मृणाल पाण्डे का लेख: महामहिम और उनका ‘स्वविवेक’
फिलहाल कर्नाटक चुनावों का असली जनादेश तय कराने का मामला अदालत में है, पर महामहिम की कृपा से कुल 104 विधायकों वाले येद्दी जी का राजतिलक हो चुका है, और वे वादा कर रहे हैं कि दी गई मीयाद के भीतर वे अपने विधायकों की तादाद निर्दिष्ट संख्या तक पहुंचा देंगे। किस तरह?
हमारे यहां प्यास लगने पर ही कुआं खोदने की पुरानी परंपरा है। लिहाज़ा भारत के राज्यपालों को कितने अधिकार हैं, इसकी व्याख्या तभी की जाती है जबकि वे कुछ करने की ठान लें। झगड़ा ‘अ’, ‘आ’ से शुरू होता है। राज्यपाल की नियुक्ति किस तरह हुई है? क्या इसमें मुख्यमंत्री की सहमति शामिल थी? संविधान में तो लिखा है कि राष्ट्रपति के ‘प्रसाद पर्यंत’ ही महामहिम गद्दी पर रह सकते हैं। उस प्रसाद के दायरे में क्या मुख्यमंत्री भी शामिल हैं?
करीब आधी सदी पहले (मार्च 1967 में) महामहिम संपूर्णानंद के सामने भी कमोबेश यही सवाल उठा, बहुमत पक्ष का नेता किसे मानें, मुख्यमंत्री बनने का न्योता किसे दें? यहां पता चला कि हर राज्यपाल की एक बुनियादी दुविधा यह होती है कि वह एक तरफ तो राज्य सरकार को आपे में रखने के लिये केंद्र का एजेंट होता है, लेकिन दूसरी तरफ ज़मीनी तौर पर उसका काम बहुत से बहुत राष्ट्रपति की तरह फीते काटने और निर्वाचित सरकार की नीतियों का अक्स बने रहने तक ही सीमित होता है। पर यहां एक अतिरिक्त रोल भी खोल कर रखा गया, कि संविधान की धारा 163 गवर्नर को कांटे की घड़ी में (जैसी कि इस वक्त है) अपने ‘स्वविवेक’ से मामला हल करने को अधिकृत करती है। उस समय भी जानकारों को याद होगा कि यह सवाल बहुत योग्यता से हल नहीं हुआ था। बाद में बंगाल में भी तब भारी हंगामा मचा था जब तत्कालीन गवर्नर धर्मवीर ने फ्लोर पर बासु बाबू की सरकार का शक्ति परीक्षण कराने को विधानसभा सत्र बुलाने का प्रस्ताव रखा। बासु जीते और मामला ठंडा गया। पर उधर बिहार में बीपी मंडल और उनके साथियों ने गवर्नर से कहा कि वे जल्द विधानसभा बुलवाएं ताकि महामाया बाबू के मंत्रिमंडल को उखाड़ा जा सके। कुल मिला कर इस तरह की उखाड़-पछाड़, धनबल-भुजबल का हुक्का राज्यों में हरदम ताज़ा रहा है और भारतीय राजनीति का मिजाज़ देखते हुए रहेगा भी, जब तक इस बाबत (बोम्माई मामले की तरह) ताज़ा नीति निर्देशक सिद्धांत न बनाये जायें जो राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने के हक को तर्कसंगत दायरे में बांधते हैं।
मीडिया में हज़ार खामियां हैं, लेकिन आज जब कैबिनेट में कोई मुंह नहीं खोलता, सत्तारूढ़ दल की बैठकों में खुली बहस नहीं होती, संसद की कार्रवाई बार-बार ठप्प हो रहती है, और निजी खदानों, शिक्षा संस्थानों के वैभवशाली मालिक पक्ष-प्रतिपक्ष के नेता बिसलेरी का पानी पीते हुए पर्यावरण संकट और शिक्षा स्वास्थ्य के क्षरण पर चिंता जताते हैं, तब मीडिया ही एक ऐसा मंच है जहां तर्क की शीतल रोशनी और गर्मागर्म घोटालों के स्टिंग एक साथ हर जन को मिल सकते हैं। एक हद तक न्यायपालिका भी यह काम कर सकती थी, लेकिन फिलहाल वह खुद अपने भीतरी अंतर्विरोधों से इस कदर घिरी हुई है कि वहां की हर चीज़ को उसी के लोग व्यक्तिपरक और संदिग्ध कह रहे हैं। इसलिये मीडिया ज़रूरी है। सारी जनता का हृदय यदि शासक दल के साथ हो तो बिना मीडिया के भी वह राजकाज चला सकता है, लेकिन अगर जनता का दिल खट्टा हो चुका हो तो मीडिया के किसी न किसी मंच से जनाक्रोश फूटने को कोई नहीं रोक सकता।
फिलहाल कर्नाटक चुनावों का असली जनादेश तय कराने का मामला अदालत में है, पर महामहिम की कृपा से कुल 104 विधायकों वाले येद्दी जी का राजतिलक हो चुका है, और वे वादा कर रहे हैं कि दी गई मीयाद के भीतर वे अपने विधायकों की तादाद निर्दिष्ट संख्या तक पहुंचा देंगे। किस तरह? यह सवाल कोई अब नहीं पूछता। 117 विधायकों के दस्तखत वाला दावा महामहिम को दे चुके गठजोड़ को अगर इस विवाद के बीच तमाम लोकतांत्रिक संस्थान ढीले दिख रहे हैं तो वजह यह है कि फिलवक्त व्यवस्था के उन कलपुर्ज़ों को ढीलेपन में ही अपनी सुरक्षा नज़र आती है। कुल्हाड़ी की बेंट और लोहे के अग्रभाग के बीच अगर सौम्य मैत्री करार बन चुका हो, तो उस कुल्हाड़ी को अपने या किसी के भी पैर में मारने की बेवकूफी कौन मूढ़मति करेगा?
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