए कम-से-कम 3,000 बूथ एजेंटों की आवश्यकता होती है, और बिना किसी पार्टी संरचना के प्रशिक्षण तो दूर की बात है, उम्मीदवार इतने लोगों को पहचान भी नहीं सकते हैं। इसलिए, यह समान अवसर का मामला नहीं है और एक स्वतंत्र उम्मीदवार के लोकसभा सीट जीतने की संभावना लगभग नगण्य है (आंकड़े हैं कि पिछले चुनाव में 99 प्रतिशत निर्दलीय उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी)। यहां इसकी चर्चा यह दिखाने के लिए है कि आयोग के अस्थायी कार्यकर्ताओं और पार्टी स्वयंसेवक या एजेंटों के लिए मतदान-पूर्व प्रक्रियाएं जैसे ईवीएम का परीक्षण और सत्यापन, यह सुनिश्चित करना कि नामांकन पत्र क्रम में हैं, विभिन्न रूपों (फॉर्म 10, फॉर्म 17, फॉर्म 20) को क्रॉस-रेफरेंस करना- दोनों के लिए अपेक्षाकृत नई प्रक्रियाएं हैं।
प्रक्रिया संबंधी वैसी कोई भी जानकारी जिसकी पूर्ण प्रशिक्षित, लंबे समय से काम कर रहे अधिकारियों से अपेक्षा होती है, किसी भी बूथ पर नदारद रहती है। सबसे महत्वपूर्ण तो फॉर्म 17 है क्योंकि इसमें मतदान के दिन क्या हुआ (कुल पंजीकृत मतदाता, ईवीएम में दर्ज कुल वोट, क्या यह मेल खाता है आदि) की व्यापक जानकारी होती है। एक महत्वपूर्ण संदर्भ डेटा के तौर पर फॉर्म 17 मतदान केन्द्रवार वोटों की संख्या बताता है। फॉर्म 17 का बाद में फॉर्म 20 (गिने गए वोट) के साथ मिलान हो सकता है और कोई विसंगति मिलती है तो वह हमें धांधली के प्रति सचेत करती है। आज, हमारे सामने एक तमाशा चल रहा है: पहले चरण के मतदान के पांच सप्ताह बाद भी आयोग आधिकारिक तौर पर अंतिम मतदान के आंकड़े नहीं जारी कर सका। इसकी वेबसाइट और ऐप हर निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या को लेकर वांछित डेटा नहीं दिखा रहे थे।
एक व्यावहारिक लोकतंत्र का प्राण होता है चुनावों का न्यायपूर्ण संचालन। यहां तक कि संविधान सभा में हुई बहस के दौरान चुनाव की शुचिता और निष्पक्षता को मौलिक अधिकार बनाने का प्रस्ताव भी आया था।
इससे पहले के चुनाव आयोगों के प्रति लोगों के मन में सम्मान का भाव होता था और यकीनन राज्य और केन्द्र सरकारें आचार संहिता से जुड़ी बातों पर अमल करती थीं। यह निष्पक्ष हुआ करता था और इससे लोगों का व्यवस्था में भरोसा होता था।
आज स्थिति यह है कि ईवीएम को लेकर संदेह आयोग द्वारा यह नहीं बताने से और बढ़ गया है कि ईवीएम के कंपोनेंट को कौन बनाता है, उसका सोर्स कोड क्या है… वगैरह-वगैरह। ईवीएम की जांच करना विवादों का पिटारा खोलने जैसा है: छेड़छाड़ का मुद्दा, स्ट्रांगरूम में उनके भंडारण से समझौता, ईवीएम के खो जाने/बदले जाने की घटनाएं, ईवीएम का सत्तारूढ़ दल के लिए दो वोट दर्ज करना जबकि केवल एक वोट पड़ा, और वीवीपैट रसीदों का ईवीएम से मिलान करने से इनकार करना जैसे तमाम मुद्दे हैं जो चुनाव प्रक्रिया को संदिग्ध बनाते हैं।
एक राजनीतिक दल के लिए बड़ा जरूरी होता है कि उसके काउंटिंग एजेंट अच्छी तरह से तैयार और पर्याप्त प्रशिक्षित हों। केवल प्रशिक्षित काउंटिंग एजेंट ही अपनी भूमिका अच्छी तरह निभा सकते हैं। एजेंट ठीक तरीके से काम कर सकें, इसके लिए जरूरी होता हो कि उनके पास हर बूथ और उसके ईवीएम से संबंधित फॉर्म-17 में सटीक जानकारी हो- जिसमें ईवीएम की पहचान संख्या, डाले गए कुल वोट वगैरह हों। यह उम्मीदवार का काम है कि वह अपने काउंटिंग एजेंटों को सारी जानकारी उपलब्ध कराए ताकि हेरफेर-मुक्त गिनती सुनिश्चित हो सके।
प्रत्येक उम्मीदवार के पक्ष में पड़े वोट (ईवीएम और डाक) जिनकी सूचना रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा मतगणना के दिन दी जाती है, को एकत्र किया जाता है और ‘फॉर्म-20’ में घोषित किया जाता है जो चुनाव प्रक्रिया का आधिकारिक परिणाम है। फॉर्म-17 डेटा (मिले मत) का प्रकाशन बंद करने का चुनाव आयोग का फैसला निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा पर एक अक्षम्य हमला है।
प्रत्येक ईवीएम में डाले गए मतों की संख्या पर आम सहमति के बिना यह सुनिश्चित करने का कोई तरीका नहीं है कि गिने गए वोट उतने ही हैं जितने मतदान के दिन वोट डाले गए। अब यह प्रत्येक उम्मीदवार पर निर्भर करता है कि वह हर बूथ से फॉर्म-17 इकट्ठा करने के लिए अपनी स्वयं की टीम रखे और इसे जांच-परख और मिलाकर काउंटिंग एजेंट को उपलब्ध कराए। उसके बाद ही काउंटिंग एजेंट यह सुनिश्चित कर सकता है कि सही ईवीएम (क्रम संख्या का मिलान) से गिनती की जा रही है और कुल गिने गए वोट उतने ही हैं जितने उस बूथ पर वास्तव में मतदान के दिन डाले गए थे।
पैमाने और इस प्रक्रिया से जुड़ी जटिलताओं को देखते हुए छोटी पार्टियां और निर्दलीय प्रत्याशी आम तौर पर नुकसान में रहते हैं क्योंकि सटीकता की जांच करने और किसी भी विसंगति की स्थिति में उन्हें विरोध करना होता है। और फिर जो दल सत्ता में होता है, उसके द्वारा मतगणना में हेरफेर की आशंका काफी अधिक होती है। इनके अलावा, छोटे पैमाने पर हेरफेर का एक और तरीका होता है।
पोस्टल वोट में हेरफेर
जहां जीत का अंतर कम होता है, नतीजों में हेरफेर अक्सर पोस्टल वोटों की गिनती के माध्यम से किया जाता है जैसा कि हाल ही में चंडीगढ़ मेयर चुनाव में दिखा। इसके सबसे गंभीर उदाहरणों में से एक है भाजपा के केन्द्रीय मंत्री भूपेन्द्र सिंह चुडास्मा का ढोलका विधानसभा सीट पर कांग्रेस के अश्विन राठौड़ के खिलाफ 327 वोटों के मामूली अंतर से जीत हासिल करना क्योंकि 429 पोस्टल वोटों को रिटर्निंग ऑफिसर धवल जानी ने अमान्य कर दिया था। चुडास्मा जब राजस्व मंत्री थे, तब धवल उनके मातहत काम कर चुके थे। इसलिए चुनाव आयोग ने आदेश दिया है कि डाक मतपत्रों की गिनती पहले की जाए और ईवीएम की गिनती डाक मतों की गिनती शुरू होने के आधे घंटे बाद, हालांकि आयोग के इस निर्देश का बहुत बार पालन नहीं भी किया जाता है।
एक और संरचनात्मक खामी
एक बार जब मतगणना केन्द्र पर रिटर्निंग अधिकारी सफल उम्मीदवार को चुनाव का प्रमाणपत्र (फॉर्म 22) जारी कर देता है, उसके बाद चुनाव को केवल अदालत में चुनौती दी जा सकती है जिसमें सालों लग सकते हैं और इसलिए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता। वोटों की गिनती में हारने के बावजूद सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवार को प्रमाणपत्र जारी करने के उदाहरण बताते हैं कि अंतिम क्षण में भी कैसे नतीजों में हेरफेर किया जा सकता है।
चुनाव याचिकाएं
अदालत में दायर चुनाव याचिकाओं का क्या होता है? जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 86(6) और 86(7) हाईकोर्ट से अपेक्षा करती है कि वह अंतिम नतीजे पर पहुंचने तक चुनाव याचिका की सुनवाई हर दिन करे (जहां भी व्यावहारिक रूप से संभव हो) और सुनवाई को खत्म करने के लिए छह माह की समय सीमा निर्धारित करती है। हालांकि चुनाव याचिकाओं पर अक्सर उचित ध्यान नहीं दिया जाता है और कई याचिकाएं बेकार हो जाती हैं।
चुनावी तंत्र को ठीक करना
चुनाव आयोग अपने वर्तमान स्वरूप में बेहद अक्षम और पक्षपातपूर्ण है। चुनावी प्रक्रिया पहले से ही कमजोर थी, और मौजूदा चुनाव आयुक्तों के पक्षपातपूर्ण रुख ने इसे और भी बेकार बना दिया है। यह आयोग की अक्षमता का ही नतीजा है कि अभूतपूर्व गर्मी के बीच चुनाव ढाई महीने तक चला। ऐसे आयोग को एक राष्ट्र, एक चुनाव कराने के मामले में राय देना है! आखिर चुनाव प्रक्रिया पर कितना समय, ऊर्जा और संसाधन लगाना होगा जिससे यह विश्वसनीय बन सके?
इनमें से कुछ समस्याओं को तो आसानी से दूर किया जा सकता है, जैसे चुनाव आयोग का बेहतर तकनीक में निवेश करना, सटीकता के लिए खुद को प्रतिबद्ध करना, रैंडम नमूने की जगह 100 फीसद वास्तविक डेटा रिपोर्टिंग को अमल में लाना, कार्यबल का विस्तार और उन्हें पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित करना और आंकड़ों को प्रक्रिया के बिल्कुल शुरुआती चरण से ही मिलाते रहना ताकि कहीं कोई गड़बड़ी होते ही पता चल सके।
80 साल पहले चुनाव आयोग का स्टाफ तंत्र कैसा हो, इसकी कल्पना करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, ‘सवाल यह है कि क्या चुनाव आयोग के पास अपना स्वतंत्र स्टाफ रखने का अधिकार होना चाहिए ताकि वह सौंपी गई जिम्मेदारियों को पूरा कर सके? यह महसूस किया गया कि चुनाव आयोग को मतदाता सूची की तैयारी, वोटर सूची के पुनरीक्षण, चुनावों के संचालन आदि करने के लिए एक स्वतंत्र मशीनरी रखने की अनुमति देने पर अनावश्यक प्रशासनिक व्यय होगा जिसे आसानी से टाला जा सकता है। जैसा कि मैंने कहा है, चुनाव आयोग का काम एक समय तो बहुत अधिक होगा जबकि बाकी समय उसके पास कोई काम ही नहीं होगा। इसलिए, हमने खंड (5) में प्रावधान किया है कि आयोग को अपना कामकाज पूरा करने के लिए प्रांतीय सरकारों से ऐसी लिपिकीय और मंत्रालय के कर्मचारियों को उधार पर लेने का अधिकार होना चाहिए और जब आयोग का काम खत्म हो जाए, तब वे कर्मचारी अपने काम पर लौट जाएं। इसमें संदेह नहीं कि जब तक वह कर्मचारी चुनाव आयोग के अधीन काम करेगा, वह प्रशासनिक रूप से आयोग के प्रति जिम्मेदार होगा, न कि कार्यकारी सरकार के प्रति।’
अतिरिक्त व्यय और प्रशासनिक मशीनरी के दोहराव के बारे में डॉ. आंबेडकर की चिंताएं एक नए राष्ट्र की सीमाओं के अनुरूप थीं। लेकिन तब स्थिति और थी और आज कुछ और है। पहले आम चुनाव में एक संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की औसत संख्या लगभग चार लाख थी; अब यह 15 लाख से ऊपर है। दस लाख से अधिक बूथ 96.9 करोड़ मतदाताओं की जरूरतों को पूरा करते हैं। इसके अलावा, चुनाव अब त्रि-स्तरीय (संसद, राज्य विधानसभाएं, स्थानीय निकाय) होते हैं और यह साल भर चलने वाली प्रक्रिया हो गई है।
शिकायत तंत्र और पक्षपातपूर्ण आयोग
पार्टियां अक्सर हर स्तर पर चुनाव आयोग के पक्षपात की शिकायत करती हैं- राजनीतिक विज्ञापनों और खर्चों की निगरानी, शिकायतों के खिलाफ कार्रवाई, चुनाव चिह्न आवंटित करना आदि। (जब डीएमके विपक्ष में थी, तब राज्य-व्यापी विज्ञापन अभियान चलाते समय मुझे खुद पहली बार इसका सामना करना पड़ा था।) हाल ही में चुनाव आयोग ने आआपा के आधिकारिक कैंपेन गीत पर इस बहाने से प्रतिबंध लगा दिया कि इसमें ‘सत्तारूढ़ पार्टी और उसकी एजेंसियों को खराब रोशनी’ में दिखाया गया है। दूसरी ओर, जब भाजपा ने मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने का खुलाआम अभियान चलाया या जब उसने कांग्रेस के घोषणापत्र के बारे में अफवाहें फैलाईं, तो आयोग ने आंखें मूंद लीं।
जब राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के बारे में चुनाव आयोग को शिकायतें की गईं क्योंकि इससे यह गलत धारणा पैदा हो रही थी कि लोगों की मेहनत की कमाई और महिलाओं के मंगलसूत्र को ‘धन पुनर्वितरण’ के नाम पर छीनकर ‘घुसपैठियों’ और ‘जिनके अधिक बच्चे हैं’ उन्हें सौंप दिया जाएगा, तो आयोग ने मोदी को नहीं बल्कि भाजपा प्रमुख जे.पी.नड्डा को नोटिस भेजने का फैसला किया। प्रधानमंत्री मोदी ने तीसरे चरण की पूर्व संध्या पर राम मंदिर का दौरा किया जिससे उनकी हताशा और आदर्श आचार संहिता के प्रति उनकी उपेक्षा- दोनों का पता चला। यह याद रखा जाना चाहिए कि लिब्रहान अयोध्या जांच आयोग ने चुनाव आयोग से सिफारिश की थी कि ‘धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग करने का प्रयास, या मतदाताओं से धर्मपरायणता के आधार पर अपील करने, या पूजा स्थलों पर चुनावी रैलियां आयोजित करने पर तत्काल कार्रवाई की जानी चाहिए और इसके लिए उम्मीदवार को अयोग्य भी घोषित किया जा सकता है।’
आज ठीक इसका उलटा हो रहा है- सत्तारूढ़ पार्टी राम मंदिर के मुद्दे पर तीसरा कार्यकाल पाने की कोशिश कर रही है, खुद प्रधानमंत्री लगातार नफरती और सांप्रदायिक भाषण दे रहे हैं और चुनाव आयोग है कि मूक दर्शक बना हुआ है। हमने लोकतंत्र की आधार चुनावी प्रक्रिया पर पर्याप्त ध्यान, धन या समय नहीं दिया। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की धारणा न केवल एक संवैधानिक उपहास है बल्कि एक विचित्र कल्पना है।
मौजूदा तीन चुनाव आयुक्तों ने अपने पूर्वाग्रहों से आयोग की हत्या कर डाली है। उन्होंने मुसलमानों को खुल्लमखुल्ला निशाना बनने दिया (अजमेर, 6 अप्रैल; नवादा, 7 अप्रैल; पीलीभीत, 9 अप्रैल; बांसवाड़ा, 29 अप्रैल), उन्होंने आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद केन्द्र सरकार द्वारा घोषित रियायतों के प्रति आंखें मूंद लीं और उनपर सूरत, इंदौर और गांधीनगर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को बंधक बना लिए जाने का असर नहीं पड़ा।
पहले चरण में मतदान के 11 दिन बाद अंतिम मतदान प्रतिशत जारी किया जाता है जो लगभग 5.5 फीसद अधिक होता है और वैसे ही दूसरे चरण का मतदान भी 5.74 प्रतिशत बढ़ जाता है। ये बेहद संदिग्ध आंकड़े हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि इस चुनाव आयोग का कामकाज बड़ी मुश्किलों से हासिल भारत के लोकतंत्र में आई भयानक गिरावट को दिखाता है।
(पलानीवेल त्यागराजन तमिलनाडु में सूचना प्रौद्योगिकी और डिजिटल सेवा मंत्री हैं। यह लंबा लेख पहले ‘फ्रंटलाइन’ पत्रिका में छपा।)
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