गांधीजी की देश को जोड़ने की रणनीति है असली 'आइडिया ऑफ इंडिया'

गांधी की राजनीतिक रणनीति की एक और विशेषता थी कि यहां प्रतिद्वंद्वी की ताकत और कमजोरियों का समग्र मूल्यांकन हो जाता था। यही कारण है कि अपनी रणनीति को लागू करने की राह में आने वाली किसी भी बाधा को वह बड़ी आसानी से दूर कर लेते थे।

फोटो: सोशल मीडिया
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आलोक बाजपेयी

गांधी आज जीवित होते तो क्या करते? यह सवाल अक्सर सामने आता रहता है। अब इसमें तो कोई शक नहीं है कि उनका हस्तक्षेप राजनीतिक ही होता, आखिर तो वह राजनीतिक प्राणी थे। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि उनका तरीका आज की ‘तदर्थ सक्रियता’ से कितना अलग था। गांधी की राजनीति का सबसे प्रभावी हिस्सा उनका रणनीतिक दिशा-निर्देशन था। अन्य नेता जहां अपने भाषणों में देश की समस्याओं का पोस्टमार्टम करते हुए भावनात्मक पिच बनाने में तो माहिर थे, लेकिन वे भी ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने, उस पर तल्ख हमले करने से आगे नहीं जा पाते थे। उनके पास कोई कार्ययोजना नहीं होती थी, कोई दर्शन या दृष्टि नहीं होती थी कि इस सारी बीमारी से निजात कैसे मिलेगी। जबकि गांधी के पास न सिर्फ आम जन को जगाने बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई, उसे कमजोर करने के अपने एक्शन प्लान में भी उनको शामिल कर लेने की अद्भुत क्षमता थी। यही कारण था कि 1916-17 में भारत में सक्रिय राजनीति शुरू करने के बाद गांधी बहुत जल्द आजादी की लड़ाई का प्रतीक, प्रचारक और चेहरा बन गए।

गांधी की रणनीति की सबसे बड़ी खासियत उनकी शैली, यानी पद्धति का वैचारिक आधार था। गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व के नेताओं और बुद्धिजीवियों की समझ को आत्मसात किया या और उसके साथ अपने विचारों को इस तरह गूंथा कि एक बिल्कुल नई, स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा उभर कर सामने आई। गांधीवाद (विचारधारा) की कल्पना दरअसल किसी एकाकी सोच का नतीजा नहीं, यह कांग्रेस की ही सोच का विस्तार था। गांधी का योगदान एक अर्थ में कांग्रेस की मूल विचारधारा के साथ अपनी वैचारिकी को अच्छी तरह गूंथने के रूप में था जिसे उन्होंने आत्मसात कर लिया था। उनका बड़ा योगदान वृहद् जन-राजनीतिक चेतना के रचनात्मक मूल्यों की अपनी समझ को कांग्रेस के दर्शन के साथ एकीकृत करना था जिसके सार्थक नतीजे निकले। उन्होंने इस राजनीतिक विचारधारा में अपनी प्रकृति के विपरीत पहलुओं के खिलाफ इंसान के संघर्ष के लिए भी जगह बनाई। यही कारण है कि गांधी और कांग्रेस की विचारधारा में संकीर्ण, प्रतिक्रियावादी राजनीति के लिए कभी कोई जगह नहीं रही। देश के राजनीतिक परिवेश में यह हमेशा प्रगतिशील मूल्यों की वाहक बनी रही और आज भी है।

गांधी की राजनीतिक रणनीति की एक और विशेषता थी कि यहां प्रतिद्वंद्वी की ताकत और कमजोरियों का समग्र मूल्यांकन हो जाता था। यही कारण है कि अपनी रणनीति को लागू करने की राह में आने वाली किसी भी बाधा को वह बड़ी आसानी से दूर कर लेते थे और इसे आम जन से लेकर राजनीतिक तौर पर प्रबुद्ध खास लोगों के लिए भी सहज स्वीकार्य बना देते थे। यहां तक कि शुरूआत में असहमति रखने वाले भी बहुत जल्द उनके कायल हो जाते और मान लेते थे कि उनका रास्ता ही एकमात्र प्रभावी विकल्प है। मसलन, चौरीचौरा कांड के बाद गांधी के आंदोलन अचानक वापस ले लेने की बात हो या गांधी-इर्विन समझौते के बाद के हालात, आलोचना उनकी कम नहीं हुई, लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि कोई नेता उनकी हैसियत को चुनौती देने के लिए आगे आया हो।

गांधी ने कांग्रेस संगठन को मजबूत करने, उसे हर दरवाजे तक ले जाने पर विशेष जोर दिया। उनका मानना था कि आम लोगों के बीच मजबूत पकड़ बना लेने का मतलब है, दुश्मन स्वतः कमजोर पड़ चुका है। गांधी के ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ भी रणनीतिक होते थे। यह अ-राजनीतिक नहीं बल्कि गांधीवादी पद्धति का ही एक हिस्सा था। उनके शब्दकोश में सत्ता को हमेशा चुनौती देते रहना खराब रणनीति थी। गांधी ने देश को एक साथ जोड़ने की रणनीति भी अपनाई जिसे अक्सर ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ कहा जाता है। इसलिए उन्होंने अतिवादी अर्थों में सामाजिक- आर्थिक सवाल उस तरह नहीं उठाए, जैसा कि अस्मिता की राजनीति में अक्सर होता है। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को मजबूती देने की कोशिश की और सभी भारतीयों को एकजुट होकर समाजिक-राजनीतिक बुराई से लड़ने का आह्वान किया।


गांधी सांप्रदायिकता की विनाशकारी-विभाजक क्षमता से पूरी तरह वाकिफ थे। 1946-47 में जब सांप्रदायिकता की आग देश को जला रही थी, गांधी ने अपनी सारी ऊर्जा जनता से सीधे संवाद करने में लगा दी। उदाहरण के लिए, पूर्वी बंगाल के नोआखली में अपनी पदयात्राओं के माध्यम से सांप्रदायिकता की आग को ठंडी करने के लिए लगातार चार महीने तक अनथक जुटे रहे। मौजूदा ‘भारत जोड़ो यात्रा’ भी सरकार प्रायोजित सांप्रदायिकता के खिलाफ लोगों को एकजुट करने का ऐसा ही एक और प्रयास है जो आज देश के लिए बड़ा खतरा है। शुरुआती रिपोर्ट तो यही बताती हैं कि इसे महज सार्वजनिक बुद्धिजीवियों का नहीं, व्यापक नागरिक समाज का समर्थन हासिल है। यह निश्चित तौर पर उस गांधीवादी तरीके की याद तो दिला ही रहा है, जमीन पर दिखा भी रहा है। यात्रा निश्चित रूप से लोगों को जोड़ने के बारे में है। यह उन्हें घर से बाहर निकालने और उनकी लोकतांत्रिक भगीदारी को सिर्फ वोट देने तक सीमित न रख ज्यादा व्यापक बनने के बारे में भी है। हालांकि, गांधी के ‘सत्याग्रह’ के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता है, तो इस विश्वास के साथ कि अहिंसक प्रतिरोध फासीवादी सत्ता को सफलतापूर्वक हटाने का जरिया बन सकता है, आने वाले दिनों में इसके प्रभाव का और व्यापक विस्तार होना तय है।

(आलोक बाजपेयी इतिहासकार हैं।) 

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