‘उखाड़ फेंकेगी जनता’ : गुलाब कोठारी का ‘राजस्थान पत्रिका’ के पहले पन्ने पर प्रकाशित संपादकीय
विपक्ष के विरोध के बीच राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने अापराधिक कानून में संशोधन से संबंधित अध्यादेश विधानसभा में पेश कर दिया। इस अध्यादेश को मीडिया की आजादी पर हमला माना जा रहा है।
विपक्ष के विरोध के बीच राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने अापराधिक कानून में संशोधन से संबंधित अध्यादेश विधानसभा में पेश कर दिया। इस अध्यादेश को मीडिया की आजादी पर हमला माना जा रहा है। इसी को लेकर राजस्थान पत्रिका के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने अपने अखबार के पहले पन्ने पर 22 अक्टूबर को एक कड़ा संपादकीय लिखा था। हम उसे यहां साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। - नवजीवन
राजस्थान विधानसभा का सत्र कल से शुरू होने वाला है। यूं तो लोकाचार निभाने जैसा संक्षिप्त ही होने की संभावना है। इस सत्र में वैसे तो विधायकों ने लगभग 1200 प्रश्न लगा रखे हैं, किन्तु लोकतंत्र की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा सरकार द्वारा इस्तगासा दायर करने को लेकर सी.आर.पी.सी. में किया गया संशोधन। इस संशोधन से आई.पी.सी. की धारा 228 में 228 बी जोडक़र प्रावधान किया गया है कि सीआरपीसी की धारा 156(3) और धारा 190 (1)(सी) के विपरीत कार्य किया गया तो दो साल कारावास एवं जुर्माने की सजा दी जा सकती है। न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट व लोक सेवक के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति मिलने से पहले उनका नाम एवं अन्य जानकारी का प्रकाशन, प्रसारण नहीं हो सकेगा।
वैसे न्यायपालिका पर उच्च न्यायालय की पूर्व स्वीकृति पहले भी आवश्यक है। लोकसेवकों को इनकी आड़ में जोडऩे के लिए इनका हवाला दे दिया। सही बात तो यह है कि सरकार ये मंशा स्पष्ट कर रही है कि उसे आज भी लोकतंत्र में कतई विश्वास नहीं है। उसे तो सामन्ती युग की पूर्ण स्वच्छन्दता ही चाहिए। दुर्योधन का राज्यकाल चाहिए। भ्रष्ट कार्य प्रणाली की वर्तमान छूट भी चाहिए और भावी सरकारों से सुरक्षा की गारण्टी भी चाहिए। क्या बात है! याद करिए जब मुख्यमंत्री ने विधानसभा में ही कहा था कि ‘हम हौसलों की उड़ान भरते हैं।’ क्या हौसला दिखाया है!
सात करोड़ प्रदेशवासियों ने जिस सम्मान से सिर पर बिठाया था, उसे ठेंगा दिखा दिया। यहां तक कि बार-बार विधि विभाग के असहमति प्रकट करने को सिरे से नकार ही नहीं दिया, बल्कि विधि विभाग को अपने हाथ में ले लिया। अब कौन रोक सकता था इस अनैतिक आक्रमण को? अनैतिक इसलिए कह रहा हूं कि यह संशोधन असंवैधानिक है। उच्चतम न्यायालय के सन २०१२ के फैसले के खिलाफ है, जो सुब्रह्मण्यम स्वामी के मामले में दिया गया था।
सरकार और सभी 200 विधायक अगले विधानसभा चुनाव की देहरी पर खड़े हैं। राजस्थान की जनता का पिछले चार साल का काल काले भ्रष्टाचार की खेती को पनपते देखते गुजरा है। आम आदमी एक ओर नोटबन्दी और जीएसटी से त्रस्त है। दूसरी ओर राज्य की खोटी नीयत की मार पड़ रही है। ऐसे में यह संशोधन यदि पास हो जाता है, तो निश्चित है कि जनता अगले चुनाव में सरकार को दोनों हाथों से उखाड़ फेंकेगी।
महाराष्ट्र सरकार ने भी ऐसा ही कानून दो वर्ष पहले लागू किया है। वहां अभियोजन स्वीकृति के लिए सरकार को केवल तीन माह का समय दिया गया है, तथा सजा का प्रावधान भी नहीं है। फैसले को लागू करने की जो जल्दबाजी सरकार ने दिखाई वह भी आश्चर्यजनक है। आनन-फानन में राष्ट्रपति से स्वीकृति लेना, राज्यपाल द्वारा अध्यादेश को स्वीकृत करना और इस विधानसभा सत्र की प्रतीक्षा न करना सब प्रश्नों के घेरे में आ जाते हैं! क्या उसी तर्ज पर विधानसभा भी इसे पारित कर देगी?
सरकार और सभी 200 विधायक अगले विधानसभा चुनाव की देहरी पर खड़े हैं। राजस्थान की जनता का पिछले चार साल का काल काले भ्रष्टाचार की खेती को पनपते देखते गुजरा है। आम आदमी एक ओर नोटबन्दी और जीएसटी से त्रस्त है। दूसरी ओर राज्य की खोटी नीयत की मार पड़ रही है। ऐसे में यह संशोधन यदि पास हो जाता है, तो निश्चित है कि जनता अगले चुनाव में सरकार को दोनों हाथों से उखाड़ फेंकेगी। भले ही सामने विपक्ष कमजोर हो। लोकतंत्र स्वयं मार्ग निकाल लेगा। अपराध, भ्रष्टाचार, अराजकता को प्रतिष्ठित करने के लिए भाजपा को नहीं चुना था। कांग्रेस बिलों से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं है।
सरकार को रीढ़विहीन कहना गलत नहीं होगा क्योंकि सरकार भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने के बजाए उनको बचाने के लिए कानून बना रही है। क्या करोड़ों मतदाताओं का दिया अधिकार धूल हो गया?अथवा सरकार की स्वार्थपूर्ति के लिए ही लोकसेवक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं?
विधायकों को अपने साथ-साथ प्रदेश के भविष्य का भी ध्यान रखना चाहिए। धन तो जड़ पदार्थ है। उसके लिए करोड़ों चैतन्य आत्माओं की आस्था से खिलवाड़ कहीं ऐसा कुछ न कर दे जिसकी आपको आज कल्पना ही नहीं। फिर आपको भविष्य में भी राजनीति करनी है तो संतुलित विवेक का प्रदर्शन करना चाहिए। लोकतंत्र को ध्वस्त करने वाला संशोधन पास नहीं होना चाहिए। नहीं तो आप भी जनता की अदालत में पास नहीं होंगे।
सरकार केवल भ्रष्ट विधायकों और लोकसेवकों की सुरक्षा के लिए काम कर रही है। उन्हें अपराध की खुली छूट दे रही है। इसका कारण पूर्ण बहुमत ही है। इसी शक्ति के अहंकार के बूते पर संविधान के 91वें संशोधन के तहत लाभ के पद के दायरे में आने वाले विधायकों को हटाने के विरुद्ध भी कानून आ रहा है। भले ही राष्ट्रपति ने दिल्ली सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था, भले ही चुनाव आयोग ने हरी झण्डी न दी हो, भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकृति न दी हो, भले ही देश के छह उच्च न्यायालायों ने संविधान के 91वें संशोधन से छेड़छाड़ के लिए मना कर दिया हो। इसमें एक उल्लेखनीय पहलू यह भी है कि सन 2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी ऐसा ही एक संशोधन (संसदीय सचिवों को लेकर) राज्यसभा में पेश किया था। भाजपा के घोर विरोध के कारण तब यह संशोधन पास नहीं हुआ और अभी तक लम्बित है।
राज्य सरकार इस कानून को भी आप सभी 200 विधायकों के हाथों ही पास करवाने वाली है। विचार तो आपको भी गंभीरता से करना ही चाहिए कि क्या कोई राज्य सरकार न्यायालय को आदेश दे सकती है कि उसे किस मामले में सुनवाई करनी चाहिए और कब नहीं करनी चाहिए? क्या पुलिस जांच के बाद भी सुनवाई करने के लिए न्यायालय को सरकार से स्वीकृति लेनी जरूरी होना चाहिए? क्या एसीबी या अन्य जांच एजेंसियों द्वारा पकड़े गए आरोपियों के नाम प्रकाशित नहीं करना ही संविधान की धारा 19(1) में प्रदत्त ‘स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति’ का मन्तव्य रह जाएगा? तब क्या जरूरत है मतदान की, चुनाव की, संविधान की! सरकार ने भी परोक्ष रूप से घोषणा कर ही दी है कि उसको भी जनहित और जनतंत्र में विश्वास नहीं है। एक बड़ा प्रश्न यह भी उठता है कि क्या महाराष्ट्र और राजस्थान में उठाए गए इन कदमों को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की स्वीकृति भी प्राप्त है।
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