भारत के संसाधन पर सबका अधिकार, साझा किया जाना चाहिए, बांटने वाली सोच बदलें हुक्मरान
आज चहेते उद्योगपतियों का कर्ज माफ किया जाता है, तो वह रेवड़ी नहीं होती और गरीबों को राशन मिलता भी है, तो धमकियों के साथ। इसी कारण इस सरकार में विषमताएं बढ़ी हैं और खामियाजा गरीबों को भुगतना पड़ा है।
रेवड़ी संस्कृति की टिप्पणी पर काफी बहस हो चुकी। बहुत लिखा भी जा चुका है। कई सवाल उठाए गए हैं। क्या हुक्मरान राज्यों की स्वायत्तता पर अतिक्रमण करने के इरादे से यह कह रहे हैं? क्या इस सरकार के पहले दस साल तक केन्द्र सरकार के अधिकारगत ढांचे पर प्रहार किया जा रहा है? क्या नागरिक अधिकार को रेवड़ी या मुफ्तखोरी कहा जा रहा है? इन सबसे इतर जो मूल सवाल है, वह इस बहस के केन्द्र में होना चाहिए।
आखिर, भारत के मायने क्या हैं? भारत किसका है? यदि भारत हर एक भारतवासी का है, यदि हर एक भारतवासी की आवाज सुनकर भारत का भविष्य तय किया जा रहा है, यदि हर एक भारतवासी के नैसर्गिक विवेक से राष्ट्र का निर्माण होना है, तो भारत के संसाधनों पर हर एक भारतवासी का बराबरी से हक है। ऐसे में हुक्मरानों को यह हक किसने दिया कि वे कुछ भी बांटें! वे बांटने की एजेंसी नहीं हैं। संसाधन पर उनका निजी स्वामित्व नहीं है कि वे बांट सकें। उनकी केवल एक भूमिका है। यह सुनिश्चचित करना कि संसाधनों पर सब का बराबरी से साझापन बरकरार रहे। राजशाही के दिनों में शासक हुआ करते थे। हक नहीं होते थे, शासकों का माई-बापत्व होता था। मेहरबानी नसीब होती थी। लोकशाही में हम शासक नहीं चुनते। जनप्रतिनिधि चुनते हैं।
संविधान सभा ने समतामूलक संविधान निर्माण करते समय भी इसी सवाल का जवाब देना तय किया था। आखिर भारत किसका होगा? संविधान सभा के सदस्यों को गांधी जी ने अपना जंतर देकर दिशा दिखाई थी। यदि आशा की एक झलक दिखे, तो मानें कि फैसला सही है। जनतंत्र का यही जंतर है।
जनप्रतिनिधियों की सरकार की यह महती जिम्ममेदारी है कि वह संसाधनों की मालिकी में विषमता की खाई को पाटने का प्रयास करे। निसर्ग को दोहन से संरक्षित करे और मानव निर्मित सार्वजनिक संपत्ति में दमन, शोषण, लूट की रोकथाम के लिए कड़े कदम उठाए। मगर पिछले आठ सालों की दास्तान किसी से छुपी नहीं है। ‘सबका विकास’ का नारा एक तरफ लगाया गया, दूसरी तरफ भारत के अरबपति दुनिया के अरबपतियों की सूची में भी आगे बढ़ते जा रहे हैं।
भारत के सौ अरबपतियों की संपत्ति मार्च, 2020 के बाद से ही 12,97,822 करोड़ बढ़ी। एक अकुशल श्रमिक को हुक्मरानों के चहेते पूंजीपति द्वारा एक घंटे में कमाए मुनाफे की बराबरी करने में दस हजार साल लगेंगे। प्रति सेकेंड के मुनाफे तक पहुंचने में तीन साल। इस रिपोर्ट को भले हुक्मरानों ने नकारा मगर दुनिया ने सही ठहराया जबकि भारत 116 देशों के भूख सूचकांक में 101वें स्थथान पर है। क्या इसी से स्पष्ट नहीं हो जाता है कि यदि कहीं कुछ रेवड़ी बंट भी रही है, तो वह किस वर्ग को पोषित कर रही होगी?
भारत के करीबन 5,772,472 पांच से कम आयु के बच्चे अपक्षय का शिकार हैं। इस आयु के 44% बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर हैं। तब किसको रेवड़ी मिल रही है? बेरोजगारी की दर अप्रैल-जून, 2022 में 7.6 रही। हजारों सरकारी स्कूल बंद किए गए। करीब पांच सौ यात्री गाड़ियां स्थायी तौर पर स्थगित कर दी गईं जबकि 88,000 करोड़ की बुलेट ट्रेन की योजना है। यह सब कैसी रेवड़ियों का प्रदर्शन करता है?
कुल राष्ट्रीय आय का मात्र 13% हिस्सा सबसे गरीब 50% आबादी के पास है। सबसे अमीर 10% के पास 57% और उनमें भी 1% के पास 22% हिस्सा है। भारतीय मध्यम वर्ग के पास भी मात्र 29.5% औसत घरेलू पूंजी है। निजी संपत्ति 290% से बढ़कर 560% हुई है। हमारे गरीबी को आंकने का मानक आज भी बेहद लचर है। दुनिया में सबसे कमतर है। शहर में प्रतिदिन 33 रुपये, गांव में 27 रुपये से कम खर्च करने वाले गरीबी रेखा के दायरे से नीचे माने जाते हैं। 33 और 27 रुपये की कीमत ही क्या है? एक वक्त का भोजन भी नामुमकिन है। उसके बाद भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे से बड़ा वर्ग छूटा हुआ है।
तब किसे रेवड़ी मिल रही है? कौन मुफ्तखोर है, वह जो आबादी में अत्ययंत गरीब 50% का हिस्सा होने पर भी औसत घरेलू संपत्ति में मात्र 6% प्रतिशत का हक रख रहा है या वह जिसके सम्मान में कॉरपोरेट टैक्स कम किया गया? वह गरीब जिसे हर माह का राशन मिलता भी है, तो किसी न किसी धमकी के साथ। कभी उससे कहा जाता है कि स्वच्छ भारत योजना में शौचालय नहीं बनवाया, तो राशन बंद, तिरंगा नहीं फहराया, तो राशन बंद। तब भारत में उसके लिए कहां स्थान है?
दूसरी तरफ, वनों का निजीकरण, ईज ऑफ बिजनेस के तहत कामगारों के काम के घंटे बढ़ाना, बोनस नहीं देना, मंडियों के निजीकरण की कोशिश, समर्थन मूल्य समाप्ति का षडयंत्र, भूमि अधिग्रहण में गांव-समाज को वैधानिक रूप से अनसुना करना, हर क्षेत्र का निजीकरण करके उसे आत्मनिर्भर भारत का नाम देना क्या कहलाएगा? यह रेवड़ी से तो बहुत ज्यादा है। जब हुक्मरान अपने चहेते उद्योगपतियों के कर्ज माफ करते हैं। किसान को कर्ज के कारण आत्महत्या करते हुए देखने पर भी उसके पक्ष में कुछ करने को मुफ्तखोरी मानते हैं, तो असल में रेवड़ी किसे मिली? कहावत है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपने को दे’। कॉरपोरेट सामंतशाही के इस दौर में सत्ता में मदांध हुक्मरान यही करते नजर आ रहे हैं।
यह भी याद रखना चाहिए कि 1858-1947 तक भारत के सबसे कुलीन 10% के पास करीबन 50% राष्ट्रीय आय का हिस्सा था। कालांतर में शासकीय योजनाओं के कारण यह 35-40% रह गया था। दुनिया भर में उदारीकरण का लाभ बड़े उद्योगपतियों ने ज्यादा उठाया। नतीजतन विषमताएं बढ़ीं। यह भी सही है कि बाजार संचालित व्यवस्था में सबसे गरीब वर्ग को ही सर्वाधिक खामियाजा भुगतना पड़ता है। निजी व्यवस्थाओं में उसे कुछ हासिल नहीं होता। न शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन बीमा, रोजगार और न ही उद्यमशीलता के अवसर मिलते हैं। इन तक पहुंचना ही नामुमकिन हो जाता है। वह एक प्रकार का सामाजिक मूल्य चुकाता है। उसी की कीमत पर विकास दर बढ़ती है। ऐसे में उसके चुकाए मूल्य की भरपाई करना रेवड़ी कैसे मानी जा सकती है?
असल में इनके लिए भारत माने भारत के लोग और यहां का निसर्ग नहीं हैं। भारत एक कामधेनु है जिसका दोहन अपने कॉरपोरेट जगत के ‘मित्रों’ तक पहुंचाना उनका मकसद है। इसलिए रेवड़ी कि चेतावनी देते समय हवाई अड्डे, एक्सप्रेस वे के निर्माण भर का जिक्र हुआ। हर एक के लिए सरकारी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा की चर्चा तक नहीं हुई। यह सनद रहे कि भारत सबका है। उसका हर संसाधन साझा है। किसी को उसे बांटने की इजाजत नहीं। वह बंटना नहीं चाहिए। हक के रूप में साझा होना चाहिए। उम्मीद है कि इसका अहसास नागरिक करेंगे, अन्यथा नागरिक मात्र उपभोक्ता और प्रजा बनकर रह जाएंगे।
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