जीतकर लौट रहे हैं किसान, इसी को तो क्रांति कहते हैं...
अब जब यह लौट रहे हैं तो इनके पास लोकतंत्र को जिंदा रखने का तजुर्बा है, अमन के रास्ते पर चलते हुए अंहकार में डूबी सरकार को यू टर्न लेने पर मजबूर करने का हुनर है, और यही हुनर किसान उस समाज में बिखरेंगे जो लोकतंत्र को याद करता है, इसी को तो क्रांति कहते हैं।
हाथ में तिरंगा, सिर पर आत्म-सम्मान का साफा-पगड़ी-टोपी, चेहरों पर मेहनतकशी का नूर, आंखों में संकल्प की दृढ़ता, देहभाषा सेवाभाव वाली और भिंची मुट्ठियों से सत्ता के नशे में डूबी निरंकुश और अहंकारी सरकार को चुनौती देते हुए कदमों का कारवां जब 380 दिन पहले दिल्ली की दहलीजों पर दस्तक देने आया, तो शायद ही किसी ने अनुमान लगाया होगा कि वे जीतकर लौटेंगे।
लेकिन वे जीत कर ही लौट रहे हैं...वे गाते-बजाते-गूंजते लौट रहे हैं किसी शबद की तरह, किसी आयत की तरह, किसी कीर्तन की तरह...(कवि वीरेंदर भाटिया की कविता से लिए शब्द)
लेकिन यह जीत क्या सिर्फ किसानों की जीत है, क्या सिर्फ पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों का विजय मार्च है, (यूं तो पूरे देश के किसान आंदोलित थे, लेकिन इन्हीं तीन राज्यों के किसान मुखर होकर सर्वाधिक सरकार से लोहा ले रहे थे)। उनकी इस जीत ने लोकतंत्र की झोली भर दी, उन्होंने अपने आंदोलन से लोकतंत्र की ढीली पड़ चुकी और खोखली की जा रही चूलों को मजबूत किया है।
वे जब आ रहे थे, तो उन्हें पता था कि उनका सामना निरंकुश सत्ता के घमंड से है। इसका एहसास तो उन्हें दिल्ली के द्वार पहुंचने से पहले ही करा भी दिया गया था जब नवंबर की सर्दी में उन पर जल तोपों से हमला किया गया, उन्हें रोकने के लिए बर्बर लाठीचार्ज किया गया, उनकी आंखों में जमे मजबूत संकल्प को आंसू गैस के गोलों से धुंधला किया गया, लेकिन जो जमीन का सीना चीरकर अनाज पैदा कर सकते हैं, वे भला इस सबसे कहां डरते, डिगते।
सत्ता ने मुनादी करा दी थी कि इन्हें राजधानी में नहीं आने देना है कि इससे दिल्ली की सल्तनत की नींव हिल सकती है, उन्हें भेड़ों के झुंड की तरह हांक कर शहर के बाहर एक बाड़े नुमा मैदान में जाने का रास्ता दिखाया गया, दिल्ली आने वाले रास्तों पर खाइयां खोद दी गईं, कांटे बिछा दिए गए, लेकिन जो मौसम के हर रूप को प्रकृति का उपहार समझकर खेतों को नमन करते हों, आंधी-पानी, लू के थपेड़ों के बीच अपने श्रम और पसीने से भूमि को ऊर्वर बनाते हों, वे कहां रुकने वाले थे, वे अडिग होकर जम गए, दिल्ली के दरवाजों पर।
उनका सामना सिर्फ बहुमत के मद में चूर में सत्ता से ही नहीं था, उनके सामने तो कार्पोरेट भी था और कार्पोरेट और सरकार के खतरनाक गठजोड़ की बैसाखी पर चलता मीडिया भी, पुलिस तो थी ही, इंटरनेट और सोशल मीडिया का माफिया भी उनके सामने ही था। लेकिन अटल इरादों के साथ खेत-आँगन छोड़कर आए किसानों को पता था कि ये मुश्किलें तो उनके सामने आएंगी ही, उनका रास्ता रोकेंगी। इसीलिए उन्होंने दिल्ली के द्वारों को ही शहर बना दिया, एक ऐसा शहर जहां सब बराबर थे, सबकी सरकार थी, सबके लिए भोजन की गारंटी थी, सबके लिए सबीलें थीं, लंगर थे, सबके लिए सेवा थी, सबकी सेहत का ख्याल था।
खुद को तीसमारखां समझने वाली सत्ता बेचैन हो उठी थी, जोर-जबरदस्ती नाकाम हो चुकी थी, तो फिर एक सिलसिला शुरु किया गया गाली-गलौज का, साजिशों का, बदनाम करने का, आंतकवादी-पाकिस्तानी-खालिस्तानी कहने का, लेकिन अडिग अन्नदाता बेफिक्र था, उसे पता था कि वह हक की लड़ाई लड़ रहा है और जीत तो हक की ही होती है।
शताब्दी जैसे लंबे एक साल में किसानों ने क्या कुछ नहीं सहा, मौसम की मार, साथियों की शहादत, बेइज्जती, बदनामी...लेकिन वे झुके नहीं। उन्होंने लोगों को एक सीख देना शुरु कर दी। पूरे आंदोलन की खूबी और खासियत वह लंगर रहे, जो कदम-कदम पर सिंघु, टिकरी, गाजीपुर बॉर्डर पर लगे थे। आंदोलन ने सिखाया कि कोई भूखा नहीं सोएगा, जो आंदोलन में है वह भी और जो सिर्फ टोह लेने आया है वह भी। सेवाभाव ने पूरे आंदोलन का मनोबल मजबूत किया और आंदोलन में लगे लंगर आमतौर पर लगने वाले लंगरों से कई कदम आगे रहे। न कोई छोटा, न कोई बड़ा, न कोई जाति, न कोई धर्म, जो पंगत में बैठ गया, उसे भोजन परोसा गया, सबने एक ही कतार में खाया और अपने अपने रब का शुक्र अदा किया...
एक ही सफ में बैठ गए महमूद-ओ-अयाज़
न कोई बंदा रहा न कोई बंदा नवाज़
लेकिन पूरे आंदोलन को बदनाम करने का एक सुनियोजित दौर शुरु किया गया। किसानों ने मीडिया के उस धड़े को समय से पहले ही पहचान लिया। और कृषि कानूनों की तारीफों के पुल बांधने वाले, किसानों को गुंडा और न जाने किस-किस उपाधि से संबोधित करने वाले ‘गोदी मीडिया’ का खुला बहिष्कार किसानों ने किया, सच्चे पत्रकारों का स्वागत किया, उन्हें गले लगाया। सोशल मीडिया की ताकत और उसकी पहुंच को भी किसानों ने समझ लिया था। किसानों ने मीडिया के जवाब में ‘ट्रॉली टाइम्स’ शुरु किया और किसान मोर्चा के नाम से सोशल मीडिया के सभी माध्यमों पर अपनी मौजूदगी न सिर्फ दर्ज कराई, बल्कि हजारों किसानों को इसका इस्तेमाल भी सिखाया।
इस एक साल में किसानों ने सियासी चालबाजियों से निपटना, मीडिया को तुर्की ब तुर्की जवाब देना, संकट के समय धैर्य रखते हुए उसका समाधान निकालना...सबकुछ सीखा। इन्होंने यह भी सीखा कि राजनीति की चुपड़ी बातों और झांसे से कैसे निपटें, सरकार से 11 दौर की बातचीत में भी कोई नतीजा न निकलने से मायूस न होना भी इन्होंने सबक की तरह ही समाज के सामने रखा।
अब जब यह लौट रहे हैं तो इनके पास लोकतंत्र को जिंदा रखने की कड़ी ट्रेनिंग का तजुर्बा है, अमन के रास्ते पर चलते हुए अंहकार में डूबी सरकार को यू टर्न लेने पर मजबूर करने का हुनर है, और यही हुनर किसान लौटकर उस समाज में बिखरेंगे जो लोकतंत्र को याद करता है, इसी को तो क्रांति कहते हैं।
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