गुजरात चुनावः मोदी का विकास मॉडल किसी जाति के काम नहीं आया, केवल अमीर-गरीब की खाई और चौड़ी हुई
लगता है बीजेपी आपदा को अवसर में बदलने के अपने सूत्र वाक्य पर गंभीरता से अमल कर रही है! जाति आधारित आरक्षण को लेकर अगड़ी जातियों के रोष को खत्म करने और उलटा इसे अपने पक्ष में करने की योजना पर ही बीजेपी ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण की बुनियाद खड़ी की है।
सुप्रीम कोर्ट का 103वें संविधान संशोधन को वैध ठहराने का फैसला ऐसे समय आया है जब गुजरात में विधानसभा के चुनाव होने हैं। हैरानी की बात है कि गुजरात और केन्द्र की बीजेपी सरकारों ने आरक्षण मांग रहे जिस पाटीदार आंदोलन का पुरजोर तरीके से विरोध किया था, वही अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) लोगों को अलग से कोटा देने का आधार बना। इस फैसले के दूरगामी परिणाम होने जा रहे हैं क्योंकि इसके तमाम पहलू हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समीकरणों को नया आयाम देने जा रहे हैं। पहली बार निजी क्षेत्र को भी आरक्षण के दायरे में लाया गया, आरक्षण के लिए तय 50 फीसद की सीमारेखा को लांघा गया और ईडब्ल्यूएस कोटे के लिए 8 लाख सालाना आय की सीमा तय की गई।
लगता है, बीजेपी आपदा को अवसर में बदलने के अपने सूत्र वाक्य पर गंभीरता से अमल कर रही है! जाति आधारित आरक्षण को लेकर अगड़ी जातियों के रोष को खत्म करने और उलटा इसे अपने पक्ष में करने की योजना पर बीजेपी ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण की बुनियाद खड़ी की। वैसे भी, गुजरात के मामले में वह एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखती है और जिस तरह गुजरात को पूरे देश के सामने एक मॉडल की तरह पेश किया जाता है और वहां एक भी विधानसभा सीट से किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया गया, उससे बीजेपी ने हिन्दू और अगड़ी जाति समर्थक पार्टी के रूप में अपनी छवि को मजबूत ही किया है।
ईडब्ल्यूएस कोटे ने निश्चित ही आरक्षण के आधार को हिला दिया है और इसने जाति-आधारित आरक्षण व्यवस्था के बरक्स आर्थिक मानदंडों आधारित आरक्षण व्यवस्था को खड़ा कर दिया है। यहां यह सवाल उठता है कि क्या नीति निर्माताओं के पास इतने आधारभूत बदलाव को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त विश्लेषण है? ईडब्ल्यूएस की पात्रता के लिए संसद कैसे इस नतीजे पर पहुंची कि इसकी सीमा 8 लाख रुपये सालाना की आय होनी चाहिए?
दिलचस्प बात है कि सिन्हो आयोग की रिपोर्ट में साफ उल्लेख है कि ईडब्ल्यूएस पात्रता के बारे में गुणों पर निर्णय लेने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया जानने को उसने विस्तृत प्रश्नावली तैयार की थी जिस पर राज्यों से बहुत कम सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली और उसके बाद जब आयोग ने प्रश्नों को सरल करते हुए भेजा, तब भी राज्यों की प्रतिक्रिया बेहतर नहीं हुई।
ऊपर की बातों के संदर्भ में और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लाभार्थियों के लिए पात्रता मानदंड 2.5 लाख रुपये निर्धारित है। गुजरात में तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए इसे ध्यान में रखा जाता है, जबकि अगड़ी जातियों में ईडब्ल्यूएस के लिए पात्रता 8 लाख रुपये सालाना है। साफ है कि संविधान का 103वां संशोधन केवल सवर्ण जातियों को खुश करने का एक लोकलुभावन उपाय है। भारत में शायद ही कोई समुदाय जातिविहीन हो, ऐसे में आर्थिक मानदंड वाला यह आरक्षण तमाम विरोधाभासों को जन्म देता है।
पाटीदार आंदोलन में आगे रहने वाले नेताओं को बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में टिकट देकर संतुष्ट कर दिया है। गुजरात मॉडल का ताज यह ‘पाटीदार शक्ति’ ही है। पाटीदार समुदाय को पूरा हक है कि अपनी आबादी के अनुपात में विधानसभा सीटों की मांग करें लेकिन उन्होंने तो दोगुने से ज्यादा सीटें कब्जा रखी हैं। वैसे, पाटीदार आंदोलन और ईडब्ल्यूएस आरक्षण ने साबित कर दिया कि गुजरात में अगड़ी जातियां भी विकास मॉडल से लाभ नहीं उठा सकी हैं। इसने यह भी बताया कि गुजरात में विकास गरीबों के काम नहीं आया। कथित विकास मॉडल ने केवल अमीर और गरीब के बीच की खाई को बढ़ाने का काम किया।
इस बात पर गौर करना जरूरी है कि ऐतिहासिक रूप से अपनी जातीय स्थिति का फायदा उठाने वाली अगड़ी जातियों ने विकास के बहुप्रचारित गुजरात मॉडल को सीधे चुनौती दी है। इस संदर्भ में पहली बात यह है कि ईडब्ल्यूएस को आरक्षण के लिए आगे बढाकर सत्तारूढ़ बीजेपी और सरकार ने एक तरह से मान लिया कि गुजरात मॉडल ने अगड़ी जातियों के लिए भी विकास नहीं किया है। दूसरी बात, अगर गुजरात में विकास हो भी रहा है तो वह निश्चित तौर पर गरीबों के लिए तो नहीं ही है। तीसरी, तथाकथित विकास मॉडल ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को बढ़ाने का ही काम किया है। चौथी, भारत में गरीबों के दिलो-दिमाग पर यह बात पत्थर की इबारत की तरह छाप दी गई कि उनकी जाति कुछ भी क्यों न हो, उनके विकास का सबसे पक्का तरीका आरक्षण ही है।
यूपीए-I और II की सरकारें जाति-आधारित आरक्षण को निजी क्षेत्र तक पहुंचाने के अपने वादे को पूरा करने में पूरी तरह नाकामयाब रहीं। एनडीए ने इसे आसानी से कर दिया, हालांकि यह उच्च शिक्षण संस्थानों तक ही सीमित है। वैसे, क्या यह सच नहीं है कि भारत में उच्च शिक्षा के निजी स्वामित्व वाले संस्थान एससी, एसटी और ओबीसी के स्वामित्व के नहीं हैं? अगड़ी जातियां जिनका देश के सार्वजनिक और निजी जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व जनसंख्या के अनुपात की तुलना में पहले से ही अधिक रहा है, अब संवैधानिक तौर पर भी इस अतिरिक्त प्रतिनिधित्व को मान्य कर दिया गया है।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण में सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती भी शामिल है। पात्रता मानदंड आय आधारित है, न कि धन या संपत्ति आधारित। स्वाभाविक है कि एक व्यक्ति या सामाजिक समूह (जाति) जिसकी आय अधिक है, उसके पास उच्च संपत्ति का आधार भी होना तय है। आम तौर पर आरक्षण के विरोधी इस बात को मुद्दा बनाते हैं कि जाति-आधारित आरक्षण का लाभ क्रीमी लेयर उठा ले जा रहा है लेकिन यह बात बड़ी आसानी से भुला दी जाती है कि एससी, एसटी और ओबीसी के भीतर कुछ लोगों को ‘क्रीमी लेयर' की तथाकथित स्थिति तक पहुंचने में कई पीढ़ियां लग गईं। ईडब्ल्यूएस लाभार्थियों के लिए पात्रता ने अगड़ी जातियों के भीतर ‘क्रीमी लेयर' पर बहस को अप्रासंगिक बना दिया है।
एक ओर तो शीर्ष अदालत का मानना है कि जाति-आधारित आरक्षण खत्म होना चाहिए, दूसरी ओर उसे ऐसा भी लगता है कि एससी-एसटी-ओबीसी से तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक आय वाली अगड़ी जातियों के एक वर्ग को आरक्षण की जरूरत है।
103वें संविधान संशोधन को बरकरार रखने के सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ के फैसले ने इस असहज वास्तविकता को भी सामने ला दिया है कि इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच ‘विरोधाभासी विवेक’ की स्थिति आ सकती है कि क्या ‘असंवैधानिक’ है और क्या संविधान के ‘मूल ढांचे के खिलाफ’! संशोधन को बरकरार रखने वाले तीन जजों में से दो सुप्रीम पदोन्नति के बाद सुप्रीम कोर्ट आने से पहले गुजरात हाईकोर्ट में जज थे। संविधान पीठ में एससी, एसटी या ओबीसी का कोई सदस्य नहीं था।
समाज के एक वर्ग का मानना है कि हमारे समाज में जाति अब मायने नहीं रखती। लेकिन तथ्य इसे गलत बताते हैं। छुआछूत पर नवसर्जन ट्रस्ट का 2010 का सर्वेक्षण बताता है कि हिन्दू होने के बावजूद 90.1 प्रतिशत गांवों में दलित मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते हैं और गांवों के 54 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील के लिए दलित अलग कतार में लगते हैं। एनसीआरबी का ताजा डेटा कहता है कि राजस्थान पहली बार एससी और एसटी- दोनों पर अत्याचार के मामले में दूसरे स्थान पर आया है। तमाम अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि आजाद भारतीय समाज में भेदभावपूर्ण जातिगत व्यवस्था मजबूत ही हुई है और हैरानी की बात है कि महानगरीय शहरी क्षेत्र भी इस मामले में अपवाद नहीं हैं।
भारत में जाति-आधारित आरक्षण का एक लंबा इतिहास है। इस बात को साबित करने का पर्याप्त वैज्ञानिक डेटा है कि संविधान के मूल सिद्धांत, यानी सभी नागरिक ‘समान’ हों और सबको समान अवसर मिले, को सुनिश्चित करने के लिए इस तरह का आरक्षण जरूरी था। जाति व्यवस्था, खास तौर पर छुआछूत से पैदा होने वाली सामाजिक ‘अक्षमता’ ने न सिर्फ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कम प्रतिनिधित्व और इसकी वजह से असमानता की जमीन तैयार की बल्कि इसे कायम रखने के लिए आधार भी बनाया।
ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण कठोर मानदंडों की प्रक्रिया को पूरा करने के बाद निर्धारित किया जाता है। क्या सामान्य जातियों के लिए ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए भी उतने ही कठोर मानदंड और वैज्ञानिक डेटा रहा है? कई राज्य स्थानीय समुदायों के लिए बढ़े हुए कोटा की मांग कर रहे हैं लेकिन उनकी याचिकाओं को पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर बार-बार ठुकरा दिया था कि 50% की सीमा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
निजी क्षेत्र के लिए केवल ईडब्ल्यूएस कोटे को ही हरी झंडी क्यों दिखाई गई और इसके लिए 50% की सीमा में ढील देना भी कम दिलचस्प नहीं। कोई-न-कोई ऐसी व्यवस्था की कोशिश तो की जानी चाहिए थी कि अनारक्षित वर्ग-जाति का प्रतिनिधित्व 50 फीसद से ज्यादा न हो जैसा कि कोल्हापुर के प्रगतिशील राजा साहू महाराज ने आजादी से पहले किया था। होना तो यह भी चाहिए था कि अछूत मानी जाने वाली जातियों से धर्म परिवर्तित कर ईसाई और मुसलमान बने लोगों को भी आरक्षण की सुविधा मिलती।
भारतीय संसद ने विभिन्न राज्यों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समूहों के लिए विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र की भर्ती में आरक्षण नीति के गैर-कार्यान्वयन के बारे में बहुत कम या कोई बहस नहीं देखी है। इसने स्वतंत्रता के बाद के क्रांतिकारी भूमि सुधार कानूनों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में लागू न करने पर बहुत कम बहस देखी है (पूर्व सौराष्ट्र राज्य में, पाटीदार समुदाय के पक्ष में भूमि सुधारों का कार्यान्वयन पूरा हो गया था)। यह उत्पादन के साधनों के पुनर्वितरण और इस प्रकार संरचनात्मक आर्थिक असमानता को कम करने के उद्देश्य से एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम माना जाता था।
1981,1985 और 1989 में जब देशभर में आरक्षण के खिलाफ हिंसक दंगे हुए, गुजरात भी पीछे नहीं रहा। जाति आधारित आरक्षण और एससी-एसटी के खिलाफ अत्याचारों को रोकने के लिए आए कानून पर दूसरे राज्यों की तरह गुजरात में भी तमाम सेमिनार और गोष्ठियां हुईं। लेकिन ईडब्ल्यूएस कोटे के मामले में चारों ओर अजीब तरह का सन्नाटा है।
आज देश के सामने बड़ा सवाल हैः क्या भारत कभी जाति और छुआछूत से मुक्त राष्ट्र बन पाएगा? या फिर डॉ. आंबेडकर का जातिविहीन समाज का सपना अब राजनीतिक विमर्श में नारे की शक्ल में भी जगह बनाने के काबिल नहीं रहा?
(लेखक मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले जमीनी स्तर के दलित संगठन नवसर्जन के संस्थापक हैं)
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