आज इस्तीफा देने वाले अफसरों के भीतर से गांधी ही बोल रहे, देश में जल्द जगेगी चेतना
आज झूठ सत्ता पर काबिज है। इनकी ट्रेनिंग कहां से शुरू होती है- समाज के एक समूह के प्रति नफरत पैदा करने से। अगर बचपन से बच्चे के मन में नफरत, हिंसा को उभारा जाएगा तो ऐसे लोगों का जो समाज बनेगा, वह हिंसक नहीं, तो क्या होगा? हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं।
पूरी दुनिया गांधी मार्ग के जरिए रास्ता तलाश रही है। लेकिन, अपने ही देश में लोकतंत्र पर जिस तरह से खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें महात्मा गांधी के संदेश पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। हमने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र संडे नवजीवन केे दो अंक गांधी जी पर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इसी तरह नवजीवन वेबसाइट भी अगले दो सप्ताह तक गांधी जी के विचारों, उनके काम और गांधी जी के मूल्यों से संबंधित लेखों को प्रस्तुत करेगी। इसी कड़ी में पेश है गांधी जी के विचारों पर आधारित केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष रामचंद्र राही का लेख।
मेरा जन्म गुलामी के समय हुआ था लेकिन मैंने होश संभाला आजाद भारत में। मेरी उम्र 81 वर्ष है। आजादी मिलने पर मेरी पीढ़ी के ज्यादातर लोगों में नई उमंग थी और हममें नए देश के निर्माण की अवधारणा व्याप्त थी। जिस तरह गांधी ने स्वराज आंदोलन की लड़ाई लड़ी, जिस तरह पूरे देश को जगाया, निर्भय बनाया था, शांतिमय अहिंसक प्रतिकार करने की शक्ति आम लोगों में जगाई थी, उससे बड़ी आशा बंधी थी।
30 जनवरी को गांधी की हत्या के बाद हमारे गांव में किसी घर में चूल्हा नहीं जला था। मेरे पिताजी ने गांधी के श्राद्ध पर हरिजन भोज कराया था। उसमें सारे गांव के लोगों ने भागीदारी की थी। यह श्रद्धा थी गांधी के प्रति लोगों में। आज मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो दिल सचमुच बहुत दुखी हो जाता है। मुझे याद आता है कि नेहरू जी ने एक बार कहा था कि लगता है कि गांधी के रास्ते को छोड़कर भारी भूल हुई। यह बात नेहरू- जैसे कद का बड़ा आदमी ही कह सकता था। आज किसी राजनेता में इतना आत्मविश्वास-आत्मबल नहीं है कि अपनी भूल को खुलकर स्वीकार कर सके। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में उस्तादी हासिल हो गई है लेकिन आत्मनिरीक्षण करने की क्षमता नहीं है।
इसका बड़ा कारण है। इसकी बुनियाद में जाएं तो गांधी का वह कथन याद आता है जब उन्होंने कहा था, “यद्यपि भारत राजनीतिक रूप से आजाद हो गया है लेकिन आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है।” इसके लिए गांधी ने एक योजना दी थी। यह योजना देश के सामने रखी थी। दुर्भाग्य से जिस दिन गांधी ने इसका प्रारूप बताया, उसके अगले ही दिन उनकी हत्या हो गई। दरअसल, लोकतंत्र की व्यवस्था तो संविधान के अनुसार लागू हो गई है लेकिन लोकतांत्रिक मानस नहीं बना।
पिछले दस-बीस-पच्चीस सालों में हमने देखा है कि अरब देशों में जो युद्ध हुए, वे तेल के स्रोतों पर कब्जा जमाने के लिए हुए लेकिन कहा यह गया कि लोगों के लिए हो रहा है। लेकिन यह सब होता है पूंजी और टेक्नोलॉजी के मालिकों के हित में। तो इस विकास से क्या होने वाला है, यह गांधी ने पहले ही देख लिया था। इसलिए हमें इस रास्ते को छोड़ना पड़ेगा। आज जो रोना हो रहा है, वह इसलिए है कि हमने गांधी के बताए रास्ते को पकड़ा नहीं, उसे गए जमाने की बात मानी। हमने पश्चिम के उन्हीं तौर-तरीकों को अपनाया जिन पर चलकर उन्होंने हमारे- जैसे अविकसित देशों को गुलाम बनाया था। विकास के मॉडल के केंद्र विंदु पूंजीवाद के विरोध में साम्यवाद आया और लगभग 70 साल सोवियत रूस उसके मुकाबले में खड़ा रहा। लेकिन पूंजीवाद ने टेक्नोलॉजी और पावर का जो समीकरण बनाया जनता के साथ, तो सोवियत संघ भी उसके सामने टिक नहीं पाया।
आज हम होड़ में लगे हैं कि विकास में तीसरे चौथे नंबर पर आ जाएं। पहले-दूसरे नंबर पर तो आ नहीं सकते, तीसरे-चौथे पर या और कितना नीचे पहुंचेंगे, कहा नहीं जा सकता। आज रोजगार का जो हाल है, वह हम देख रहे हैं। ये आज का वर्तमान है। ऐसे में, मूल प्रश्न है कि समाज का नवनिर्माण कैसे होगा, उसकी आधारभूमि, बुनियाद क्या होगी। गांधी ने कहा था- वह गांव होगा। गांधी ने राजनीतिक आजादी के बाद आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आजादी की बात कही। आर्थिक आजादी पर गांधी ने कहा, “मनुष्य के पास श्रम शक्ति है, कुशलता है, और उसे प्रकृति ने संसाधन दिए हैं तो आमने-सामने का समाज अपनी बुनियादी जरूरतें, जहां वह रहता है, प्रकृति के सहयोग से वहीं पूरा करे। इसके लिए मनुष्य की कुशलता और आनंद बढ़ाने वाली यांत्रिकी चाहिए। गांधी ऐसी यांत्रिकी के पक्ष में थे जिसके लिए बड़ी पूंजी की जरूरत न हो, मुट्ठी भर लोगों की मिल्कियत में वह न रहे, और जो बुनियादी जरूरतें पूरी करने वाली हो। साथ ही यह यांत्रिकी न तो प्रकृति का दोहन करने वाली हो, न समाज के कमजोर तबके का शोषण करने वाली।”
अब सवाल उठता है कि आज की स्थिति में हम क्या करें? बड़े उद्योगों से लोगों को रोजगार नहीं मिल पा रहा तो क्या ये लोगों को भूखे मारेंगे? या जाति के नाम पर या हिंदू-मुसलमान के नाम पर लड़ाकर मारेंगे? आज आप देखिए, यही हो रहा है। बेरोजगार आदमी, खालीपेट आदमी या तो खुद मरेगा या दूसरों को मारेगा। ऐसा कोई उपाय नहीं है कि एक तरफ तो हम कहें कि हम गांधी के विचार को मान रहे हैं और दूसरी तरफ गांधी के बताए सत्य के रास्ते को छोड़कर चल दें। सत्य बिल्कुल सीधा सरल है। सत्य की कोई रणनीति नहीं होती। झूठ को रात-दिन रणनीति बनानी पड़ती है। जितने समूह हैं जो समाज को चला रहे हैं, ये सब झूठ की रणनीति पर चल रहे हैं। आज झूठ सत्ता पर काबिज है। इनकी ट्रेनिंग कहां से शुरू होती है- समाज के एक समूह के प्रति नफरत पैदा करने से। अगर बचपन से बच्चे के मन में नफरत, हिंसा को उभारा जाएगा तो ऐसे लोगों का जो समाज बनेगा, वह हिंसक नहीं, तो क्या होगा? हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं।
अगर गांधी आज होते तो क्या करते, यह बताने की पात्रता मैं अपने भीतर नहीं पाता हूं। लेकिन गांधी जो छोड़ गए, वहां से सोचना शुरू करता हूं, तो कुछ दिशा मिलती है। उन्होंने कहा था कि गांव-गांव में लोकसेवक होने चाहिए। वे मतदाताओं को प्रशिक्षित करें, संगठित करें, गांव में लोगों को रोजगार कैसे मिलेगा, इसके लिए तैयार करें, खुद की टेक्नोलाॅजी विकसित करें, संसाधनों का उचित और अधिकतम उपयोग कैसे हो सकता है, इस पर विचार करें। बहुत सारी कमियों के बावजूद, अच्छाइयों के साथ इतने साल लोकतंत्र भारत में चल पाया, इसका कारण था आजादी की लड़ाई में शामिल बहुत से विश्वसनीय नेता देश में थे जो सत्ता की स्पर्धा में शामिल नहीं थे। इनमें आचार्य विनोबा, जयप्रकाश नारायण, आचार्य दादा धर्माधिकारी आदि। इन्होंने गांधी की संगत में रहकर काम किया था।
लेकिन आज यह हो रहा है कि हम बात-बात पर मरने-मारने को सड़कों पर उतर आते हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण समय है। और यह इसलिए है कि समाज में सत्ता पर, धर्म संस्थानों में और आर्थिक संस्थानों में बैठे लोग जिन मूल्यों को समाज में स्थापित करते हैं, उसका यही नतीजा निकलता है। बहुत भरे दिल से मुझे यह कहना पड़ रहा है कि आज राजसत्ता, धर्मसत्ता और धनसत्ता- तीनों समाज में हिंसा बढ़ाने के कारण बन गए हैं। मेरे जैसा कार्यकर्ता जिसने जीवन भर गांधी के विचारों में आस्था रखकर काम किया है, वह इस स्थिति को देखकर अत्यंत विचलित हो जाता है। आदमी का इस्तेमाल आदमी उनकी बुद्धि को कुंद करके, उन्हें उन्मादी बना कर करे, इससे दुखद स्थिति और क्या हो सकती है?
लेकिन इतिहास गवाह है कि हर तानाशाह भीड़ को उन्मादी बनाकर उसका इस्तेमाल अपने पक्ष में करता है। वह लोकतंत्र का आवरण ओढ़ लेता है। कहता है कि हमें जनता का समर्थन हासिल है। उन्माद के प्रतिफल में समाज में हिंसा बढ़ती है और वह कहता है कि अराजकता बढ़ रही है, लोकतंत्र नहीं चल सकता। फिर वह फौज और पुलिस बल से सत्ता को नियंत्रित करता है। जैसे जम्मू-कश्मीर में कहा जा रहा है कि स्थिति सामान्य है, लेकिन किसके लिए सामान्य है? और जो लोग घर में घुटन महसूस कर रहे हैं उनका क्या? लेकिन हिंसा की शक्ति अभेद्य है, अजेय है, यह दुनिया में अब तक सिद्ध नहीं हुआ है। आप इतिहास उठाकर देख लीजिए। मेरा मानना है कि भारत में भी चेतना जगेगी। आप देखिये अनेक आईएएस अधिकारियों ने अपने पदों से इस्तीफा देकर अपनी बात कही है, इन सब लोगों के भीतर से गांधी ही बोल रहे हैं। मेरा विश्वास है कि फिर से हम अपने मूल रास्ते पर लौटेंगे।
(लेखक केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष हैं। यह लेख सुधांशु गुप्त से बातचीत पर आधारित है)
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