ईवीएम ने हिला दिया है देश का ‘भरोसा’, चुनाव आयोग के साथ चुनाव प्रक्रिया पर भी सवाल
आज ईवीएम व्यापक जनसंहार का हथियार बन गई है। यह कोई तकनीकी मसला नहीं बल्कि एक राजनीतिक मामला बन गया है और विडंबना है कि राजनीतिक पार्टियां अब भी इसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं। इससे चुनाव आयोग के साथ चुनाव प्रक्रिया की ईमानदारी पर भी सवाल खड़े हो गए हैं।
हाल में हुए आम चुनाव के अप्रत्याशित नतीजों ने देश को सकते में डाल दिया। जीतने वाली पार्टी बीजेपी तक ऐसी सन्न रह गई कि ठीक से जीत का जश्न भी नहीं मना सकी। पूरे देश में कहीं भी बीजेपी के सदस्य सड़कों पर जीत का जश्न मनाते नहीं दिखे। यहां तक कि जीते उम्मीदवारों के समर्थकों तक ने मिठाइयां नहीं बांटीं। याद करें, जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या हुई थी तो आरएसएस के लोगों ने कैसे मिठाइयां बांटी थीं? इस बार तो जीत का जश्न मनाते लोगों का विजुअल जुटाने में आरएसएस समर्थक टीवी चैनलों के पसीने छूट रहे थे।
इसकी वजह यह थी कि जीतने वाले को भी इतनी बड़ी जीत की उम्मीद नहीं थी और वे परिणामों पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे। उन्हें भय था कि कहीं चुनाव परिणामों को लेकर लोग बेकाबू न हो जाएं। लातिन अमेरिकी देशों के उलट हम सहिष्णु लोग हैं। हम झूठ, धर्मांधता, भ्रष्टाचार, अन्याय, उत्पीड़न, असमानता, अशिक्षा, नोटबंदी और दमनकारी जीएसटी को सह लेते हैं, बशर्ते सत्ता में बैठे लोग ऐसे अपराध करें। वहीं अगर कमजोर, अल्पसंख्यक, दलित और महिलाएं सामान्य मानवाधिकारों की भी बात करें तो हम उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं करते। हमारा सामूहिक बर्ताव भी इन्हीं विशेषताओं से निर्देशित होता है।
विपक्षी दलों के व्यवहार से ऐसा महसूस होता है कि उन्होंने ‘सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ न्यूनतम प्रतिरोध’ की नीति अपना रखी हो। चुनाव परिणामों और ईवीएम के खिलाफ विपक्ष की कमजोर आवाज जल्द ही गुम हो गई और इस मामले में लोगों के गुस्से से निपटने का काम सामाजिक संगठनों पर छोड़ दिया गया। विपक्ष अपनी हार को ‘अपने कर्मों का फल’ मानकर चिंतन में डूब गया और उसके पास इसकी जांच-पड़ताल का वक्त ही नहीं रहा कि लोगों के वोट कैसे चुरा लिए गए।
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आरएसएस और बीजेपी ने ही सबसे पहले चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल का विरोध किया था और इसमें गड़बड़ी का संदेह जताया था। ईवीएम के खिलाफ सबसे पहले आरएसएस के एक प्रचारक ने किताब लिखी थी। ‘ईवीएम ए थ्रेट टु इंडियन डेमोक्रेसी’ नाम की पुस्तक की प्रस्तावना एल के आडवाणी ने लिखी थी।
विश्वास का संकट
ईवीएम के मामले में देश के लोगों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली, जिनका ईवीएम में कोई भरोसा नहीं और खुलकर कहते हैं कि उनके वोट चुराए जा रहे हैं। दूसरी, जिनका भरोसा तो टूटा है लेकिन बैलट पेपर जमाने की बूथ कैप्चरिंग के दौर के लौट आने की आशंका से भयभीत हैं। तीसरी श्रेणी ऐसे लोगों की है जिन्हें ईवीएम में कोई समस्या नहीं दिखती।
जैसे-जैसे प्रायोगिक और व्यवहारिक स्तर पर यह बात साफ होती जा रही है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हो सकती है, बैलट के जमाने में लौटने के पक्षधर लोगों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। इस तरह की बात सामने आ रही है कि ईवीएम चिप को एक से अधिक बार प्रोग्राम किया जा सकता है। अगर वास्तव में ऐसा है तो या तो चुनाव आयोग तकनीकी तौर पर दिवालिया है या फिर उसने जान-बूझकर देश और सुप्रीम कोर्ट से झूठ बोला।
चुनाव आयोग ने लगातार दावा किया है कि ईवीएम चिप के प्रोग्राम को न तो पढ़ा जा सकता है और न ही इसके साथ कोई छेड़छाड़ हो सकती है क्योंकि जापान और अमेरिका से मंगाए जा रहे ये चिप एक ही बार प्रोग्राम हो सकते हैं। अगर चिप में फ्लैश मेमोरी है तो तकनीकी तौर पर ईवीएम की कमजोरी और बढ़ जाती है। 273 मशीनों में से जिन 271 के परिणाम चुनाव आयोग की वेबसाइट पर डाले गए उनका मैच नहीं करना ईवीएम से छेड़छाड़ का सबूत है और इसकी किसी निष्पक्ष एजेंसी से जांच कराई जानी चाहिए।
कैसे होगा भरोसा कायम
आखिर कौन चुनाव आयोग पर भरोसा करेगा जो संदेह का ठोस जवाब देने की जगह परिणाम को ही वेबसाइट से हटा ले। इस तरह की खबरें हैं कि विभिन्न बूथों को विशेष नंबर की जो ईवीएम आवंटित की गईं, वे उन मशीनों से मेल नहीं खाते जिन्हें स्ट्रॉंग रूम में रखा गया और जिनका इस्तेमाल अंततः मतगणना में हुआ। ऐसे ईवीएम की संख्या काफी अधिक थी जिनके नंबर मेल नहीं खाए। यह संख्या इतनी ज्यादा थी कि चुनाव परिणामों पर खासा असर डाल सकें।
भारत में आज ईवीएम व्यापक जनसंहार का हथियार बन चुकी है। यह कोई तकनीकी मामला नहीं बल्कि एक राजनीतिक मामला बन गया है और विडंबना यह है कि राजनीतिक पार्टियां अब भी इसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं। विपक्ष विरोध के मूड में नहीं आ रहा और अब भी वह मुद्दे के पक्ष-विपक्ष पर केंद्रित विचार-विमर्श में ही उलझा हुआ है। इस हथियार ने चुनाव आयोग के प्रति भरोसे के अलावा चुनाव प्रक्रिया की ईमानदारी पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।
रक्षात्मक मुद्दा में विपक्ष
विपक्षी दल अजीब उधेड़बुन में हैं। चुनाव से पहले उनकी सोच थी कि अगर अभी ईवीएम को मुद्दा बनाया तो बीजेपी उनपर चुनाव से पहले ही हार मान लेने का आरोप लगाती और अब जबकि चुनाव परिणाम घोषित हो चुके हैं, इसे मुद्दा बनाने पर कहा जाएगा कि विपक्ष अब जनता के फैसले पर संदेह जता रही है। इसलिए उनके लिए ईवीएम पर सवाल उठाने का कभी अच्छाऔर उचित समय आया ही नहीं।
चुनाव के बाद हताशा में चले जाने वाले विपक्ष ने एक बार फिर मौका खो दिया। उनकी जिम्मेदारी थी कि जैसे ही परिणाम आए, ईवीएम के खिलाफ लोगों के गुस्से को एक दिशा देते। यह एक बड़ी भूल रही। अपने वोटों की सुरक्षा करने और इन्हें चोरी होने से बचाए जाने के संदर्भ में विपक्ष की काबलियत को लेकर लोगों के भरोसे में तेजी से कमी आती जा रही है।
ईवीएम से किसको है डर
आम नागरिक सत्तारूढ़ पार्टी को दंड या पुरस्कार देने के लिए धैर्य से पूरे पांच साल इंतजार करता है। सत्ता में बने रहने के लिए बीजेपी विभाजनकारी राजनीति का सहारा ले रही है ताकि वोटों का सांप्रदायीकरण हो सके। लेकिन इतिहास ने बताया है कि लोगों ने अक्सर धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीयता की सीमाओं से ऊपर उठकर स्वास्थ्य सुविधाओं, बेरोजगारी, महंगाई और खेती-किसानी के संकट जैसे धर्मनिरपेक्ष मुद्दों के आधार पर वोट किया है।
वे इसलिए डरे हुए हैं कि ईवीएम विरोधी आंदोलन को सांप्रदायिक रूप नहीं दिया जा सकता, इसमें कोई जाति का कोण भी नहीं। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका ठोस धर्मनिरपेक्ष आधार है, लोग अपनी पहचान भुलाकर इस मामले में एकजुट हो सकते हैं। यह आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम जैसा रूप ले सकता है। और इससे उन लोगों को भय लगता है जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की जगह अंग्रेजों के साथ हाथ मिला लिया था।
(लेखक वैज्ञानिक और कवि हैं)
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