विश्व की गंभीर चुनौतियों से मुकाबले के लिए 21वीं सदी को गांधी की सबसे ज्यादा जरूरत

धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं को बचाने का प्रयास इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे सार्थक और जरूरी प्रयास है और इसे लोकतंत्र और न्याय की सोच के दायरे में ही प्राप्त करना है। इस प्रयास में विचारों का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन विचारों के संघर्ष में गांधी जी की सोच बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

महात्मा गांधी के अपने जीवन काल में यह स्थिति और सोच सामने नहीं आई थी कि एक दिन धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं भी खतरे में पड़ सकती हैं। लेकिन आज 21वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में यह स्थिति विश्व की सबसे गंभीर चुनौती के रूप में सामने आ रही है। इस तेजी से उभरती स्थिति में गांधी जी की समग्र सोच पहले से और भी अधिक प्रासंगिक हो गई है। बेशक 20वीं शताब्दी को गांधीजी की बहुत जरूरत थी, पर 21वीं शताब्दी को गांधी जी की जरूरत उससे भी अधिक है।

धरती की जीवनदायिनी क्षमता खतरे में पड़ने के दो मुख्य पक्ष हैं। इन दोनों संदर्भों में ही समाधान प्राप्त करने के लिए गांधी जी की सोच बहुत सार्थक, उपयोगी, मौलिक और मूल्यवान है। धरती की जीवनदायिनी क्षमता के संकटग्रस्त होने का पहला पक्ष यह है कि प्रकृति के प्रति आधिपत्य का संबंध रखने, प्राकृतिक संसाधनों (विशेषकर जीवाश्म ईंधन और वन संपदा) का अत्यधिक दोहन करने के कारण आज ऐसे अनेक पर्यावरणीय संकट पैदा हो गए हैं जो धरती पर तरह-तरह के जीवन के पनपने की मूल स्थितियों को ही संकट में डालते हैं। इसमें जलवायु बदलाव का संकट, जल संकट, वायु प्रदूषण, समुद्रों का प्रदूषण, जैव-विविधता का तेजी से ह्रास अधिक चर्चित हैं। लेकिन इतने ही और कई गंभीर संकट हैं जो अभी कम चर्चा में आए हैं।

इन सभी संकटों के अपने-अपने विशिष्ट कारण और समाधान भी हैं, लेकिन किसी न किसी स्तर पर इनका एक सामान्य कारक यह रहा है कि ये प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से जुड़े हैं और इसके लिए अनियंत्रित उपयोग, भोग-विलास और उपभोक्तावाद जिम्मेदार हैं। टालस्टॉय जैसे कुछ अन्य आधुनिक विचारकों के साथ महात्मा गांधी ने बुनियादी तौर पर सादगी और सादगी आधारित संतोष को एक अति महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। गांधी जी की सादगी की सोच अपने ऊपर बहुत परेशानी से नियंत्रण रखने में नहीं है, बल्कि एक सहज, स्वाभाविक सोच है जो आसानी से संतोष और बंधन मुक्ति के एहसास की ओर ले जाती है। अतः इस सोच की सही समझ बने तो अधिक लोगों द्वारा अपनाई जा सकती है।

जीवनदायिनी क्षमता के संकट में पड़ने की दूसरी वजह युद्ध और अतिविनाशक हथियार हैं। इस संदर्भ में गांधी जी की सोच तो और भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उन्होंने हिंसा को मूलतः जीवन के हर एक पक्ष से हटाने के लिए कहा। युद्ध और हथियारों की दौड़ कितने विनाशक हो चुके हैं, हर कोई जानता है, लेकिन उनका नियंत्रण नहीं हो पा रहा है क्योंकि समाज में ऊपर से नीचे तक हिंसा की सोच जगह-जगह हावी है। इस हिंसा की सोच को जीवन के हर पक्ष से हटाने का एक बड़ा जन आंदोलन विश्व स्तर पर मजबूत होना चाहिए। नीचे से ऊपर तक लोगों की आवाज हर तरह की हिंसा दूर करने के लिए पहुंचेगी तो इससे युद्ध, हथियारों की दौड़, महाविनाशक हथियारों पर रोक लगवाने में बहुत मदद मिलेगी।

धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं को बचाने का प्रयास इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे सार्थक और जरूरी प्रयास है और इसे लोकतंत्र और न्याय की सोच के दायरे में ही प्राप्त करना है। इस प्रयास में विचारों का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन विचारों के संघर्ष में गांधी जी की सोच बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी।

गांधी जी के जीवन काल में पूंजीवाद और साम्यवाद का टकराव चर्चा में था। उनमें यह वैचारिक साहस था कि उन्होंने इन दोनों व्यवस्थाओं से अलग अपने मौलिक विचारों को सामने रखा। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, तरह-तरह के भेदभाव, उन पर आधारित वैमनस्य को पूरी तरह नकारा। उनके विचारों की बुनियाद पर न्याय और सद्भावना आधारित ऐसी व्यवस्था बन सकती है जिसमें इक्कीसवीं शताब्दी की बड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए लोग व्यापक एकजुटता, गहरी निष्ठा और सहयोग से प्रयासरत हो सकें।

इस संदर्भ में हमारे देश में प्रेरक विचारकों की एक श्रृंखला प्राचीन समय से आधुनिक समय तक रही है, जिसने इससे मिलते-जुलते विचारों को लोगों तक पहुंचाया, लेकिन मौजूदा अस्तित्व के संकट को देखते हुए इस समय ऐसे विचारों की जरूरत सबसे अधिक है। आधुनिक विचारकों में देखें तो विश्व स्तर पर टाल्सटॉय और शुमाकर आदि की सोच कई स्तरों पर प्रेरणादायक रही। विशेषकर टाल्सटॉय की अहिंसा और सादगी की सोच गांधी जी की सोच के बहुत करीब रही।

टाल्सटॉय ने अपने आरंभिक दिनों में विलासिता के जीवन को भी खूब जिया और युद्धों में हिस्सा भी लिया था। बाद में उन्होंने मानव जीवन में हिंसा, विषमता और विलासिता के मुख्य खतरों को पहचान कर बहुत कुछ लिखा, जिसका असर गांधी जी पर भी हुआ। लेकिन गांधी जी अपने इन सिद्धांतों को जिस तरह करोड़ों लोगों के बीच ले जा सके और अनेक जन संघर्षों, आजादी की लड़ाई से जोड़ सके वैसी उपलब्धि बहुत कम लोग प्राप्त कर सके हैं। अतः धरती की जीवदायिनी क्षमता की रक्षा में, 21वीं शताब्दी के प्रयासों में गांधी के विचारों को महत्त्वपूर्ण स्थान मिलेगा।

सबकी जरूरतों को पूरा करने वाली अर्थव्यवस्था, पर्यावरण की रक्षा और शांति के तीन प्रमुख उद्देश्यों में नजदीकी अंतर्संबंध है। इसे पहचानने और इस आधार पर एक समग्र सोच स्थापित करने की जरूरत है, जिससे इन तीनों उद्देश्यों की राह पर एक साथ आगे बढ़ा जा सके। गांधी जी की सोच में यह समग्रता मिलती है। यह मौजूदा कठिन दौर के लिए बहुत मूल्यवान है। अब यह चुनौती हमारे सामने है कि आज की परिस्थितियों के अनुसार इस सोच का बेहतर से बेहतर उपयोग करें। अगर हम गांधी जी को आज की सबसे बड़ी समस्याओं से जोड़ते हुए आगे बढ़ें तो इसे विश्व स्तर पर अधिक मान्यता मिलेगी और विश्व स्तर की एक बड़ी जरूरत भी पूरी होगी। पर अभी भारत में इस तरह के प्रयासों को उतनी प्रमुखता नहीं मिल सकी है जिसकी जरूरत है।

आने वाले दिनों में 2019 में 150वीं गांधी जयंती मनाने की तैयारियां भी तेज होंगी। कई आयोजन होंगे, काफी खर्च भी होगा। पर क्या जो मुद्दे इस समय दुनिया के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हें समुचित महत्त्व मिल सकेगा? यह एक बड़ा सवाल है, क्योंकि मौजूदा व्यवस्थाएं स्वयं गांधी जी के विचारों की सही भावनाओं से हटती रही हैं। अतः यह समय ऐसे प्रयासों को तेज करने का है जिनसे गांधी जी के सही विचार, उनकी सही भावना अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सके।

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