सरकार को नहीं सुहाता किसी अधिकारी का सोशल मीडिया पर बोलना, ट्रॉल आर्मी भी कर देती है जीना हराम
सोशल मीडिया में पीएम मोदी की मौजूदगी में एक डर तेजी से बढ़ा है। इसे इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि राज्यसभा के एक मुस्लिम अधिकारी को लगभग दस माह तक निलंबित रखा गया, क्योंकि उसने सोशल मीडिया पर वैसी बातों को शेयर किया जिसे सरकार अपना विरोध मानती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया के मंचों से खुद को अलग करने की इच्छा जाहिर की है? लेकिन यह सच है कि सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में नफरत और आंतरिक झगड़े पैदा करने के लिए सैन्य दस्ते तैयार हुए हैं। ऐसे में क्या सोशल मीडिया में इस सैन्य दस्ते का वर्चस्व टूट रहा है और वे अब दूसरे मैदान की तैयारी करने में लग रहे हैं? जबकि सोशल मीडिया को न केवल नफरत फैलाने का एक जरिया बना दिया गया बल्कि उसके जरिये दहशत और डर भी पैदा करने की हर संभव कोशिश की गई है।
लोगों के सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने के मौलिक अधिकारों को भी नहीं बख्शा गया। वास्तव में मौजूदा राजनीति का एक मात्र सूत्र डर और दहशत का निर्माण करना रहा है और सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में वह डर तेजी के साथ बढ़ा है। डर का निर्माण किस तरह से पूरे राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा हो गया है इसका एक जायजा लिया जाना चाहिए। एक केस स्टडी के तौर पर संसद में डर के वातावरण बढ़ने के हालातों का जायजा लिया जा सकता है।
राज्य सभा के एक अधिकारी को लगभग दस महीने तक निलंबित रखा गया। इसके बाद उसे उसके पद से छोटे पद पर तैनात किया गया और सजा यह दी गई कि वह पांच वर्षों तक उसी पद पर बना रहेगा और उसके बाद भी उसे कोई क्रमानुसार जो प्रमोशन मिलता है, वह नहीं मिलेगा।
दरअसल अधिकारी के नाम से उसके मुस्लिम होने का बोध होता है और उसका अपराध यह है कि उसने सोशल मीडिया पर वैसी बातों को अपने दोस्तों के बीच शेयर कर दिया जिसे सरकार अपने विरोध की भाषा के रूप में परिभाषित करती है। संसद सभी पार्टियों की होती है। संसद में लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाहियों का संचालन करने के लिए सत्ता पक्ष का प्रतिनिधि होता है। लेकिन संसद को सरकार नहीं माना जाता।
बहरहाल संस्थाओं की स्वायत्ता खत्म की जा रही है। सरकार की आलोचना को राष्ट्र विरोधी मानने की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। लेकिन क्या नागरिकों की ओर से सत्ता पक्ष को डर की दीवारें तैयार करने की छूट दी जाती है? क्या उन दीवारों से छूकर गुजरने वाली हवा केवल उन्हें ही बीमार करती है जो कि सत्ता पक्ष के विरोधी विचार के होते हैं? संसद से यह खबर तो आ गई कि राज्यसभा ने अपने एक सुरक्षा अधिकारी को निलंबित कर दिया है। लेकिन राज्यसभा की इस कार्रवाई ने जो डर पैदा किया है क्या उस डर की जद में आने वालों की खबरें आ पाई हैं?
जिस दिन ये खबर आई तब तक यह खबर लगभग दस महीने पुरानी हो चुकी थी। क्योंकि संसद परिसर में काम करने वालों को यह खबर उसी दिन मिल गई थी, जिस दिन उस अधिकारी को कार्रवाई के लिए नोटिस दिया गया था। महज उस नोटिस जारी करने की खबर के बाद संसद परिसर में डर की हवा चलने लगी। यह अध्ययन किया जाना चाहिए कि जिस दिन उक्त सुरक्षा अधिकारी को सोशल मीडिया पर किसी संदेश को शेयर करने के लिए कार्रवाई की नोटिस दी गई उसके तत्काल बाद से संसद के किन-किन कर्मचारियों और अधिकारियों ने सोशल मीडिया से अपने पन्ने फाड़ दिए या सोशल मीडिया से जैसे कन्नी काट ली।
यह डर इतने ही हद तक नहीं बैठा कि कर्मचारियों और अधिकारियों ने सोशल मीडिया से तौबा कर लिया, बल्कि उन्हें यह भय अब भी सताता रहता है कि उनके द्वारा पूर्व में सोशल मीडिया में लिखे गए संदेशों, या शेयर और लाइक के पोस्टों की छानबीन नहीं की जा रही हो और उसके आधार पर उनके खिलाफ भविष्य में कहीं कोई कार्रवाई न की जाए। डर जब पैदा किया जाता है तो उस डर के प्रभावों का कोई अंत नहीं होता है। बस जिनके लिए डर पैदा किया जाता है उन्हें डर के साथ जीने की आदत डालनी पड़ती है। डर उन्हें रोज ब रोज कई स्तरों पर मारता रहता है। डर के मनोविज्ञान पर दुनिया भर में बहुत अध्ययन किए गए हैं।
अब यह सवाल पूछा जा सकता है कि डर का यह जाल संसद परिसर में कब से और कैसे-कैसे फैलता चला गया। ऐसा नहीं है कि एक सुरक्षा अधिकारी के सोशल मीडिया में पोस्ट के जरिये एक डर पैदा किया गया और वह खबर संसद में अपना काम निरंतर करती रही और उस संसद की दहलीज पर माथा टेकने वालों की भीड़ और उसकी तस्वीरों की संख्या भी बढ़ती रही। जो संसद में जाते रहे हैं यदि वे पिछले तीसेक सालों के अपने अनुभवों को साझा करें तो वे पूरे दावे के साथ डर के इस जाल के बढ़ने का सिलसिला जाहिर कर सकते हैं।
मुझे एक बात याद आती है, कि जब मैं 1990 के शुरुआती वर्षों में बतौर संवाददाता राज्य सभा की कार्यवाहियों की रिपोर्टिंग करता था और उसी दौरान बीच में एक बार मुझे अपने गृह जिला जाना पड़ा। वहां के जिलाधिकारी मेरे दोस्त थे और वे नौजवान थे। वे दिल्ली और लोकतंत्र के बारे में मेरे अनुभवों और आकलनों को समझना चाहते थे। मैंने उन्हें संकेत के तौर पर यह बताया कि संसद परिसर में चारों तरफ अंदर बाहर आने-जाने के बड़े-बड़े लोहे के दरवाजे लगे हैं, लेकिन उन दरवाजों के बंद होने का जो सिलसिला बढ़ रहा है, उसे लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं समझा जा सकता है।
मैंने संसद परिसर और संसद के भीतर डर को महसूस नहीं किया। लेकिन एक डर उसी गति में लगातार और विविध रूपों में विकसित होता गया है, जितने विविध रूपों में सुरक्षा के हथियार तैनात होते चले गए हैं। सावधानी को सुरक्षा ने विस्थापित कर दिया। सावधानी एक सामूहिक और अनौपचारिक लेकिन मजबूत ढांचे का निर्माण करती है, लेकिन सुरक्षा ने लोकतंत्र के केंद्र को किले में बदलने का भाव पैदा किया है। मुझे याद है कि एक गलत सूचना के आधार पर पूरी संसद खाली करा ली गई थी और घंटों तक संसद सदस्य परिसर में बाहर खड़े रहे थे।
16 दिसंबर 2005 को ई-मेल के जरिये संसद को बम से उड़ा देने की धमकी मिली थी। संसद भवन में 13 दिसंबर के हमले के बाद बहस के केंद्र में सावधानी की संस्कृति के बजाय सुरक्षा तंत्र और आधुनिकतम मशीनों का अभाव रहा। दो सौ करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर दिए गए। सुरक्षाकर्मियों की भीड़ खड़ी कर दी गई। लेकिन एक ई-मेल संसद के बीचों-बीच घुस गया।
चेन्नई में जो अमेरिकन काउंसलेट है, उसको किसी ने यह ई-मेल करके बताया था कि हिन्दुस्तान में अमेरिकन काउंसलेट और संसद पर 11 बजकर 45 मिनट पर बम के धमाके होने वाले हैं। उस दिन लोकसभा अध्यक्ष ने बताया कि "सुरक्षा संबंधी खतरे की सूचना पाकर पूर्वांह 11.52 बजे सभा स्थगित की जाती है।" ध्यान दें कि ई-मेल में 11.45 पर बम से उड़ाने की धमकी दी गई है।
यह उदाहरण यह समझने के लिए है कि डर एक संदेश है और वह एक ढांचे की तरह विकसित होता जाता है और उतनी मजबूती से ढांचा तैयार होता है कि उस डर के बारे में बात करने से भी डर लगने लगता है। 16 दिंसंबर की झूठी खबर ने देश में लोकतंत्र के प्रतिनिधियों में जो दहशत पैदा की होगी उसके आगे सुरक्षा के लिए किस तरह के ढांचे को और मजबूत करने की स्वीकृति मिली होगी, यह सोचा जा सकता है।
यह विचार किया जाना चाहिए कि क्या राज्यसभा में कार्यरत एक सुरक्षा अधिकारी पर जो कार्रवाई हुई, जो कि मुस्लिम है, उसे चुप कराने की कार्रवाई थी? क्या डर का कोई धर्म होता है ? लेकिन डर से लोकतंत्र जरूर दुबक जाता है। मैं एक बार जब एक वरिष्ठ पत्रकार से मिला तो इस डर के पसरने से बेहद परेशान हुआ। उस वरिष्ठ पत्रकार को मैं केवल यह कहना चाहता था कि उन्हें बतौर पत्रकार जो अधिकार मिलते रहे हैं, वे उनके छिने जाने पर अपनी आपत्ति प्रगट कर दें। अगर इतना भी नहीं तो इस भाषा में लिख दें कि यदि उन्हें उनके अधिकार वापस मिल जाते हैं तो उन्हें खुशी होगी। लेकिन उन्होंने ये कहा कि उन्हें उनके अधिकारों के जो अवशेष भी मिल रहे हैं, यदि उन्होंने कुछ भी लिखकर दिया तो उससे भी वह वंचित हो सकते हैं। डर जब आशंकाओं की सीढियां तैयार करने लगे तो समझा लेना चाहिए कि देश में डर लोकतंत्र पर भारी पड़ने लगा है।
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