आकार पटेल का लेख: सभ्य लोकतंत्र की सक्रिय न्यायपालिकाएं करती हैं नागरिकों के अघिकारों की रक्षा

सभ्य लोकतंत्र में सक्रिय न्यायपालिकाएं उन चीजों पर मुहर लगाने के लिए उत्साही नहीं होतीं, जिन्हें राज्य उनके सामने रखता है और जो हमारे अधिकारों का उल्लंघन करता है।

फोटो: सोशल मीडिया 
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आकार पटेल

हम अक्सर भारत में एक वाक्य सुनते हैं कि “मुझे न्यायपालिका में पूरा भरोसा है” और यह भी कि “कानून अपना काम करेगा”।

मैं इन वाक्यों का इस्तेमाल नहीं करता और मुझे न्यायिक व्यवस्था बहुत कम भरोसा है। कानून भारत में बहुत कम ही अपना काम करता है। राज्य हमेशा नागरिकों का कुछ न कुछ नुकसान करने में लगा रहता है। मैं हाल के एक मामले के जरिये इसके उदाहरण देता हूं जिसके बारे में इन दिनों हम बहुत कुछ सुन रहे हैं। पिछले दिनों पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया जिन्हें हमारी सरकार और इसका मीडिया ‘अर्बन नक्सल या शहरी नक्सल’ कह रहा है।

मैं पाठकों से यह अनुरोध करूंगा कि इन लोगों के बारे में अपनी राय को वापस लें, खासतौर पर अगर वो राय मीडिया में वे जो पढ़ या सुन रहे हैं उस आधार पर बनी है। वह बकवास है। किसी भी सभ्य लोकतंत्र में (जो भारत नहीं है) उन लोगों को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था। वहां ऐसा नहीं होता क्योंकि सभ्य लोकतंत्र में सक्रिय न्यायपालिकाएं होती हैं जो नागरिकों के अधिकार की रक्षा करती हैं। वे उन चीजों पर मुहर लगाने के लिए उत्साही नहीं होते जिन्हें राज्य उनके सामने रखता है और जो हमारे अधिकारों का उल्लंघन करता है। मैं यह स्वीकार करता हूं कि इस मामले में न्यायपालिका ने भी इसके भीतर की दिक्कतों को जाहिर किया है। मेरा मतलब सुप्रीम कोर्ट से नहीं, बल्कि दिल्ली हाई कोर्ट से है। दो जजों की एक बेंच गिरफ्तार किए गए पांच लोगों में से एक गौतम नवलखा की गिरफ्तारी और ट्रांजिट रिमांड की सुनवाई कर रही थी। इस कोर्ट का आदेश जिसे जस्टिस एस मुरलीधर ने पढ़कर सुनाया, वह एक कमाल का दस्तावेज है जिसे हर नागरिक को पढ़ना चाहिए। दस पन्नों का यह दस्तावेज साफगोई, स्पष्टता और सौम्यता से अपनी बात रखता है।

इसमें कहा गया:

28 अगस्त को गौतम नवलखा को दिल्ली से गिरफ्तार किया गया। पुलिस के पास सर्च वारंट नहीं था और इसलिए पुलिस को उनके घर में घुसने नहीं दिया गया। वे चले गए और वापस वारंट लेकर आए।

इस केस का आधार एक एफआईआर था जो 31 दिसंबर 2017 को हुए एक कार्यक्रम को लेकर था। उस एफआईआर में गौतम का नाम नहीं था। उन्होंने कहा कि वह उस कार्यक्रम में मौजूद भी नहीं थे। गैरकानूनी गतिविधि प्रतिबंध कानून (यूएपीए) (जिस कानून को सरकार आतंकवाद के खिलाफ इस्तेमाल करती है) का आरोप मूल एफआईआर में पहले दर्ज नहीं था। इसमें सिर्फ सौहार्द बिगाड़ने को लेकर धाराएं लगाई गई थीं। गौतम को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें पुणे ले जाना था। साकेत कोर्ट के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट मनीष खुराना ने उन्हें पुणे ले जाने के लिए ट्रांजिट रिमांड का आदेश दे दिया। ट्रांजिट रिमांड का आवेदन हिंदी में दिया गया था। जबकि मजिस्ट्रेट के सामने जो ज्यादातर दस्तावेज प्रस्तुत किए गए वे मराठी में थे।

दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा: “इन दस्तावेजों से यह पता लगाना संभव नहीं है कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आखिर मामला क्या है।” एक नागरिक के तौर पर हमें यह सवाल पूछना चाहिए: तो मजिस्ट्रेट के द्वारा ट्रांजिट रिमांड का आदेश क्यों दिया गया?

दिल्ली हाई कोर्ट ने यह आदेश दिया कि इस केस की अगले दिन सुनवाई की जाएगी, और जो दस्तावेज दिखाए गए हैं उन्हें मराठी से अनुवाद किया जाए। इस बीच गौतम को वापस उस जगह ले जाना था जहां से पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था।

अगली सुबह पुलिस के वकील ने कहा कि अनुवाद में काफी समय लग रहा है तो कोर्ट ने उन्हें दोपहर तक का वक्त दे दिया। दोपहर 2 बजकर 15 मिनट पर कोर्ट को दस्तावेज के कुछ पन्ने दिखाए गए, जिसमें अंग्रेजी में अनुवाद हुआ एफआईआर भी था। लेकिन अभी भी ज्यादातर दस्तावेज मराठी में ही थे।

पुलिस के वकील ने और समय मांगा जो कोर्ट ने नहीं दिया। कोर्ट ने तब कहा कि उसे “इस गिरफ्तारी और चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (सीएमएम) द्वारा पास किए गए ट्रांजिट रिमांड को लेकर चिंता है”। कोर्ट ने कहा कि एफआईआर में गौतम नवलखा का नाम नहीं है, तो सीएमएम के सामने क्या साक्ष्य प्रस्तुत किए गए। कोर्ट ने वहां मौजूद महाराष्ट्र पुलिस के अधिकारियों से सवाल किया: “क्या माननीय सीएमएम के सामने सुनवाई के वक्त उन्होंने उस केस डायरी को देखने के लिए मांगा जिसमें कथित तौर पर याचिकाकर्ता के इस मामले से जुड़ाव से संबंधित दस्तावेज मौजूद थे।”

पुलिसवालों ने नहीं में जवाब दिया। फिर यह सामने आया कि केस डायरी भी मराठी में है। पुलिस के वकील ने फिर कहा कि गौतम नियमित जमानत के लिए आवेदन दे सकते थे इसलिए वहां एक वास्तविक समस्या थी। इसके जवाब में हाई कोर्ट ने बताया कि यूएपीए के तहत “नियमित जमानत लेना बहुत ही मुश्किल होता है” जब तक कि चार्ज शीट दाखिल न हो जाए।

29 अगस्त को मामले की सुनवाई के इस मौके पर पुलिस के वकील ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप कर दिया है। उसके बाद हाई कोर्ट ने कहा कि अब हमारे लिए ट्रांजिट रिमांड की वैधता के बारे में सुनवाई जारी रखना सही नहीं होगा।

जैसा कि हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट 6 सितंबर को इस मामले की फिर से सुनवाई करने वाला है। हम सारे लोग काफी दिलचस्पी से देख रहे हैं कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला देता है।

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