ईवीएम और चुनाव की पारदर्शिता पर उठते सवाल

संविधान निर्माताओं के लिए वोट की समानता इतनी अहम थी कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग को असीमित अधिकार दिए गए। लेकिन हाल के दौर में यह लगता है कि चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के बजाय ईवीएम के संरक्षण को लेकर ज्यादा चिंतित है।

फोटोः सोशल मीडिया
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गौहर रजा

देश में संविधान की प्रस्तावना (प्रिएंबल) को इससे पहले इतने व्यापक स्तर पर और इतनी बार नहीं पढ़ा गया। बीते डेढ़ माह में हमने देखा है कि संविधान के शुरुआती पृष्ठ का देश भर में बड़े पैमाने पर पाठ किया गया। हर चुनाव से पहले आम नागरिक जिन चिंताओं से गुजरता है उन पर बात करने से पहले मैं संविधान की प्रस्तावना के कुछ अंश दोहरा रहा हूं। “हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्णप्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और उसके समस्त नागरिकों कोः सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार की अभिव्यक्ति, आस्था, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए; और उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिए...।”

न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सदियों पुराने अर्थ में बदलाव आया है। उदाहरण के लिए, ऊंची जाति और दलितों के बीच में समानता का कोई बोध नहीं था, समानता एक जाति के भीतर ही सीमित थी। जब संविधान लिखा गया तब यह बोध बदल गया था, सभी मनुष्यों के बीच समानता एक स्थापित धारणा बन चुकी थी, जिसमें लैंगिक समानता भी शामिल थी।

प्रस्तावना न्यूनतम संभव शब्दों में स्पष्ट रूप से एक ‘संप्रभु समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश’ के सपने को रेखांकित करती है। यदि हम अपने आस-पास देखें, यह स्पष्ट है कि इस प्रस्तावना को अपनाते समय हमने जिन उद्देश्यों की उद्घोषणा की थी उनमें से किसी को भी हासिल नहीं किया है। सभी के लिए न्याय, स्वतंत्रता और समानता दूर का सपना बने हुए हैं और बंधुत्व अभी भी टूटा-फूटा है। फिर भी, यह निर्विवादित है कि जिस दिन हमने संविधान को अपनाया था, तो ‘वोट के अधिकार’ ने प्रत्येक व्यक्ति को एक समान नागरिक बना दिया और मतदान के दिन हमें याद दिलाया जाता है कि हम लोकतंत्र में बराबर के साझीदार हैं।

उस दिन धार्मिक, जातिगत, आर्थिक, भाषाई, लैंगिक और क्षेत्रीय बाधाएं दूर हो जाती हैं और हम में से प्रत्येक का एक वोट होता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि मतदाता को घूस देना या डराना उस समानता को तहस-नहस करना है, जिसे संविधान ने सुनिश्चित किया है। मतों की चोरी भी बड़ा अपराध है। संविधान निर्माताओं के लिए वोट की समानता इतनी महत्वपूर्ण थी कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग को असीमित अधिकार दिए गए। फिर भी, हाल के दौर में यह लगता है कि चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के बजाय ईवीएम के संरक्षण के बारे में ज्यादा चिंतित है।


‘छेड़छाड़ रहित कोई ईवीएम नहीं है’ के सबूत बढ़े हैं, लेकिन चुनाव आयोग इसे मानने से इनकार करता है। मनुष्य ने ऐसी किसी मशीन का आविष्कार नहीं किया है जिसे हैक नहीं किया जा सकता। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव दो कारकों पर निर्भर हैं। पहला, पूरी प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए और दूसरा, लोगों का इस पर भरोसा होना चाहिए। जिस क्षण हम चुनावी प्रक्रिया में ईवीएम को लाते हैं तो पारदर्शिता किनारे लग जाती है। मतदाता को एक बटन, एक लाइट और ब्लैक बॉक्स पर विश्वास करने के लिए कहा जाता है, जिसके बारे में हमें बताया जाता है कि जो मत जैसा डाला गया है यह प्रक्रिया उसे वैसा ही रिकॉर्ड करती है और यहीं से अविश्वास शुरू होता है।

यहां तक कि बीते दिनों में जिन पार्टियों और उम्मीदवारों ने चुनाव जीते हैं, वे भी इस पर भरोसा नहीं करते। चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर विश्वास करने वालों की बजाय अविश्वास करने वालों की संख्या बढ़ रही है और अधिकाधिक नागरिक चिंतित हो रहे हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के प्रदर्शन पर एक नागरिक अपनी राय व्यक्त करने के लिए धैर्य के साथ पांच वर्ष इंतजार करता है। डर यह है कि जब लोग चुनाव प्रक्रिया पर भरोसा खोते हैं तो वे अपनी मंशा को दृढ़ता से प्रकट करने के लिए अन्य साधनों का इस्तेमाल करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर चुनाव आयोग को वीवीपैट को लागू करना पड़ा। यह प्रिंटर और कुछ नहीं, बल्कि एक यांत्रिक बैलेट पेपर प्रिंटिंग मशीन है। इसमें संदेह नहीं कि यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत मात्र इसलिए अधिक पारदर्शी है, क्योंकि आप अपने वोट की प्रिंट कॉपी देख सकते हैं। लेकिन यह भी पूरी तरह से पारदर्शिता को सुनिश्चित नहीं करती।

बारबरा सिमॉन्स (पीएचडी, पूर्व बोर्ड चेयर, आईबीएम रिसर्च), डेविड एल. डिल (पीएचडी, डोनाल्ड ई नूथ प्रोफेसर, एमेरिटस, स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी और ‘वेरिफाइड वोटिंग’ के संस्थापक) जोसेफ लोरेंजो हॉल (पीएचडी, सीनियर वाइस प्रेसिडेंट फॉर ए स्ट्रोंग इंटरनेट एट द इंटरनेट सोसायटी), डेविड जैफरसन (पीएचडी, कंप्यूटर वैज्ञानिक, लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी), रोनाल्ड एल. रिवेस्ट (पीएचडी, एमआईटी इंस्टीट्यूट प्रोफेसर ऑफ कंप्यूटर साइंस) और केविन शेली, जे.डी. (कैलिफोर्निया राज्य के पूर्व सचिव) द्वारा संचालित ‘वेरिफाइड वोटिंग ब्लॉग’ में हाल में प्रकाशित एक लेख में निष्कर्ष निकाला गया कि “वेरिफाइड वोटिंग बेहतरीन परिपाटियों के लिए जोरदार वकालत करती है, जिसमें शामिल हैं हाथ से चिन्हित पेपर बैलेट (बीएमडीज के कुछ न्यायसंगत इस्तेमाल के साथ), मशीन-चिन्हित मतपत्रों का सावधानीपूर्वक मतदाता सत्यापन, सभी पेपर बैलेट के लिए मजबूत सुरक्षा कड़ी, उचित तरीके से मतपत्रों की गिनती, और पेपर बैलेटों की तालिकाओं के सत्यापन के लिए सबसे कम जोखिम वाला ऑडिट।” यह स्पष्ट है कि इन विशेषज्ञों ने भी वीवीपैट को एक सुरक्षित डिवाइस नहीं माना है। ‘वेरिफाइड वोटिंग’ ने जो कदम सुझाए हैं उनमें से किसी का भी हमारे चुनाव आयोग ने अनुसरण नहीं किया है।


हम जानते हैं कि ईवीएम किसी भी प्रकार से समय की बचत नहीं करता है, वास्तव में जब हम मतपत्र की गिनती करते थे, तब परिणाम आने में जितना समय लगता था, अब उससे भी ज्यादा लगता है। लेकिन हमें यह मान लेना चाहिए कि वीवीपैट ईवीएम से ज्यादा पारदर्शी है और पारदर्शिता में बेहतरी के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहिए। यह तर्क कितना मूर्खतापूर्ण है। बैलेट पेपर, जिसे बूथ कैप्चरिंग और कागज की बर्बादी का कारण माना गया था, को हटाने के लिए हमने ईवीएम को लागू किया और अब इसे और अधिक पारदर्शी बनाने के लिए हम एक मशीन प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि और कुछ नहीं बल्कि मोडिफाइड पेपर बैलेट उत्पन्न करती है और हम उसे गिनते नहीं हैं।

भविष्य की पीढ़ी पलटकर हमारी संसद, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को बड़ी हैरानी से देखेगी और कहेगी कि ऐसे फैसले तक ये कैसे पहुंचे। एक बैलेट पेपर मशीन को लागू करना, जिसे वीवीपैट कहते हैं और पेपर मतों को न गिनना, इसके बनिस्बत अपारदर्शी ईवीएम पर निर्भर रहना, जो कि हैक की जा सकती है और जिसे पूर्ण रूप से अविचारणीय होने का गौरव प्राप्त है, और जो कि बहुत ही आड़ी-तिरछी सोच प्रक्रिया की बेहतरीन पैदाइश है।

ईवीएम के समर्थन में एक बहुत बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि अगर उसे हैक किया होता तो केवल एक ही पार्टी (सत्ताधारी) ने सारे चुनाव जीत लिए होते। यह ऐसा है कि अगर एक बैंक अकाउंट हैक किया जा सकता है तो सारे अकाउंट हैक किए जा सकते हैं। सैद्धांतिक रूप से यह दावा सही है लेकिन व्यावहारिक रूप से चोर चाहे जो भी तरीका अपनाए, यह सुनिश्चित नहीं कर सकता कि वह हर मशीन को हैक कर लेगा। पूरे विश्व में हैकर बहुत आला दर्जे के हुनरमंद, पढ़े-लिखे और विद्वान हैं और वे इन व्यावहारिक सीमाओं को जानते हैं।

अगर वे एक मामले में किसी उम्मीदवार ए के लिए दस प्रतिशत वोट चुरा सके हैं और अपेक्षा से अधिक 11 प्रतिशत मतदाता उम्मीदवार बी के लिए वोट करते हैं तो चोरी के बावजूद उम्मीदवार ए नहीं जीतेगा। आम मतदाता शायद इस तकनीक को न जानते हों कि चोर कैसे उनका वोट चुराते हैं, लेकिन वे निश्चित रूप से जानते हैं कि यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। जब उनके वोट चुराए जाते हैं और परिणाम अनेपक्षित होते हैं तो वे समझ जाते हैं कि मशीन को हैक किया गया और यह अंतर्निहित अविश्वास के लिए सीमेंट का काम करता है। राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी है कि वे अपने मतदाताओं को ईवीएम और वीवीपैट की वैद्यता के बारे में शिक्षित करें।

अगर हम हाल के लिटरेचर को पढ़ें तो एक भी ऐसा शोध किया हुआ लेख या रिपोर्ट नहीं मिलेगी जो यह सुझाव दे कि किसी भी लोकतांत्रिक देश को ईवीएम द्वारा चुनाव कराने चाहिए। इसके बजाय बहुत सारे देश पेपर बैलेट की ओर लौट चले हैं। चुनाव आयोग और सत्ताधारी दल शायद ईवीएम का विरोध करने के लिए लोगों के खड़े होने का इंतजार कर रहे हैं। सीएए के खिलाफ हुए हाल के आंदोलनों ने यह रास्ता दिखा दिया है, गुस्सा और अविश्वास एक प्रेशर कुकर में बनती हुई भाप की तरह है और जब वह अपने चरम पर पहुंच जाती है तो अचानक नागरिक राजनीतिक दलों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं और गलियों में ‘बस अब और नहीं’ कहने के लिए उतर आते हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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