हिमाचल को बचाने में जुटे हैं मुख्यमंत्री सुक्खू, पिछली सरकारों की गलतियों को भी सुधारना होगा उन्हें

हाल की विनाशकारी आपदा ने बता दिया है कि हिमाचल की प्रकृति के साथ इंसानी छेड़छाड़ स्वीकार्य सीमा को पार कर चुकी है और अगर नहीं सुधरे तो राज्य को विनाश के मुहाने से वापस लाना मुश्किल होगा।

हिमाचल प्रदेश में इस साल हुई  बेतहाशा बारिश से तबाही में राहत कार्यों की निगरानी करते मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू (फोटो : आईएएनएस)
हिमाचल प्रदेश में इस साल हुई बेतहाशा बारिश से तबाही में राहत कार्यों की निगरानी करते मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू (फोटो : आईएएनएस)
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अवय शुक्ला

अब जब हिमाचल में बारिश का कहर कम हो गया है और राहत और बचाव के कार्य जोर-शोर से किए जा रहे हैं तो यह वक्त है कुछ देर ठहरकर सोचने का। यह समझने का कि वर्तमान को देखते हुए भविष्य के लिए कठोर फैसले लेने ही होंगे। मैं 1976 से हिमाचल में हूं और पिछले एक महीने के दौरान जैसी तबाही हुई है, वैसी कभी नहीं देखी। इस पहाड़ी राज्य में छोटा-मोटा भूस्खलन, कहीं सड़कों का ढह जाना और कभी-कभार बाढ़ आना हमेशा से आम बात रही है। लेकिन इस साल प्रकृति ने जो प्रचंड रूप दिखाया है, वह अभूतपूर्व है और यह न केवल अधिकारियों और नेताओं के लिए आंखें खोलने वाली बात होनी चाहिए बल्कि आम लोगों के लिए भी जो इस आपदा के लिए बराबर के दोषी हैं।

यह कहना सही होगा कि इस राज्य के किसी भी मुख्यमंत्री को उस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा जिसका सामना सुखविंदर सिंह सुक्खू को करना पड़ रहा है। उनके सामने चुनौतियां बड़ी और संसाधन सीमित हैं और उन्हें इसके अलावा अवसरवादी राजनीति का भी सामना करना पड़ रहा है। सुक्खू बचाव, राहत और पुनर्वास प्रयासों की निगरानी में लगे हुए हैं, लेकिन अब समय आ गया है कि वह अतीत की भयानक गलतियों को सुधारने के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए कुछ कठोर निर्णय लें। 

इस संदर्भ में तत्काल कुछ कदम उठाए जाने चाहिए: 

(1) शिमला विकास योजना 41 (एसडीपी 41) को निरस्त किया जाए और एनजीटी/हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा इसे अस्वीकृत किए जाने के खिलाफ सरकार की अपील वापस ली जानी चाहिए। एसडीपी 41, 2040 तक शिमला की जनसंख्या के दोगुना होने की बात करता है, शहर के 17 ग्रीन बेल्ट, कोर और हेरिटेज जोन में निर्माण की अनुमति देता है और इसके अलावा बाकी हिस्सों में 5+1 मंजिल (मौजूदा 2+1 के मुकाबले) की अनुमति देता है। यह शिमला के लिए सुसाइड नोट या डेथ वारंट के अलावा कुछ नहीं है। एसडीपी 41 को तुरंत बाय-बाय करना चाहिए। 

(2) सार्वजनिक घोषणा की जानी चाहिए कि राज्य में अवैध इमारतों (लगभग 17,000) का नियमितीकरण नहीं होगा। अतीत में सभी सरकारों ने अवैध निर्माण को नियमित किया है और हाल की बारिश में जो तबाही आई, उसका एक बड़ा कारण यह है। इसमें कई सरकारी निर्माण भी शामिल हैं जो ऐसे उल्लंघनों में आगे रहे हैं। यह रुकना चाहिए, और इस चुनावी प्रलोभन को हमेशा के लिए खत्म किया जाना चाहिए। 


(3) शिमला और मनाली में भीड़ कम करने और इन्हें कंक्रीट मुक्त करने की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए। शिमला, मनाली, धर्मशाला, मैक्लोडगंज, सोलन में सभी निर्माणों पर, यहां तक कि चल रहे निर्माणों पर भी रोक लगनी चाहिए। भवन निर्माण योजनाओं को जिस लापरवाही और मिलीभगत से पारित किया जाता है और उनके कार्यान्वयन की निगरानी नहीं की जाती, सभी निर्माण को संदिग्ध माना जाना चाहिए और किसी भी निर्माण को मंजूर करने से पहले कठोर समीक्षा और निरीक्षण किया जाना चाहिए: इसके लिए सबसे पहले तो सभी निर्माण गतिविधियों को रोकना जरूरी है। किसी भी नए निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इसके बाद ही मरम्मत के लिए अलग नीति बनाई जा सकेगी। यह कठोर उपाय किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है, लेकिन यह सार्वजनिक हित में है और बहुमत के अधिकारों की रक्षा करता है।

(4) शिमला और ऊपर उल्लिखित शहरों में किसी भी नए होटल, होम-स्टे, हॉली-डे होम और गेस्ट हाउस के पंजीकरण पर तत्काल रोक। उनके पास और अधिक पर्यटकों या वाहनों के लिए जरूरी बुनियादी क्षमता नहीं है। जिस ‘छोला भटूरा’ प्रकार के पर्यटन को हमने अब तक बढ़ावा दिया है, उसे अब राज्य के बाकी हिस्सों के पर्यावरण, आजीविका और अर्थव्यवस्था को नष्ट करने की अनुमति नहीं दे सकते। यह नहीं भूलना चाहिए कि यद्यपि पर्यटन राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग आठ फीसद का योगदान करता है, बाकी 92 फीसद को पर्यटन हितों के लिए लंबे समय से बंधक बनाकर रखा गया है। इस असंतुलन को ठीक करना होगा।

(5) पहाड़ों को और काटने और नदी में मलबा फेंके जाने से बचने के लिए किसी भी और चार-लेन राजमार्ग का निर्माण तुरंत रोका जाना चाहिए; यहां तक कि स्वीकृत परियोजनाओं को भी, और उन्हें दो लेन में बदला जाना चाहिए। हाल ही में टेंडर किए गए कैथलीघाट-ढल्ली 4-लेन प्रोजेक्ट को दो लेन राजमार्ग में बदला जाना चाहिए। हमें इस मुद्दे की जांच के लिए एनएचएआई की विशेषज्ञ समितियों की जरूरत नहीं है, इस 4-लेन के कारण कीरतपुर-मनाली, पठानकोट-मंडी और परवाणु-सोलन राजमार्गों के साथ के इलाकों में जो भारी विनाश हुआ है, वह सबके सामने है। हिमालय 35 और 45 मीटर चौड़ी सड़कें बनाने की जगह नहीं है: श्री गडकरी को मैदानी इलाकों को उजाड़कर गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में अपना नाम शुमार करने दें- पहाड़ इतने नाजुक हैं कि वे उनकी महत्वाकांक्षाओं का बोझ नहीं उठा पाएंगे।

(6) शिमला पर पर्यावरण और बुनियादी ढांचे के भार को कम करने की वैचारिक प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय की विशेषज्ञ समिति की प्रतीक्षा किए बिना, तुरंत शुरू होनी चाहिए। इसके लिए समय नहीं है, पहले से ही सक्षम विशेषज्ञों की पर्याप्त रिपोर्टें मौजूद हैं। बड़ी तादाद में ढही हुई इमारतें, खत्म हो चुकी पहाड़ियां, गिरे हुए पेड़ और मृत लोग हैं जिससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि शिमला एक दिन में 250,000 लोग, 100,000 कारों और 70,000 पर्यटकों का बोझ नहीं उठा सकता। 2035 तक शहर की जनसंख्या को कम-से-कम 25 फीसद कम करने के उपाय सुझाने के लिए मुख्य सचिव के नेतृत्व में एक समिति बनाई जानी चाहिए। इसे जाठियादेवी में सैटेलाइट टाउनशिप बनाने की हाल ही में घोषित योजना में शामिल किया जा सकता है। यह मनाली, सोलन, मंडी और धर्मशाला जैसे अन्य शहरों के लिए भी एक आदर्श टेम्पलेट बन सकता है।


(7) ब्यास घाटी नियामक और विकास प्राधिकरण बनाने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि इस तबाह घाटी, खास तौर पर पलचान से पंडोह तक, में कुछ प्रशासनिक सामंजस्य लाया जा सके। ब्यास घाटी (इसकी सहायक नदियां, पारबती, सैंज, जीवा नल और तीर्थन सहित) हिमाचल की अर्थव्यवस्था का एक बहु-क्षेत्रीय केन्द्र है जहां पर्यटन, साहसिक खेल, बागवानी, जल विद्युत, खनन संबंधित गतिविधियां होती हैं। यह लद्दाख और लाहौल-स्पीति के लिए एक रणनीतिक प्रवेश द्वार भी है। विभिन्न विभागों के कामकाज में तालमेल की कमी ने घाटी को बर्बाद कर दिया है। इस खूबसूरत घाटी को एक व्यापक विकास योजना की जरूरत है जो अर्थव्यवस्था का समर्थन करे और साथ ही इसके बेजोड़ प्राकृतिक पर्यावरण को संरक्षित करे, और एक एजेंसी हो जो नियामक के रूप में काम करे। विभिन्न विभागों वाली प्रशासनिक व्यवस्था के बिना यह संभव नहीं है क्योंकि वे अपने-अपने दायरे में काम कर रहे हैं। अपनी विविध जिम्मेदारियों को देखते हुए, उपायुक्त इस जिम्मेदारी को निभा नहीं सकते। 

मेरे विचार से निकट भविष्य में ये कदम उठाए जाने चाहिए और इनके अलावा मध्यम और दीर्घावधि में और भी बहुत कुछ करने की जरूरत होगी जैसे; शहरों में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकना; बिना किसी डर या पक्षपात के जल-धाराओं और पारंपरिक नालों पर हुए निर्माण को हटाना और यहां तक कि सरकारी इमारतों को भी हर नजरिये से सोच-विचार करके मंजूरी देना; नदियों को चैनलाइज करने के मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव की समीक्षा करना; नदियों के एचएफएल (उच्च बाढ़ स्तर) के नीचे किसी भी निर्माण पर प्रतिबंध लगाने का कानून; तेजी से बढ़ते होटलों और होम-स्टे पर लगाम लगाना; विभिन्न कस्बों और क्षेत्रों की वहन क्षमता का आकलन करना; नदियों और नालों में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना, नई जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाना, खास तौर पर लाहौल-स्पीति और पांगी जैसे भूवैज्ञानिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में… वगैरह।

मुख्यमंत्री सुक्खू के सामने ऐसी चुनौती है जिसका सामना उनसे पहले किसी भी मुख्यमंत्री को नहीं करना पड़ा। लेकिन यह उनके लिए यह दिखाने का भी मौका है कि उनके पास समाधान का हिस्सा बनने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है। दांव पर उनका करियर नहीं, बल्कि उनके राज्य का अस्तित्व है।

(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं। यह उनके ब्लॉग avayshukla.blogspot.com से लिए गए लेख का संपादित रूप है।)

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