मुठभेड़ः कानून बनाए रखने के लिए तोड़े जा रहे कानून, न्यायेतर हत्याओं के लिए मौत की सजा बिल्कुल सटीक
जस्टिस मार्कंडेय काटजू और सुधा मिश्रा की सुप्रीम कोर्ट पीठ ने 13 मई, 2011 को अपने आदेश में जो कहा, उसे हर पुलिस पोस्ट में मढ़वाकर रखना चाहिए। दोनों न्यायाधीशों ने झूठी मुठभेड़ों को 'दुर्लभ से दुर्लभतम' अपराध तक कहा जो मौत का दंड देने लायक बिल्कुल सही है।
'मुठभेड़ों में मार गिराने' की घटनाएं आम बात होना और खाकी वर्दी वाले लोगों द्वारा न्यायेतर तरीके से मौत के घाट उतारने पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। ऐसी घटनाओं पर उत्तर प्रदेश में नए तरीके से शोरगुल हो रहा है। चिंता का तात्कालिक कारण यूपी में 2017 के बाद से 183 'मुठभेड़ों' में मार गिराने की घटनाएं हैं, वृहत्तर समस्या देश भर में इस तरीके का बड़े पैमाने पर उपयोग और वह सार्वजनिक समर्थन है जो ऐसी घटनाओं को मिल रहा है।
न्यायेतर हत्याएं उस व्यवस्था को ही मारकर तुरंत न्याय देने का अजीबोगरीब तरीका है जिसे न्याय देने के लिए बनाया गया है। इस संबंध में अधिकारी जो बात कह रहे हैं और लोग जिसे मान रहे हैं, वह साधारण तो लगता ही है, विलक्षण भी हैः हमें कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून तोड़ना ही होगा।
इसमें कई विषम सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दे हैं जिन्हें हमें देखना होगा। 'मुठभेड़ें' उस पुलिस बल के सहयोग से फली-फूली हैं जो अक्षमता और औपनिवेशिक हैंगओवर से मुक्त होने को अनिच्छुक है, भ्रष्टाचार में डूबा, प्रोफेशनल काम के लिए नाकाबिल है और अंदरूनी तौर पर तथा बाहर से भी सत्ता की संरचनाओं का नौकर हो गया है और यह कुछ चुनींदा लोगों के लिए बन गया है।
न्यायेतर हत्याएं- चाहे वह राजनीतिक आकाओं के आदेश पर हों या सम्यक प्रक्रिया से गुजरने के कारण पुलिस बल के बहुत अधिक दबाव की वजह से हो, असाधारण ज्यादतियां हैं। इन्हें खत्म करने के लिए असाधारण उपायों की जरूरत है। 13 मई, 2011 को न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू और न्यायमूर्ति सुधा मिश्रा की सुप्रीम कोर्ट खंडपीठ ने झूठी मुठभेड़ों को 'दुर्लभ से दुर्लभतम' किस्म के अपराध तक कहा जो मौत का दंड देने लायक बिल्कुल सही है।
दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा, 'हमारा विचार है कि ऐसे मामलों में जिसमें मुकदमे में पुलिस वालों के खिलाफ झूठी मुठभेड़ की बात सिद्ध हो जाती है, उन्हें दुर्लभ से दुर्लभतम मानते हुए मौत की सजा दी जानी चाहिए। झूठी मुठभेड़ कुछ नहीं बल्कि उन लोगों द्वारा सोच-समझकर, नृशंस हत्या है जिनसे कानून का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। हमारी राय में, अगर अपराध आम आदमी द्वारा किया जाता है, तो आम दंड दिया जाना चाहिए लेकिन अगर अपराध पुलिस वालों द्वारा किया जाता है, तो उन्हें अपेक्षाकृत कड़ा दंड दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अपने उत्तरदायित्वों के बिल्कुल विपरीत काम करते हैं।'
न्यायाधीशों ने पुलिस अधिकारियों को चेतावनी भी दी कि उन्हें इस आधार पर छूट नहीं दी जाएगी कि वे ऊपर से मिले आदेशों का पालन कर रहे थे। ऐसी भाषा में जो जितना अधिक कड़ा हो सकता था, खंडपीठ ने कहाः (जर्मनी के नुरेमबर्ग में 20 नवंबर, 1945 से 1 अक्तूबर, 1946 तक चले) 'नुरेमबर्ग मुकदमों में, नाजी युद्ध अपराधियों ने यह तर्क दिया कि 'आदेश तो आदेश हैं', फिर भी उन्हें मौत की सजा दी गई। झूठी 'मुठभेड़' करने के लिए अगर कोई ऊपर का अधिकारी किसी पुलिसकर्मी को अवैध आदेश देता है, तो इस तरह का अवैध आदेश मानने से मना करना उसका दायित्व है, अन्यथा उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा और अगर वह दोषी पाया जाएगा, तो उसे मौत की सजा दी जाएगी। 'मुठभेड़' का दर्शन आपराधिक दर्शन है और हर पुलिसकर्मी को इसे अवश्य जानना चाहिए। ऐसे खुश होने वाले पुलिसकर्मी जो सोचते हैं कि 'मुठभेड़' के नाम पर वे लोगों की हत्या कर सकते हैं और छूट जा सकते हैं, को जानना चाहिए कि फांसी के फंदे का उन्हें इंतजार है।'
ये ऐसी बातें हैं जिन्हें मढ़वाकर हर पुलिस पोस्ट में हर व्यक्ति को याद रखने के लिए लगा देना चाहिए कि उन्हें ऐसे आदेश का पालन नहीं करना है जो प्रथम दृष्ट्या अवैध हैं और कानून का उल्लंघन करते हैं। वस्तुतः, यह उस पुलिस बल की सफाई का अच्छा रास्ता है जो विफल हो रहा है और भारतीय राज्य व्यवस्था को नीचे की ओर ले जा रहा है।
झूठी मुठभेड़ होती हैं और कानून-व्यवस्था बनाए रखने का यह तरीका है- यह स्वीकार कर भारत ने सामूहिक तौर पर स्वीकार कर लिया है कि देश अपने प्राथमिक कर्तव्यों में विफल हो गया है और व्यवस्था का आभास बनाए रखने के लिए उसे संविधानेतर तरीके अपनाने ही होंगे। इसका निहितार्थ किसी डरावनी स्थिति से कम नहीं है। एक ओर भारत अपने को उभरती वैश्विक शक्ति, आज जी20 के प्रमुख और ऐसी अर्थव्यवस्था के तौर पर देखता है जो जीडीपी के खयाल से दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा देश है। दूसरी ओर, भारत समृद्ध गैंगस्टरों की कहानी है जिन्हें बड़े हो जाने पर एकांत जगह पर ले जाकर गोली मारनी होगी।
इस लेखक समेत कई पत्रकार ऐसे मामलों के बारे में जानते हैं जब अपराधियों को मार डाला गया। मुंबई ऐसी जगह है जहां एक वक्त तथाकथित मुठभेड़ें चरम पर थीं। लेकिन मुंबई इसका उदाहरण भी है कि इस 'समाधान' में क्या गलत था। निर्जन इलाकों में खत्म कर दिए गए गिरोह वास्तव में फिर बनाए गए और पुलिस बल के अंदर तैयार कर दिए गए।
गिरोह 'अ' ने किसी पुलिस यूनिट की मदद से गिरोह 'ब' को मार दिया और इसमें पुलिस वालों ने मदद की थी; गिरोह 'ब' ने किसी अन्य पुलिस यूनिट के साथ यही काम किया। खेल में शामिल दोनों पुलिस यूनिटों ने पैसे बनाए, 'एनकाउंटर स्पेशलिस्ट' होने की प्रसिद्धि पाई और दावा किया कि उनका आम लोगों ने स्वागत किया। पुलिस बल नए गैंगस्टरों की नई फसल की जगह बन गई।
यह साफ तथ्य है कि ऐसी हर झूठी मुठभेड़ में कई वैधानिक दस्तावेज तैयार किए जाते हैं और ऐसी घटनाओं की बातें की जाती हैं जो जांच का हिस्सा होती हैं। कुछ लोगों का पूरा दस्ता ऐसी कहानियां बनाता है जो बाद में जांच के दौरान निश्चित तौर पर झूठी निकलती हैं। यूपी में अभी जो घटनाएं हुई हैं, उनमें भी बच निकलना मुमकिन नहीं लगता। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी डाली गई है।
फिर भी, यह खतरा टल गया नहीं लगता; यह और बदतर ही होता जा रहा है। हम शासन-व्यवस्था में इस खतरनाक गिरावट को बढ़ावा देने के लिए इस दौर के राजनेताओं को दोषी ठहरा सकते हैं। लेकिन वर्तमान संविधानिक व्यवस्था को ऐसे समाधान करने होंगे जो इसे दूर कर सकें। मुठभेड़ में मार गिराने को रोकना इतना कठिन भी नहीं है। न्यायमूर्ति काटजू और न्यायमूर्ति मिश्रा ने जिस किस्म के कड़े आदेश दिए, वैसे एक या दो आदेश कड़ी चेतावनी दे सकते हैं।
ऐसा न करना यह स्वीकार करना है कि कानून का शासन ढह गया है। ऐसा है, तो हम पूछ सकते हैं कि यह 'जंगल राज' में कब तक बदल जाएगा।
(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर के फैकल्टी मेंबर हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं)
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