जंगल और जमीन पर इंसानी लालच का साया
जंगल और जमीन से जुड़ी अदूरदर्शी नीतियों के केन्द्र में फौरी कमाई है। असली मकसद तो निर्माण, रियल एस्टेट, रेत-खनन और सीमेंट एवं इस्पात उत्पादन है।
केंद्र सरकार पैसे कमाने वाली परियोजनाओं के लिए भारत के वन क्षेत्र के बड़े हिस्से को तबाह करने के लिए व्यवस्थित रूप से रियल एस्टेट डेवलपर्स और अन्य कॉर्पोरेट्स को छूट दे रही है। इसका रास्ता सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में संशोधन करके उन छोटे-छोटे वन क्षेत्रों को इसके दायरे से हटाकर साफ किया जो कानूनन संरक्षण के भागी नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में एक आदेश दिया था जिसके अनुसार जंगल के हर हिस्से को, चाहे वह किसी के भी मालिकाना हक में हो, संरक्षित किया जाना था - भले ही सरकार के रिकॉर्ड ने उस हिस्से को जंगल के रूप में मान्यता दी हो या नहीं। यह आदेश इस तथ्य के जवाब में था कि सरकार के रिकॉर्ड निहायत आधे-अधूरे थे और किसे जंगल कहा जाए, इस मामले में एक तो परिभाषा अस्पष्ट थी और अलग-अलग राज्यों के मामले में इसमें एकरूपता नहीं थी। अदालत ने यह भी कहा था कि हर राज्य में विशेषज्ञ समितियां गठित की जाएं ताकि राज्य के भीतर उन सभी वन क्षेत्रों की पहचान की जा सके जिन्हें सरकारी रिकॉर्ड में मान्यता नहीं दी गई थी और फिर उन्हें आधिकारिक मान्यता दी जाए ताकि उन्हें कानून के तहत संरक्षित किया जा सके।
हालांकि एक पत्रकार समूह द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार, 2014 तक- यानी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पूरे अठारह साल बाद- हरियाणा, बिहार, गुजरात और महाराष्ट्र सहित कई राज्य सरकारों ने वन क्षेत्रों की पहचान करने और उन्हें शामिल करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया था। सरकारी रिकॉर्ड की इसी कमी का फायदा केंद्र सरकार ने उठाया। होना तो यह चाहिए था कि वह सुनिश्चित करती कि राज्य सरकारें अदालत के आदेश का पालन करें, या कम-से-कम विशेषज्ञ समिति बनाकर यह जानने की कोशिश करती कि इस तरह के कितने क्षेत्र हैं। लेकिन राज्यों की इस ढिलाई का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही निष्प्रभावी करने के लिए किया गया।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन के बचाव में जो दलील देते हैं, वह समझ से परे है। ऐसा लगता है कि यह कदम निजी वृक्षारोपण को वनों के रूप में परिभाषित किए जाने के डर से जुड़ा हुआ है जिससे बागान-मालिकों को अपनी भूमि का उपयोग अपनी इच्छानुसार करने से रोका जा सकता है। यही वजह है कि वृक्षारोपण की वृद्धि ठहर सी गई है और हरित आवरण कम हो गया है।
पहली बात तो यह है कि इस ‘डर’ का कोई स्वतंत्र और अनुभव आधारित प्रमाण नहीं है। दूसरी, क्या इसका आसान समाधान यह नहीं होगा कि कानून को ही खत्म करने के बजाय वनों और वृक्षारोपण के बीच विशिष्ट कारकों को स्पष्ट रूप से चित्रित किया जाए? सरकार का इरादा स्पष्ट रूप से देश के जंगलों की रक्षा करना नहीं बल्कि उन्हें व्यावसायिक दोहन के लिए खोलना है। हालांकि खोले जाने वाले वन क्षेत्र की सटीक सीमा ज्ञात नहीं है लेकिन पर्यावरणीय क्षति की सीमा निस्संदेह बहुत अधिक होगी।
उदाहरण के लिए, हरियाणा के अंतर्गत आने वाली अरावली पर्वतमाला को कवर करने वाले पेड़ों को आधिकारिक तौर पर जंगल के रूप में दर्ज नहीं किया गया है। राजधानी से निकटता इस क्षेत्र को वाणिज्यिक परियोजनाओं के लिए एक संभावित और आकर्षक स्थान के रूप में चिह्नित करती है जो एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) से बहुत जरूरी हरियाली छीन लेगी।
सवाल वनों पर निर्भर हमारी आबादी की आजीविका का भी है। सरकार द्वारा आजीविका का कोई वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध नहीं कराए जाने के कारण दलित और आदिवासी समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई संगठनों ने मोदी सरकार के एफसीए में संशोधन के खिलाफ कड़ा विरोध जताया है।
जमीन न केवल एक दुर्लभ संसाधन है, यह एक ऐसा संसाधन है जिसे समय के साथ आसानी से नहीं बढ़ाया जा सकता। चूंकि रोजगार और खाद्य सुरक्षा जैसे सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भूमि-उपयोग का पैटर्न बहुत अहम है, इसलिए इसे बाजार भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। भले ही जमीन सामाजिक स्वामित्व में न हो, भूमि-उपयोग का निर्धारण सामाजिक रूप से होना चाहिए। इसका मतलब यह है कि भले ही जमीन के टुकड़े के संभावित खरीदार और विक्रेता भूमि-बिक्री से जुड़े एक निश्चित लेनदेन पर सहमत हों, उस बिक्री की अनुमति केवल तभी दी जानी चाहिए जब लेन-देन के उपरांत उस जमीन के संभावित इस्तेमाल को समाज मंजूरी देता हो। इसे केरल में देखा जा सकता है जहां सरकार ने कानून बनाकर ऐसी व्यवस्था की है कि धान की खेती की जमीन का इस्तेमाल दूसरी फसल उगाने में नहीं किया जा सकता।
1996 में सुप्रीम कोर्ट का आदेश जिसने अन्य उद्देश्यों के लिए वन भूमि के डायवर्जन को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया, चाहे उसका मालिक कोई भी हो, इसे उपरोक्त सिद्धांत को ही एक व्यापक स्तर पर अमल में लाने की कोशिश और मुक्त बाजार पर अंकुश के कदम के तौर पर देखा जा सकता है। हालांकि बाजार के संचालन पर अंकुश लगाने की आवश्यकता बहुत व्यापक है और यह इस सरल सिद्धांत पर आधारित है कि समाज के हितों की सुरक्षा निजी हितों की सुरक्षा से कहीं ज्यादा जरूरी है।
वास्तव में, भूमि-उपयोग के मामले में और समकालीन भारत के संदर्भ में सामाजिक हित की तुलना में निजी हित की सुरक्षा एक दूसरे से भिन्न है। इसका कारण यह है कि बाजार बहुत से लोगों (अर्थात कामकाजी गरीबों) की जरूरतों के लिए भूमि के उपयोग को उस भूमि-उपयोग में तब्दील करता है जो कुछ लोगों के हितों को पूरा करता है।
एक स्पष्ट सुधारात्मक तंत्र यह होगा कि राज्य के स्वामित्व वाले निगम के पास बाजार में बिक्री के लिए आने वाली किसी भी भूमि को खरीदने का पहला अधिकार हो। इसके बाद वह जमीन को किसी खरीदार को बेच सकता है जो इसका उपयोग केवल ‘अनुमोदित उद्देश्यों’ के लिए करे। या इसका उपाय यह भी हो सकता है कि वह सरकारी निगम किसी जमीन की बिक्री की इजाजत तभी दे जब इसका अंतिम उपयोग ‘अनुमोदित उद्देश्यों’ के लिए हो और अगर इसका उल्लंघन हुआ तो उस स्थिति में दंड का प्रावधान हो।
हालांकि मोदी सरकार विपरीत दिशा में काम कर रही है- बाजार जमीन का इस्तेमाल जिस काम के लिए करना चाहता है, सरकार उसके लिए सारा जोर लगा देती है। इसके तहत पहला बदलाव यह होता है कि छोटी-छोटी जमीन के टुकड़े जो अलग-अलग कई लोगों के स्वामित्व में होते हैं, वे एक ही व्यक्ति के स्वामित्व में आ जाते हैं। इस तरह जमीन के सामाजिक स्वामित्व की प्रकृति निजी स्वामित्व में बदल जाती है और इसके साथ ही जमीन के उपयोग का उद्देश्य भी बदल जाता है। पहले जहां छोटे-छोटे भू-स्वामी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए जमीन का उपयोग करते थे, अब उसकी जगह बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए जमीन का इस्तेमाल होने लगता है।
2020 के तीन कुख्यात कृषि कानून इसी तरह के लक्ष्य को हासिल करने के लिए बनाए गए थे। भारतीय खाद्य निगम को बेचे जाने वाले अनाज उपजाने की जगह महानगर के लिए नकदी फसलों का उत्पादन करना।
अब, वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन भी यही करने का प्रयास है - वनों से भूमि उपयोग को रियल एस्टेट, गोल्फ कोर्स या महानगरों और घरेलू अमीरों द्वारा मांग की जाने वाली अन्य वस्तुओं की ओर स्थानांतरित करना जबकि वनों पर निर्भर आबादी को दृश्य से बाहर कर देना।
(आईपीए सेवा। सौजन्य: पीपुल्स डेमोक्रेसी)
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