आकार पटेल का लेख: सरकारों को और अधिक 'पॉवर' की भूख, रौंदे जा रहे हैं आम लोगों के अधिकार
एक औपनिवेशिक भारत में जब अंग्रेज ऐसे ही कानून लिख रहे थे या बना रहे थे तो पूरा भारत उनका विरोध कर रहा ता, लेकिन आज लोकतांत्रिक भारत में सरकार ऐसे ही कानून लिख रही है और बना रही है, और उनका असर भी लोगों पर वैसा ही है जैसा अंग्रेजों के समय में था।
आपराधिक न्यायिक प्रणाली को इस तरह जानबूझकर बनाया गया है ताकि आरोपियों के अधिकारों की पक्षा हो सके, लेकिन इसे इस तरह नहीं देखा जाता, खासतौर से हमारे यहां। हालांकि इस न्यायिक व्यवस्था को देखने का सही तरीका तो यही है। आखिर क्यों?
क्योंकि किसी भी आपराधिक मामले में दो पक्ष होते हैं। आरोपी व्यक्ति बनाम सरकार। सरकार उन कानूनों को नियंत्रित करती है जिनके तहत न्यायिक व्यवस्था संचालित होती है। सरकार ही सरकारी वकील नियुक्त करती है और उन्हें वेतन देती है जो अभियुक्त के खिलाफ मुकदमा लड़ता है। सरकार ही पुलिस की नियुक्त करती है और उन्हें वेतन देती है जो मामले की जांच करती है। सरकार ही उन न्यायाधीशों को वेतन देती है और प्रोत्साहित करती है जो किसी भी अभियुक्त को निर्दोष या अपराधी घोषित करते हैं।
इस तरह सारी शक्तियां सरकार के ही पास हैं, और जिस व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा या अभियोग है उसके पास कुछ भी नहीं। भारत में ज्यादातर आरोपियों के पास वकील करने या मुकदमे के दौरान सरकारी आरोपों का जवाब देने के लिए पैसे तक नहीं होते। इसी कारण हम इस सिद्धांत पर चलते हैं कि जब तक कोई दोषी साबित नहीं हो जाता उसे बेकुसूर माना जाए, क्योंकि समझ यह है कि सरकार के पास जबरदस्त शक्तियां हैं और अभियुक्त के मुकाबले एकदम बेमेल हैं। भले ही न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी रहती है और उसके हाथ में न्याय के संतुलन का तराजू होता है, लेकिन इसमें संतुलन कभी नहीं होता क्योंकि सरकार जब चाहे जितना चाहे भार अपने पक्ष वाले पलड़े पर रख सकती है। दिल्ली के दंगों पर जिस तरह से मुकदमा चलाया जा रहा है, उसमें सरकार की बेईमानी साफ दिख रही है और इसके सबूत भी सामने हैं। एक खास राजनीतिक दल की बहुसंख्यकवादी विचारधारा आपराधिक न्याय प्रणाली में अभिव्यक्त हो रही है क्योंकि इसके पास सरकार है जिसके पास असीमित शक्तियां हैं।
आजादी के बाद भारत में, कोई भी सरकार अपने पास मौजूद शक्तियों से संतुष्ट नहीं है और उसे और अधिक शक्तियां चाहिए। वैसे यह कोई समस्या नहीं है क्योंकि सरकार को अपने पास अधिक से अधिक शक्तियां रखने से सिवाय मतदाताओं के कौन रोक सकता है। और, भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में मतदाताओं की रुचि बहुत ही कम है। अधिकांश मध्यम वर्ग के लोगों को लगता है कि इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है। सरकार जितनी ताकत और शक्तियां चाहे अपने लिए जुटा सकती है। भारत में अब सरकार न्यायिक व्यवस्था को ही उल्टा करना चाहती है कि जब तक कोई निर्दोष साबित न हो जाए उसे दोषी ही माना जाना चाहिए।
एक औपनिवेशिक भारत में जब अंग्रेज ऐसे ही कानून लिख रहे थे या बना रहे थे तो पूरा भारत उनका विरोध कर रहा ता, लेकिन आज लोकतांत्रिक भारत में सरकार ऐसे ही कानून लिख रही है और बना रही है, और उनका असर भी लोगों पर वैसा ही है जैसा अंग्रेजों के समय में था। जलियां वाला बाग में जिस रौलट एक्ट का विरोध करते हुए सैकड़ों भारतीय शहीद हुए थे, वह ऐसा है एक कानून था जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अपराध के गिरफ्तार किया जा सकता था, क्योंकि अंग्रेज सरकार को लगता था कि कोई भी व्यक्ति भविष्य में कोई अपराध कर सकता है। यानी ऐसा अपराध जिसमें किसी को खुद को निर्दोष साबित करना होता। आज भारत में कई ऐसे कानून हैं जो इसी तरह के हैं और जिन्हें लोकतांत्रिक सरकार ने बनाया है, जिसमें बिना किसी अपराध के सिर्फ एहतियात के नाम पर किसी को भी गिरफ्तार या हिरासत में लिया जा सकता है। हर राज्य में इस तरह के एक से अधिक कानून हैं और केंद्र सरकार के पास ऐसे सभी कानून हैं। यही कारण है कि दिल्ली के दंगों के आरोप में गिरफ्तार महिलाओं और अन्य प्रदर्शनकारियों को जमानत मिल सकती है, लेकिन फिर भी वे अभी भी जेल में हैं क्योंकि सरकार के पास कई कानूनी विकल्प हैं जिनके तहत उन्हें बिना की अपराध के जेल में रखा जा सकता है। लेकिन हम में से बहुत से लोगों को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता है।
सरकार ने कई ऐसे कानून बनाए हैं जिनमें खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी पर है। यूएपीए, मनी लॉंड्रिंग कानून और गौ हत्या कानून, ऐसे ही कुछ कानून हैं। यानी जब तक कोई व्यक्ति खुद को सरकार की संतुष्टि तक निर्दोष साबित न कर दे, उसे जेल में रखा जा सकता है और मुकदमा भी चलाया जा सकता है। दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में इस तरह के कानून मौजूद नहीं हैं।
हालांकि भारत सरकार के पास किसी भी अन्य आधुनिक लोकतांत्रिक देश के मुकाबले कहीं अधिक शक्तियां हैं, लेकिन फिर भी सरकार को और अधिक शक्तियां चाहिए। उत्तर प्रदेश ने एक ऐसे ही फोर्स का गठन किया है, जो बिना वारंट के और बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के किसी को भी गिरफ्तार कर सकता है। यह एक ऐसी शक्ति है जो अन्य राज्यों और यहां तक कि केंद्र के पास भी है। हमारे पास सरकार द्वारा इस तरह के अधिग्रहण के खिलाफ कोई नागरिक या लोकप्रिय विरोध नहीं है। ऐसा न होने की स्थिति में सरकार हमारे ही खिलाफ और अधिक शक्तियां हासिल करती रहेगी।
आज भारत में लोकतांत्रि नाम के पर निरंकुशता और अत्याचार का बोलबाला है। मैं यह आरोप किसी एक पार्टी के खिलाफ नहीं लगा रहा हूं, क्योंकि राज्यों में तो अलग-अलग राजनीतिक दल सरकार का नियंत्रण कर रहे हैं। इस मामले में भारत के एक हिस्से और दूसरे में कोई अंतर नहीं है। यह सच है कि केंद्र में एक राजनीतिक दल सरकार के तहत अपनी शक्ति का जोरशोर से विस्तार करना चाहता है, इसका वास्तविक खतरा देखा जा रहा है।
हम उन व्यक्तियों को पसंद नहीं कर सकते हैं जिन पर आज की आपराधिक न्याय प्रणाली के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है क्योंकि हमने मान लिया है कि वे बुरे लोग हैं, भले ही हम वास्तव में उनसे कभी नहीं मिले हों। लेकिन हमारी पसंद और नापसंद इस बात की स्वीक्ति तो नहीं हो सकती कि सरकार अपने पास असीमित शक्तियां ले आए क्योंकि कानूनन यह सिद्धांत गलत है और अन्याय है।
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