गूगल पर भी ढूंढे नहीं मिलेगी गोत्र के बारे में यह जानकारी
अगर हम पुराणों के पन्ने पलटें, धर्मशास्त्र खंगालें, तो पाएंगे कि जब भी व्यापारी और योद्धा आदि कहीं धार्मिक पूजा पाठ करते थे, अगर उन्हें अपना गोत्र नहीं मालूम होता था, तो वे सिर्फ अपने गुरु या फिर पूजा करने वाले पुजारी का गोत्र ही अपना मान लेते थे।
कहानी सुनाई जाती है कि बरसों पहले उत्तराखंड में किसी ब्राह्मण परिवार में एक बेटी थी। बेटी सयानी हुई तो उसके पिता को विवाह की चिंता हुई, लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी अलग गोत्र का कोई खाता-पीता वर उसके लिए नहीं मिल पाया। थक हार कर पिता ने एक ठीकठाक गोत्र के एक गरीब ब्राह्मण भिखारी से उसका विवाह कर दिया। विवाह के करीब एक साल बाद जब पिता अपनी बेटी से मिलने उसके घर गया तो उसे यह देखकर बहुत दुख हुआकि उसकी बेटी फटे-पुराने कपड़ों में है और आग पर मुट्ठी भर दाने भून रही है। पिता ने पूछा, “बेटी तुम क्या भून रही हो?” बेटी का जवाब था, “अपनी जाति और आपका गोत्र भून रही हूं।”
एक दूसरी कहानी पर आते हैं। बात 1991 की है। आईएएस का कोर्स पूरा कर प्रोबेशन पर निकले कुछ युवाओं का एक दल जरूरी भारत दर्शन पर पूर्वी भारत में एक प्राचीन मंदिर ले जाया गया। इस मंदिर का बड़ा पुरातात्विक महत्व है। जब दर्शन कर वे बाहर निकल रहे थे तो उन्होंने सोचा कि मंदिर को कुछ दान दे दें। मंदिर के पुजारी और अकाउंटेंट दोनों का काम देखने वाले ने जब दान देने वाली युवा आईएएस से पूछा कि आपका गोत्र क्या लिखूं?
तपाक से इस लड़की ने जवाब दिया, “इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेस, 1991 बैच।“
अब फिर थोड़ा आगे आते हैं और अक्टूबर 2018 की बात करते हैं। बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से उनका गोत्र पूछा है। उन्होंने पूछा था कि, “राहुल गांधी जनेऊधारी कहते हैं खुद को, भगवान शिव की पूजा करते हैं, महाकाल मंदिर जाते हैं। क्या उन्हें अपने गोत्र का पता है?”
उत्तराखंड के गांव में मुट्ठी भर दाने भूनने वाली लड़की की कहानी के बाद से मंदिर, लिंग, जाति, गोत्र और राजनीति काफी लंबा रास्ता तय कर चुके हैं। टीवी चैनलों के डिबेट में पार्टी प्रवक्ता गोत्र पर मनु से लेकर आनुवांशिकि वैज्ञानिकों तक का जिक्र कर सकते हैं। लेकिन, यह एक तथ्य है कि भारत में गोत्र नाम का हथियार कबका कुंद पड़ चुका है। फिर भी अगर हम पुराणों के पन्ने पलटें, धर्मशास्त्र खंगालें, तो पाएंगे कि जब भी व्यापारी और योद्धा आदि कहीं धार्मिक पूजा पाठ करते थे (शायद इसलिए कि वे यात्रा बहुत ज्यादा करते थे और शायद इसलिए भी क्योंकि वे मंदिरों आदि को दान भी खूब दिया करते थे) तो अगर उन्हें अपना गोत्र नहीं मालूम होता था तो वे सिर्फ अपने गुरु या फिर पूजा करने वाले पुजारी का गोत्र ही अपना मान लेते थे।
रोचक प्रसंग यह है कि वैदिक काल में और उसके बाद भी, चारों बड़े गोत्र के प्रतिष्ठित संस्थापकों के उपनाम उनकी मां का नाम पर हैं। इस तरह देखें तो सामने आता है कि पितृ सत्तात्मक व्यवस्था का गोत्र पद्धति से कुछ खास लेना-देना नहीं रहा है। फिर भी अगर हम थोड़ा नर्म हों तो तथ्य यह भी सामने आता है कि गोत्र पद्धति के सबसे जंगजू पालनहार तो उत्तर पश्चिमी भारत के जाट हैं।
गोत्र की उनकी व्याख्या खाप के रूप में सामने आती है और इसकी जड़े 14वीं सदी से मिलती हैं। यह वह समय था जब तैमूर ने पश्चिम भारत में जबरदस्त हमला किया था। अचानक हमले से यह राज खुलकर सामने आ गया कि यह जमींदार तबका आपस में कितना दूर-दूर है और एकताविहीन इस तबके को हमले का खामियाजा भुगतना पड़ा। बात जब सिर पर आन पड़ी तो जाटों ने जाति और भौगोलिक आधार पर 84-84 गांवों को मिलाकर एक गोत्र बैंक यानी खाप बना लिया।
इसके बाद ही ऐसी खाप ने तय कर दिया कि एक ही खाप के लड़के-लड़कियां आपस में भाई-बहन हैं और उनकी एक-दूसरे से शादी नहीं हो सकती। अपनी पार्टी को संभावित हार से बचाने की हताशा ही संबित पात्रा के उस प्रश्न में निहित है जिसके जरिए वे विपक्षी नेता का गोत्र जानने की बात कर रहे हैं।
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