गांधी 150: आजादी के बाद महात्मा गांधी पर फिल्म बनाना चाहते थे नेहरू, रिचर्ड एटनबरो ने ‘गांधी’ बनाकर रचा इतिहास
महात्मा गांधी सिनेमा को नापसंद करते थे और सिनेमा गांधी को इतना पसंद करता है कि पिछले करीब 80 सालों में रूपहले पर्दे पर बार बार महात्मा गांधी को दोहराता रहा है। फिर भी हैरानी होती है कि महात्मा गांधी के जीवन को लेकर किसी भारतीय ने फिल्म बनाने का हिम्मत क्यों नहीं जुटायी।
पूरी दुनिया गांधी मार्ग के जरिए रास्ता तलाश रही है। लेकिन, अपने ही देश में लोकतंत्र पर जिस तरह से खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें महात्मा गांधी के संदेश पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। हमने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र संडे नवजीवन के दो अंक गांधी जी पर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इसी तरह नवजीवन वेबसाइट भी अगले दो सप्ताह तक गांधी जी के विचारों, उनके काम और गांधी जी के मूल्यों से संबंधित लेखों को प्रस्तुत करेगी। इसी कड़ी में हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं इकबाल रिजवी का लेख। इस लेख में वे बता रहे हैं कि विदेशी अभिनेता-निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने कैसे फिल्म ‘गांधी’ बनाकर इतिहास रचा।
आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू की इच्छा थी कि महात्मा गांधी पर फिल्म बनायी जाए। तब महबूब, राज कपूर, वी शांताराम सहित कई ऐसे फिल्मकार थे जो अपनी फिल्मों में गांधी जी के विचारों को पेश कर रहे थे। लेकिन नेहरू की इच्छा को पूरा करने के लिये कोई भारतीय नहीं बल्कि विदेशी फिल्मकार गैब्रिएल पास्कल आगे आए। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू से गांधी जी के जीवन पर एक फिल्म बनाने का समझौता किया। लेकिन फिल्म का निर्माण शुरू होने से पहले ही जुलाई 1954 में पास्कल का निधन हो गया।
जवाहर लाल नेहरू गांधी पर फिल्म बनाने के विचार को जिंदा रख हुए थे उन्होंने प्रयास किया कि कोई सरकारी विभाग गांधी पर फिल्म बनाने की पहल करे। लेकिन अपने प्रयासों के दौरान जवाहर लाल नेहरू को जो कटु अनुभव हुए उन्हें उन्होंने 1963 में राज्यसभा में इस तरह व्यक्त किया, “ भारत सरकार के किसी भी विभाग के लिए महात्मा गांधी के जीवन पर फिल्म बनाना बेहद कठिन है। सरकारी विभाग इस काम के योग्य नहीं हैं क्योंकि ऐसा कोई सक्ष्म व्यक्ति सरकार के पास नहीं है।” इसके कुछ साल बाद फिर एक विदेशी अभिनेता-निर्देशक ने पहल की और फिल्म ‘गांधी’ बना कर इतिहास रच दिया। इस फिल्मकार का नाम था रिचर्ड एटनबरो।
लेकिन एटनबरो की ‘गांधी’ के बनने के पीछे भी लंबा इतिहास है। रिचर्ड एटनबरो तब तक अभिनेता थे जब उन्होंने लुई फिशर की लिखी महात्मा गांधी की जीवनी पढ़ी। इसके बाद तो एटनबरो गांधी जी के विचारों और व्यक्तित्व में डूबते चले गए। उनके मन में महात्मा गांधी पर फिल्म बनाने के विचार ने आकार लेना शुरू कर दिया।
एटनबरो भारत आकर जवाहर लाल नेहरू से मिले। उन्होंने नेहरू जी को फिल्म की पटकथा दिखायी तो नेहरू जी ने उन्हें आठ अध्यायों में गांधी जी की जीवनी लिखने वाले डीजी तेदुलकर से मिलने को कहा। जवाहर लाल नेहरू ने एटनबरो से कहा कि फिल्म में गांधी जी को देवता की तरह ना दर्शाया जाए। वे लोगों के नेता थे, जन नायक थे इसलिये उन्हें उसी रूप में दिखाया जाए। अब एटनबरो के सामने पैसों की दिक्कत आ रही थी। महात्मा गांधी को लेकर वे जिस स्तर की फिल्म की कल्पना कर रहे थे उसमें काफी खर्चा होना तय था।
एटनबरो इस बारे में अभी भारत सरकार से बातचीत कर ही रहे थे कि जवाहर लाल नेहरू का निधन हो गया और फिल्म का प्रस्ताव लटक गया। दूसरी बार रिचर्ड एटनबरो ने 1976 में प्रमुख फिल्म निर्माण कंपनी वार्नर ब्रदर्स की मदद से गांधी जी पर फिल्म बनाने की कोशिश शुरू की। वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले। इंदिरा गांधी को याद था कि उनके पिता महात्मा गांधी पर फिल्म बनवाना चाहते थे। उन्होंने ना सिर्फ एटनबरो का उत्साह बढ़ाया बल्कि फिल्म के निर्माण के लिये करीब दल लाख अमरीकी डालर के बजट की स्वीकृति भी दिलायी।
लेकिन एटनबरो के लिये यह फिल्म बनाना आसान नहीं रहा। जितना बजट उन्हें फिल्म के लिये मिला था उसे लेकर भारतीय फिल्मकारों में खासा आक्रोश था। कुछ लोगों की दूसरी आपत्तियां भी थीं। इस फिल्म को रद्द करवाने के लिये मुंबई में कुछ बुद्धीजीवियों और फिल्मकारों ने एक समिती का गठन भी किया। ‘एकश्न कमेटी टू बॉयकाट फीचर फिल्म ऑन गांधी’ नाम की इस कमेटी के प्रमुख सदस्यों में फिल्मकार एम एस सथ्यू, गांधी मनीषी डाक्टर कुमारी ऊषा मेहता, सर्वोदय कार्यकर्ता मोहनभाई देसाई, स्वतंत्रता सेनानी कांतिभाई त्रिवेदी और फिल्मकार कांतिलाल राठौर शामिल थे।
कमेटी ने इस फिल्म के निर्माण को रोकने के लिए जो कोशिशें कीं उनमें तत्कालीन प्रधानमत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से मिल कर फिल्म को रूकवाने की प्रार्थना करना और संसद सदस्यों, राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम तथा सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों और सदस्यों से फिल्म के संदर्भ में असहयोग करने की अपील करना शामिल था। उधर हिंदी सिनेमा के कई दिग्गजों को भी यह बात नागवार गुजर रही थी कि आखिर एक विदेशी को भरात सरकार फिल्म बनाने के लिये इतना बड़ी रकम क्यों मुहैय्या करा रही है।
दूसरी ओर तत्कालीन केंद्रीय सूचना एंव प्रसारण मंत्री वसंत साठे ने सरकार के फैसले का बचाव करते हुए कहा कि गांधी जी पर फिल्म बनाना राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ में एक अच्छा प्रयास है। और इससे विदेशों में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। महात्मा गांधी सिर्फ हमारे देश की ही मोनोपली नहीं हैं, ईसा मसीह और मार्टिल लूथर की तरह वे एक विश्व्यापी व्यक्तित्व हैं। मगर विरोध होता रहा। और जब गांधी फिल्म बन कर रिलीज हुई तो रिचर्ड एटनबरो फिल्म बनाने के बारे में उभरी सारी आशंकाओं को दर किनार कर पूरी दुनिया में चर्चित हो गए।
फिल्म ‘गांधी’ ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता समेत आठ ऑस्कर जीते थे। गांधीजी पर बनी फिल्मों में रिचर्ड एटनबरो निर्देशित फिल्म ‘गांधी’ मील का पत्थर है। इस फिल्म को देखकर काफी कम समय में भारत की महानतम और जटिलतम शख्सियत महात्मा गांधी को समझा जा सकता है। सिनेमा के लिये गांधी जी शायद आज अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। अपने अपने नजरिये से फिल्मकार गांधी जी के विचारों को व्यक्त करते रहते हैं। शायद उन्हें गांधी को एक चरित्र की बजाय एक विचार के रूप में अपनी फिल्मों में प्रस्तुत करने में सहजता महसूस हो रही है। लेकिन अब जब महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती का मौका हो तो यह सवाल भी प्रासांगिक है कि गांधी को रिचर्ड एटनबरो की तरह सिनेमा के पर्दे पर पेश करने वाला कोई भारतीय फिल्मकार सामने क्यों नही आता। पता नहीं सवाल नजरिये में कमी का है या फिर पैसे की कमी का।
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Published: 01 Oct 2019, 6:59 PM