हिंदी सिनेमा ने भी उठाए संक्रामक रोगों के सवाल, लेकिन हाल के समय में सार्थक, उद्देश्यपूर्ण फिल्मों की संख्या कम
हिंदी सिनेमा को प्रायः फार्मूला फिल्मों से जोड़कर देखा जाता है, पर समय-समय पर अनेक गंभीर फिल्मों ने बहुत सार्थक मुद्दे भी उठाए हैं। आज कोविड-19 के दौर में संक्रमण रोग चर्चा में हैं तो संक्रमण रोगों पर बनी अनेक सार्थक हिंदी फिल्में याद आती हैं।
हिंदी सिनेमा को प्रायः फार्मूला फिल्मों से जोड़कर देखा जाता है, पर समय-समय पर अनेक गंभीर फिल्मों ने बहुत सार्थक मुद्दे भी उठाए हैं। आज कोविड-19 के दौर में संक्रमण रोग चर्चा में हैं तो संक्रमण रोगों पर बनी अनेक सार्थक हिंदी फिल्में याद आती हैं।
चेतन आनन्द की विख्यात फिल्म नीचा नगर ने स्लम बस्ती में फैले संक्रमण रोग को अन्याय और विषमता से जोड़कर देखा। एक बहुत रसूख वाले बिल्डर की नजर एक ऐसी जमीन पर बड़ी इमारत बनाने की थी जिसकी कीमत बहुत बढ़ रही थी। पर इसके लिए जरूरी था कि एक गंदे नाले का बहाव स्लम बस्ती की ओर कर दिया जाए। ऐसा करने पर स्लम बस्ती में संक्रमण रोग फैल जाता है।
इस फिल्म को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत किया गया। कामिनी कौशल का फिल्मी सफर इस फिल्म से ही आरंभ हुआ, और विख्यात संगीतकार रवि शंकर के लिए भी यह फिल्मी जगत में प्रवेशद्वार था। इस रोग की त्रासद स्थितियों को, बहुत कठिन हालात में निर्धन लोगों की एकजुटता और साहस को फिल्म में प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया है।
वी. शान्ताराम ने एक कालजयी फिल्म बनाई थी ‘डाक्टर कोटनिस की अमर कहानी’ जो एक महान डाक्टर के प्रेरणादायक जीवन पर आधारित थी। डाक्टर कोटनिस बहुत प्रतिकूल स्थितियों में चीन के लोगों का साथ देने के लिए वहां द्वितीय विश्व यु़द्ध के दौरान पहुंचे और वहां अन्य उपलब्ध्यिों के साथ उन्होंने अपने जीवन को खतरे में डालकर भी चीनी सैनिकों और गांववासियों को संक्रामक रोग से बचाया। यही बेहद प्रेरणादायक वास्तविक जीवन की कहानी इस फिल्म में दिखाई गई है। डाक्टर कोटनिस की यादगार भूमिका वी. शान्ताराम ने स्वयं की है।
‘नीचा नगर’ और ‘डाक्टर कोटनिस की अमर कहानी’ दो ऐसी फिल्में हैं जो सार्थक हिंदी सिनेमा के इतिहास में अपना स्थान सदा बनाए रखेंगी। लगभग छः-सात दशक बीत जाने के बाद भी इन फिल्मों को देखा जाता है और इन्हें भरपूर प्रशंसा भी मिलती है।
ओ.पी. रलहन की लोकप्रिय फिल्म ‘फूल और पत्थर’ (धर्मेंद्र, माला सिन्हा) वैसे तो एक अपराधी के सुधार की कहानी है, पर इस कहानी में निर्णयक मोड़ एक संक्रमण रोग के समय ही आता है। एक गैंगस्टर की भूमिका में धर्मेंद्र को एक गांव के धनी परिवार के हीरे-जवाहरात चुराने के लिए भेजा जाता है, पर इस मौके पर गांव में प्लेग फैल जाता है और अन्य गांववासियों सहित धनी-परिवार हीरे-जवाहरात लेकर गांव से भाग जाता है। धर्मेंद्र को हीरे तो नहीं मिलते, पर इस धनी परिवार की एक विधवा बहू मिलती है (मीना कुमारी), जिसे धनी परिवार ने यहां प्लेग से मरने के लिए छोड़ दिया है। इस फिल्म में सुधार और त्याग का महत्त्वपूर्ण संदेश है। अचानक प्लेग की चपेट में आए गांव से भागते लोगों और उजड़े हुए वीरान गांव का चित्रण बहुत असरदार ढंग से हुआ है।
संक्रामक रोगों से जुड़े स्टिग्मा के कारण प्रायः हिंदी फिल्म के नायक को इन रोगों से दूर रखा गया है, पर राज कपूर ने अपनी लोकप्रिय फिल्म ‘आह’ में तपेदिक के मरीज की भूमिका बहुत असरदार ढंग से निभाई थी। नायक कोे इलाज के लिए अनेक महीने सैनेटोरियम में भी गुजारने पड़ते हैं और हंसी खुशी की दुनिया से उसे अचानक पूरे अकेलेपन और वीराने में धकेल दिया जाता है। अपने बहुत लोकप्रिय संगीत के कारण भी यह फिल्म चर्चित रही।
अनेक फिल्मों में नायक तो नहीं पर उसके परिवार के किसी व्यक्ति को संक्रामक रोग (प्रायः तपेदिक या टीबी) से ग्रस्त पाया गया और नायक को इलाज के लिए बड़े प्रयास करते हुए दिखाया गया। गुरुदत्त निर्देशित फिल्म बाजी में देव आनन्द को इसी तरह की भूमिका में अपनी तपेदिक से ग्रस्त बहन के लिए बहुत प्रयास करते हुए दिखाया गया। अनुराधा और आनन्द में क्रमशः बलराज साहनी और अमिताभ बच्चन का सेवा भावना से प्रेरित डाक्टरों के रूप में दिखाया गया तो निर्धन, संक्रामक रोगों से त्रस्त मरीजों के लिए बहुत चिंतित हैं।
आज भी जब डाक्टरों को सेवाभाव से कार्य करने की प्रेरणा देनी होती है तो इन तीन फिल्मों को देखने के लिए प्राय कहा जाता है - ‘अनुराधा’ ‘आनन्द’ और ‘डाक्टर कोटनिस की अमर कहानी’।
‘एक डाक्टर की मौत’ फिल्म में ऐसे डाक्टर की कहानी है जो कुष्ठ रोग (लेप्रोसी) से बचाव केे लिए अथक प्रयास करता है, पर इसका श्रेय दूसरों को दिया जाता है।
‘माई ब्रदर निखिल’ में एक एड्स प्रभावित रोगी की, और उसके बनते-बिगड़ते रिश्तों की मार्मिक कहानी है।
इस तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं कि संक्रामक रोगों जैसे फार्मूला फिल्मों से दूर के विषय की उपेक्षा हिन्दी सिनेमा ने नहीं की है और इस विषय पर अनेक सार्थक फिल्में बनी हैं। उम्मीद है कि कोविड-19 जैसे बहुचर्चित रोग के विभिन्न आयामों पर भी भविष्य में कुछ यादगार फिल्में हिंदी और अन्य भाषाओं में बन सकेंगी।
‘नीचा नगर’ और ‘डाक्टर कोटनिस की कहानी’ जैसी फिल्मों को कलात्मक फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है जबकि ‘आह’ (राज कपूर, नरगिस) और ‘फूल और पत्थर’ (धर्मेंद्र, माला सिन्हा) जैसी फिल्मों को लोकप्रिय, बड़े सितारों वाली, बाक्स-आफिस पर धन बटोरने वाली फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है। इन दोनों तरह की फिल्मों ने अपने-अपने ढंग से संक्रामक रोगों के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को उठाया है और उनके बारे में समझ और संवेदनशीलता बढ़ाने में योगदान दिया है।
ऐसी फिल्मों और फिल्म निर्माताओं का योगदान सराहनीय है, पर साथ में यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी फिल्म जगत की कुल फिल्मों में ऐसी सार्थक फिल्मों का प्रतिशत बहुत कम है। ऐसी सार्थक फिल्मों का प्रतिशत बढ़ सके और वे अधिक दर्शकों तक पंहुच सकें, इसके लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है और जहां इन प्रयासों में सरकारों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है, वहां सार्थक फिल्मों की महत्त्वपूर्ण भूमिका समझने वाले सभी लोगों को आपसी सहयोग से ऐसे प्रयास बढ़ाने चाहिए। हाल के समय में सार्थक, उद्देश्यपूर्ण फिल्मों की संख्या में कमी आई है। ऐसी अधिक फिल्में बन सकें इसके लिए बहुपक्षीय प्रयास जरूरी हैं।
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