भारत डोगरा का लेख: यह वक्त मेवात में सद्भावना और एकता की परंपरा याद रखने का है
मेवात के विख्यात सूफी-संतों जैसे लाल दास, चरण दास, सहजो बाई, अल्लाह बख्श, शाह चोखा आदि ने जिस नैतिकता और भाई चारे का संदेश दिया उससे हिंदू-मुसलमान दोनों आकर्षित हुए।
हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में फैले हुए मेवात क्षेत्र का केंद्र गुड़गांव जिले में माना जाता है। मिली-जुली आबादी का यह क्षेत्र सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील माना जाता है और यह देश की राजधानी दिल्ली के पास स्थित है। इस संदर्भ में यहां कौमी एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का विशेष महत्त्व है। हाल ही में जो दुर्भाग्यपूर्ण वारदातें हुई हैं, इस कारण तो यह और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है।
इस क्षेत्र में विभिन्न धर्मों की एकता की समृद्ध परंपरा रही है। एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘मेवात-फोकलोर, मेमोरी, हिस्ट्री’ में हतिहासकार डा. जी.डी. गुलाटी ने इतिहास और किवंदतियों के माध्यम से यह बताया है कि इस क्षेत्र में सांप्रदायिक सद्भावना की समृद्ध पंरपराएं रही हैं। हालांकि इस पुस्तक में संकलित अनुसंधान पत्र मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए हैं, पर इसमें विभिन्न कहावतों के उद्धरण स्थानीय भाषा में ही दिए गए हैं तथा साथ ही अनेक हिंदी और उर्दू के दस्तावेजों का भी खुलकर उपयोग किया गया है जिससे इसकी उपयोगिता और बढ़ गई है।
मेवात के विख्यात सूफी-संतों जैसे लाल दास, चरण दास, सहजो बाई, अल्लाह बख्श, शाह चोखा आदि ने जिस नैतिकता और भाई चारे का संदेश दिया उससे हिंदू-मुसलमान दोनों आकर्षित हुए और आज भी ऐसे कुछ सूफी-संतों की समाधियों और उनसे जुड़े मेलों और उत्सवों में सभी धर्मों के लोग उपस्थित होते हैं।
संत लालदास बचपन में जंगल से सूखी लकड़ियां एकत्र कर अलवर शहर में बेचते थे। गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी वे दूसरों का दुख-दर्द कम करने में विशेष रुचि लेते थे। 50 वर्ष की आयु के बाद तो उन्होंने अपना पूरा जीवन दीन-दुखियों की सेवा में लगा दिया और यह कार्य बिना किसी जाति, धर्म के भेदभाव के किया। 108 वर्ष की आयु तक के अपने जीवन में उन्होंने बड़ी संख्या में हिंदु, मुस्लिम श्रद्धालुओं को आकर्षित किया जिन्हें प्रायः लालदासी भी कहा गया। वर्ष 1648 ई. में उनका देहांत शेरपुर गांव में हुआ जहां आज भी उनकी समाधि है। उनकी याद में लगने वाले मेलों में प्रायः ‘लालदास की रोट’ (बड़ी रोटी) बताई जाती है जिसे प्रसाद के रूप में बड़ी श्रद्धा से ग्रहण किया जाता है। कर्मठ जीवन का संदेश देने वाली संत लाल दास की शिक्षा बहुत सरल स्थानीय भाषा में कही गई है।
संत लाल दास ने हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश स्पष्ट रूप से दिया। उन्होंने कहा, “हिंदू तुरक को एकहि साहब राह बणाई दोय अजायब।’ सभी तरह के भेदभाव को समाप्त करने का संदेश देते हुए उन्होंने कहा - ‘भेदभाव नहीं तनिक सभी को अपना जाते’। सभी तरह का नशा दूर करने में भी लालदास और उनके अनुयायियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
संत चरणदास ने वर्ष 1703 में दिल्ली में एक सिलसिले की स्थापना की। कहा जाता है कि मुगल बादशाह मुहम्मदशाह उनके दर्शन के लिए जाते थे। चरणदास की प्रतिष्ठा एक गहरी आध्यात्मिकता के व्यक्ति के साथ एक समाज सुधारक और कवि के रूप में भी थी।
चुढ़ सिद्ध मेवात के एक अन्य विख्यात संत थे जिनकी अलवर के पास समाधि में उर्स मनाने और यहां के तालाब में स्नान के लिए हिंदू मुसलमान आज भी समान श्रद्धा भाव से एकत्र होते हैं। सिद्ध पहले गाय चराने का कार्य करते थे पर साथ ही ध्यान करते थे और बाद में पूरी तरह आध्यात्मिक प्रवृत्तियों से जुड़ गए। उनके ध्यान चिंतन पर नाराज होने वाले पशुओं के मालिक को उन्होंने कहा, ‘यह ले तेरी लाठी लूगड़ी यह ले तेरी गाय’। यह कहकर गाय और लाठी मालिक को सौंप दी और स्वंय आध्यात्मिकता का मार्ग पूरी तरह अपना लिया।
मेवात में कौमी एकता का दूसरा पक्ष यह है कि यहां बाहरी हमलावरों का सामना करने के लिए हिंदु मुसलमान एकता की अच्छी मिसाल कई बार सामने आती है। खनुआ के युद्ध में राणा सांगा का साथ हसन खां मेवाती और उनके सैनिकों ने बहुत बहादुरी से दिया। राणा सांगा की ओर से लड़ते हुए हसन खां मेवाती ने अपना जीवन बलिदान कर दिया। इसका वर्णन लोकगीतों में आज तक होता है। वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में यहां सभी समुदायों के लोग अंग्रेज शासकों के विरुद्ध बहुत बहादुरी से लड़े। डा. गुलाटी ने अपने अनुसंधान के आधार पर बताया है कि स्वतंत्रता सेनानियों का मेवात में बहुत उत्साह से स्वागत किया गया और उन सबने मिलकर ब्रिटिश शासकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती प्रस्तुत की।
इसके बाद कुछ अन्य सफलताएं भी इन गांववासी स्वतंत्रता सेनानियों को मिली पर बाद में जैसा कि राष्ट्रीय स्तर पर हुआ उन्हें क्रूरता से कुचल दिया गया। इस स्वतंत्रता समर में शहीद हुए लोगों की सूची से भी पता चलता है कि विभिन्न समुदायों ने आपसी एकता से इस आजादी की लड़ाई में भाग लिया था।
इस साहस और वीरता के कारण ही बाद में अंग्रेज राज के दिनों में उनसे अन्याय हुआ और अंग्रेज इतिहासकारों ने विद्रोहियों को डकैतों या लुटेरों की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया। इस संबंध में विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद डा. जी.डी. गुलाटी ने लिखा है - “न जाने कितने मेवातियों ने अन्य राजाओं, जागीरदारों की सेना में रहकर अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी और अपनी जानें कुर्बान की। सबसे बड़ी बदकिस्मती यह है कि अंग्रेज इतिहासकार और यहां तक हमारे खुद के भारतीय इतिहासकार मेवातियों को डाकू और लुटेरे का नाम देते हैं। जेलों में बंद मेवाती क्या डाकू-लुटेरे थे? नहीं! वे सभी तो ज़मीन से जुड़े हुए हमारे किसान भाई थे, आम नागरिक थे, नौकरीपेशा लोग थे।
“सन सत्तावन की बगावत में हजारों मेवातियों ने अपनी जान दी। अंग्रेजों के उन्हें तोपों से उड़ाया, पेड़ों पर लटका कर फांसी दी, कईयों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। परंतु ये आजादी के दीवाने पीछे नहीं हटे। कई मेवातियों ने तो अंग्रेजों को इनकी तारीफ करने पर मजबूर कर दिया। जैसे झज्जर के अब्दुस्समद को अंग्रेजों की बीसीओं गोलियां लगीं पर वह हार नहीं माना और आखिरकार शहीद हुआ। मेवात के दो गांवों रायसीना और दोहा के मेवों ने कमाल कर दिया। अंग्रेजों के खिलाफ मरते दम तक जंग जारी रखी।”
इस क्षेत्र में हिंदू मुस्लिम एकता की परंपरा साझी संस्कृति के रूप में प्रकट होती है। डा. गुलाटी ने अपने अनुसंधान के दौरान देखा कि अनेक मुस्लिम मेव परिवार भी महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्य से पहले ‘भैरो जी का चबूतरा’ स्थापित करते हैं। उन्होंने देखा कि वे अनेक स्थानों पर दशहरा, दीवाली और होली जैसे त्यौहार भी मनाते हैं। यह सद्भावना अन्य स्तरों पर भी देखी जाती है।
इस साझी संस्कृति के बावजूद कट्टरवादी और सांप्रदायिक तत्त्व विभिन्न समुदायों में हावी होते हैं तो सांप्रदायिक हिंसा भड़कने का खतरा बना रहता है जैसा कि देश के विभाजन के समय मेवात में भी हुआ था और बाद में कुछ अन्य तनाव भी उत्पन्न हुए। इन तनावों को सुलझाने के प्रयासों का जिक्र भी डा. गुलाटी ने अपने अनुसंधान में किया है। इस तरह के अनुसंधान और लेखन से संवेदनशील क्षेत्रों में सद्भावना और एकता की परंपराओं को बनाए रखने और मजबूत करने में सहायता मिलती है। मौजूदा दौर में इन परंपराओं और इतिहास के बारे में जानकारी अधिक लोगों तक पहुंचाना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
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