खरी-खरी: जिन्ना से लेकर बाबरी एक्शन कमेटी और अब ओवैसी तक, इनकी राजनीति से नुकसान ही हुआ है मुस्लिम समाज का
इतिहास साक्षी है कि शुद्ध मुस्लिम मंच एवं मुस्लिम नेतृत्व जिन्ना एवं लीग के समय से अब तक मुस्लिम हित में साबित नहीं हुआ। ऐसे में ओवैसी की भावुक राजनीति में उत्तर प्रदेश के मुसलमान को अपना वोट बर्बाद नहीं होने देना चाहिए।
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष असद्दुद्दीन ओवैसी इन दिनों खबरों में छाए हुए हैं और होने भी चाहिए। पिछले सप्ताह उत्तर प्रदेश में उनके काफिले पर गोली चली और बस देखते-देखते ओवैसी मीडिया में छा गए। पता नहीं कि यह केवल एक इत्तफाक है अथवा कोई सोचा-समझा राजनीतिक प्लाट। जब-जब देश में चुनाव होते हैं, तब-तब ओवैसी खबरों में होते हैं। वैसे भी, उनके आलोचक उनको बीजेपी की बी टीम का प्लेयर कहते हैं। राजनीति में इस तरह के खेल होते भी हैं।
ओवैसी के मामले में सच क्या है, यह तो भगवान ही जानें। परंतु इस बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता है कि ओवैसी खुलकर ‘मुस्लिम हित’ की बात करते हैं। सदन के भीतर और बाहर एवं टीवी पर और अपने भाषणों में वह बगैर किसी झिझक के मुस्लिम समस्याएं उठाते हैं। इतना ही नहीं, उनका विचार है कि देश में मुस्लिम समाज का अपना एक राजनीतिक प्लैटफार्म होना चाहिए जो दलितों एवं पिछड़ों के साथ मिलकर काम करे। इसी कारण वह मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी के अध्यक्ष भी हैं।
ओवैसी के तर्क में काफी अपील एवं दम है। इस देश में हर धर्म एवं सामाजिक समूह की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टी है। हिन्दुओं के हित में काम करने के लिए राष्ट्रवादी बीजेपी है। पिछड़ों के लिए अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग नेता एवं राजनीतिक मंच हैं। मसलन बिहार में लालू और आरजेडी, उत्तर प्रदेश में मुलायम-अखिलेश और उनकी समाजवादी पार्टी। तमिलनाडु में स्टालिन एवं द्रमुक। इसी प्रकार दलितों की नेता मायावती एवं बहुजन समाज पार्टी है। ऐसी स्थिति में ओवैसी के तर्क के अनुसार मुसलमानों का भी एक मुस्लिम दल एवं मुस्लिम नेता होना चाहिए जो मुस्लिम हित में कार्यरत हो।
जैसा अभी कहा कि इस तर्क में काफी दम है। परंतु क्या ओवैसी का मंच एवं उनकी खुली मुस्लिम हित की राजनीति वाकई मुस्लिम हित में है। इस मुद्दे पर खुली चर्चा होनी चाहिए। स्वयं मुस्लिम वर्ग में इस बात पर बहस होनी चाहिए कि क्या खुली मुस्लिम हित की राजनीति इस देश के मुस्लिम समाज के पक्ष में है।
इस संबंध में सबसे पहली बात यह है कि ‘मुस्लिम हित के लिए मुस्लिम मंच एवं मुस्लिम नेता’ का तर्क कोई ओवैसी का अपना निजी विचार नहीं है। यह विचारधारा मुस्लिम समाज में आजादी से पहले सक्रिय रही है। इसी विचारधारा के तहत सन 1906 में शुद्ध मुस्लिम राजनीतिक मंच मुस्लिम लीग की स्थापना हुई जिसका नेतृत्व मोहम्मद अली जिन्ना ने किया। जिन्ना ने खुलकर ‘मुस्लिम हित’ की बात की और अंततः उनके नेतृत्व में लीग ने भारतीय उपमहाद्वीप के बंटवारे का प्रस्ताव रखा और 1947 में भारत का बंटवारा हो गया जिसके नतीजे में पाकिस्तान की स्थापना हुई।
परंतु क्या खालिस मुस्लिम प्लेटफार्म लीग एवं विशुद्ध मुस्लिम नेता जिन्ना की राजनीति से भारतीय मुसलमान की समस्याएं हल हो गईं? देश के बंटवारे का सबसे अधिक खामियाजा हिन्दुस्तानी मुसलमान को झेलना पड़ा। लाखों लोग मारे गए। इस देश का मुसलमान बांग्लादेश की स्थापना के बाद तीन टुकड़ों में बंट गया और भारत में वह अल्पसंख्यक बनकर अपनी राजनीतिक शक्ति खो बैठा। फिर संघ ने और सांप्रदायिक राजनीति ने इस देश में रहने वाले मुसलमान को बंटवारे का जिम्मेदार ठहराकर हमेशा के लिए हिन्दू समाज के गद्दार एवं देशद्रोही की छवि दे दी। कुल मिलाकर जिन्ना की ‘खालिस मुस्लिम हित’ की राजनीति को इस देश का मुसलमान आज तक झेल रहा है। स्पष्ट है कि आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग एवं मुस्लिम नेतृत्व की राजनीति भारतीय मुसलमान के लिए महंगा सौदा साबित हुई।
मुस्लिम हित, मुस्लिम मंच एवं मुस्लिम नेतृत्व विचारधारा आजादी के बाद भी बीच-बीच में मुस्लिम समाज में उठती रही। इसी विचारधारा के तहत सन 1968 में उत्तर प्रदेश में डॉ. अब्दुल जलील फरीदी ने मुस्लिम मजलिस की स्थापना की। डॉ. फरीदी ने भी मुस्लिम, पिछड़ों एवं दलितों की एकता का मुद्दा उठाया। इसी आधार पर मुस्लिम मजलिस ने पिछड़ों के नेता चरण सिंह के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई। सन 1977 में इमर्जेंसी के बाद ‘खालिस मुस्लिम हित’ की मुस्लिम मजलिस, जनसंघ एवं अन्य कांग्रेस विरोधी दलों के साथ मिलकर जनता पार्टी में शामिल हो गई तथा उत्तर प्रदेश एवं केन्द्र में सत्ता में भागीदारी भी निभाई। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मजलिस से कितनी मुस्लिम हित की प्राप्ति हो सकी, यह तो इतिहास ही तय करेगा। परंतु आज मुस्लिम मजलिस का नाम भी सुनाई नहीं पड़ता है।
परंतु सन 1986 से बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद मुस्लिम राजनीतिक मंच तो नहीं अपितु एक अर्ध धार्मिक (सेमी रिलिजियस) मंच का गठन हुआ जो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नाम से चर्चित हुआ। इसका उद्देश्य बाबरी मस्जिद की सुरक्षा था। इस मंच से शहाबुद्दीन एवं मौलाना बुखारी एवं युवा मुस्लिम नेता जावेद हबीब और आजम खां जैसे लोग जुटे हुए थे। इस मंच को मुस्लिम धार्मिक उलेमा का भी सहयोग हासिल था। फिर इसी समय में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के साथ-साथ तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी सक्रिय हो गया। इन दोनों मंचों से खुली मुस्लिम हित की राजनीति हुई।
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने उत्तेजनापूर्ण बड़ी-बड़ी मुस्लिम रैलियां कीं। इसके जवाब में विश्व हिन्दू परिषद एवं बजरंग दल तथा अंततः बीजेपी राम मंदिर के पक्ष में कूद पड़े। नतीजा क्या हुआ। ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम अर्थात सन 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। देशव्यापी दंगे जो फूटे उसमें हजारों मुसलमान मारे गए। उधर ‘खालिस मुस्लिम हित’ की प्रतिक्रिया में ‘खालिस हिन्दू मंच’ बीजेपी देशव्यापी पार्टी के रूप में बनकर उभरी। आज हाल यह है कि देश नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दू राष्ट्र की कगार पर है और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का कहीं अता-पता नहीं है।
फिर, ओवैसी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की पार्टियों में अच्छे रिश्ते रहे हैं। ओवैसी परिवार के नेतृत्व में हैदराबाद के गरीब मुसलमान की कितनी समस्याएं हल हो गईं, यह सब जानते हैं। हां, ओवैसी परिवार के नेतृत्व में चलने वाले ट्रस्ट के तहत बड़े-बड़े इंजीनियरिंग एवं मेडिकल कालेज तथा दूसरे शिक्षा संस्थान चल रहे हैं। इनमें मोटी फीस देकर अरब की कमाई पर पैसे वालों के बच्चे ही पढ़ते हैं। गरीब मुसलमान इन संस्थानों से कम ही लाभान्वित हो पाता है।
इतिहास साक्षी है कि शुद्ध मुस्लिम मंच एवं मुस्लिम नेतृत्व जिन्ना एवं लीग के समय से अब तक मुस्लिम हित में साबित नहीं हुआ। ऐसे में ओवैसी की भावुक राजनीति में उत्तर प्रदेश के मुसलमान को अपना वोट बर्बाद नहीं होने देना चाहिए। ऐसी राजनीति का फायदा बीजेपी को ही मिलेगा। उत्तर प्रदेश के मुसलमान को इस चुनाव में जज्बात नहीं बल्कि सद्बुद्धि से काम लेना होगा।
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