संपादकीय: आईने से कब तक बचेगा समाज, अपनी लड़ाई लड़ रहीं बहादुर महिला पहलवान खोल रहीं हमारी भी पोल
यह घटनाक्रम जिस तरह लंबा खिंचता ही जा रहा है, उसने कई अन्य गांठों को भी खोला है। करीब 10 साल पहले 'निर्भया' मामले में जिस सिविल सोसाइटी और मध्य वर्ग ने हाय-तौबा मचाई थी, पहलवानों के मामले में वह भी आंदोलित नहीं ही दिख रहा है।
हम लोगों को आईना दिखाने के लिए 'विरोध कर रही' महिला पहलवानों के प्रति कृतज्ञ हमें होना चाहिए। हालांकि आईने में हम जो कुछ देखते हैं, वह शायद ही हमारे लिए शिक्षाप्रद होता है। यह एक देश के तौर पर ढोंगियों, कमजोर होती कानून-व्यवस्था और लोगों की दिवालिया नैतिक दुनिया दिखाता है। यह एक कमजोर, विचलित न्यायपालिका, गिरती पुलिस-व्यवस्था और जन दबाव बनाने के लिए नैतिक शक्ति के तौर पर सिविल सोसाइटी की समाप्ति को प्रदर्शित करता है।
हमें यह पूरा घटनाक्रम इतना लंबा खींचने के लिए खेल मंत्रालय के प्रति भी आभारी होना चाहिए क्योंकि इससे उसकी भी कलई खुल गई है। हम समाज के इन सभी स्तंभों की छवि भद्दी और फुसफुसी- दोनों पाते हैं। हमें बहुत बदनाम मुख्य धारा की मीडिया के एक वर्ग के प्रति भी शुक्रगुजार होना होगा। इंडियन एक्सप्रेस और दैनिक भास्कर के पत्रकारों ने सात पहलवानों द्वारा दर्ज की गई एफआईआर को हासिल किया जिनमें भारतीय कुश्ती संघ (डब्ल्यूएफआई) के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह द्वारा यौन दुराचार के साफ और भयावह विवरण हैं।
पहलवानों ने उन शहरों, प्रतियोगिताओं और जगहों के बारे में बताया है जहां डब्ल्यूएफआई अध्यक्ष ने उन्हें जबरन छुआ, टटोला, छेड़ा और गले लगाया। उन लोगों ने बताया है कि अध्यक्ष जो एक दबंग बीजेपी सांसद भी हैं, ने कैसे उनकी छाती, नितंब और नाभि को गलत ढंग से छुआ। उन लोगों ने उन घटनाओं के बारे में बताया है जब उन्होंने उनकी जर्सी खींची और उनके पेट तथा स्तनों पर हाथ रखकर उनकी 'सांस लेने' की 'जांच' की। उन लोगों ने आरोप लगाया कि उन्हें धमकी दी गई कि अगर वे नहीं मानीं, तो उन्हें परिणाम भुगतने होंगे और उन्हें आगे बढ़ने देने का लोभ दिया गया। जिन्होंने प्रतिरोध किया, फेडरेशन ने उनका विभिन्न प्रतियोगिताओं के लिए चयन नहीं किया और स्पॉन्सरशिप वापस ले ली गई। अंततः, जनवरी में जब उन्होंने अपनी शिकायतें सार्वजनिक करने का फैसला किया, तो उनके परिवारवालों को धमकियां मिलने लगीं।
दिल्ली पुलिस के पास इस तरह के पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध लगते हैं कि डब्ल्यूएफआई अध्यक्ष सेलेक्शन के लिए होने वाले ट्रायल, प्रशिक्षण और देश तथा देश से बाहर होने वाली प्रतियोगिताओं में मौजूद रहे; कि वे पहलवानों के साथ-साथ रेफरी को आवाज तक लगाकर निर्देश देते रहे; वे उसी होटल और उसके उसी फ्लोर पर रुकते रहे जहां पहलवान ठहरते थे और उनके प्रति कृतज्ञ रहते थे जो उनकी बात मान लेते थे।
भारतीय ओलिम्पिक समिति (आईओसी) और खेल मंत्रालय को उनके व्यवहार के बारे में जानकारी होनी चाहिए थी और उन्हें यथासंभव हस्तक्षेप करना चाहिए था। लेकिन जिस तरह लंबे 12 साल तक चुप्पी बनी रही और हर कोई इन सब षड्यंत्र में शामिल रहा, वह मंत्रालय या आईओसी के बारे में अच्छी धारणा नहीं बनाता। पुलिस के लिए रिकॉर्ड की जांच-पड़ताल करना और उन तिथियों, शहरों और प्रतियोगिताओं के बारे में पुष्टि करना कठिन नहीं होना चाहिए जहां के बारे में पहलवानों ने दुर्व्यवहार की घटनाएं बताई हैं। उसे यह पता करने में भी मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि उन सेलेक्शन ट्रायल और प्रतियोगिताओं में डब्ल्यूएफआई अध्यक्ष की वास्तव में मौजूदगी जरूरी थी भी या नहीं।
यह घटनाक्रम जिस तरह लंबा खिंचता ही जा रहा है, उसने कई अन्य गांठों को भी खोला है। 30 राष्ट्रीय खेल फेडरेशनों में से कम-से-कम 16 में आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) है ही नहीं जबकि 2013 के यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण (पॉश) अधिनियम के तहत ऐसी समिति का गठन अनिवार्य है। लेकिन इससे न तो खेल मंत्रालय और न आईओसी को किसी तरह की उलझन होती लगती है।
प्रतिरोध कर रहे पहलवानों पर बहस में हिस्सा लेते हुए दिल्ली के एक पूर्व पुलिस आयुक्त ने दावा किया कि जैसे फिल्मों में कास्टिंग काउच होते हैं, उसी तरह भारतीय खेलों में 'सेलेक्शन काउच' होते हैं और यह खुला रहस्य है। उन्होंने यह तक दावा किया कि भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) तक भी शिकायतें की गई हैं कि न सिर्फ महिला क्रिकेटरों बल्कि उनकी मांओं तक से अनुचित मांगें की जाती रही हैं। इनमें से किसी शिकायत की कभी जांच नहीं की गई क्योंकि महिलाओं ने इस बारे में पुलिस के पास शिकायत दर्ज करने से मना कर दिया।
प्रशासनिक पदों और पुलिस में रहे पुरुष इस बात पर यकीन करते लगते हैं कि इस किस्म की जांच से महिलाएं बचती हैं क्योंकि उन्हें सार्वजनिक प्रताड़ना और अपमान का भय रहता है। लेकिन महिला पहलवानों ने इस किस्म के भय से उबरकर अपना दर्द सार्वजनिक किया, यह बात दूसरी है कि यह भी फलदायी होता नहीं दिखता। उलटे, उन पर ही 'राजनीति करने' का आरोप लगाया जा रहा है। यहां तक कि 1983 में वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम के सदस्य रहे बीसीसीआई अध्यक्ष रोजर बिन्नी तक ने इस मामले से खुद को अलग कर लिया जबकि 1983 टीम के अन्य सदस्यों ने बयान जारी कर पहलवानों की मांगों का समर्थन किया था।
करीब 10 साल पहले 'निर्भया' मामले में जिस सिविल सोसाइटी ने देश भर, खास तौर से दिल्ली में हाय-तौबा मचाई थी, पहलवानों के मामले में वह भी आंदोलित नहीं ही दिख रही है। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान तो पहलवानों का समर्थन कर रहे हैं लेकिन राजधानी दिल्ली और एनसीआर का मध्य वर्ग जरा भी विचलित नहीं है। कानून अपनी गति से अपना काम कर रहा है और पांच महीने में जो गति दिख रही है, उससे तो यही समझ में आता है कि अविश्वसनीय तौर पर बहादुर महिला पहलवानों ने अपने आपको झोंक दिया है। उन लोगों ने हमारे बदसूरत पक्ष हमें ही दिखाकर हमारा भला तो किया ही है।
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