संपादकीय: सुरंग से झांकती सरकारी दृष्टि और हिमालय को हिला देने की इंसानी कीमत
उम्मीद बाकी है कि फंसे हुए कामगारों को बचा लिया जाएगा, लेकिन ऐसे संकेत नहीं दिखाई देते कि यह पहला हादसा है या इसके बाद कोई और हादसा नहीं होगा। इस बात के भी संकेत नहीं हैं कि इस हादसे से सबक लेकर सरकार हिमालय को हिला देने वाले प्रोजेक्ट से कदम पीछे खींचेगी।
मोदी सरकार की पसंदीदा चार धाम परियोजना आखिर किसके लिए है...भक्ति के लिए, विकास के लिए या फिर रक्षा के लिए? इस परियोजना का लक्ष्य बताना मुश्किल है क्योंकि सरकार इसे लेकर लगातार अलग-अलग बातें करती रही है। अलग-अलग समय पर सरकार ने इस परियोजना के लिए ये सभी आधार सामने रखकर इस परियोजना को उचित ठहराने की कोशिश की है।
कारण और लक्ष्य कुछ भी बताए जाएं, लेकिन चारधाम परियोजना मूलतः एक राजनीतिक, हिंदुत्व परियोजना है जिसमें कुछ आर्थिक निहितार्थ भी हैं। धर्मनिष्ठ हिंदुओं के लिए, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के तीर्थस्थल धार्मिक महत्व के रहे हैं, कुछ लोग इस तीर्थयात्रा को मोक्ष का साधन मानते हैं।
हिंदू राष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध एक सरकार के लिए यह भावनाएं राजनीतिक पूंजी हैं, जिन्हें वह राजनीतिक लाभ के लिए सामने रखती है। और इसकी कीमत कुछ भी हो सकती है, आप इसे पैसों में तोलें या किसी की जान से।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2021 में विशेष अतिश्योक्तियों का इस्तेमाल करते हुए घोषणा की थी कि उत्तराखंड आने वाले दशकों में उतने अधिक पर्यटकों का स्वागत करेगा जितने कि बीते 100 साल में भी नहीं हुआ है। इस विशाल घोषणा को मूर्तरूप देने के लिए चारधाम सर्किट को 900 किलोमीटर के फोर-लेन हाईवे से जोड़ा जाना है।
इसे आकार देने के लिए जो 10 से 12 मीटर चौड़े ढांचे बनाए जाने हैं उनके लिए लागत का परिव्यय 12,000 करोड़ रुपये है। इसमें न तो वक्त के साथ बढ़ने वाली लागत शामिल है और पारिस्थितिकि विनाश का तो शायद सोचा भी नहीं गया है, जोकि होना अवश्यंभावी है। लेकिन मौजूदा प्रधानमंत्री से इससे कम भव्यता की उम्मीद कौन कर सकता है? इस घोषणा के बाद जमीन के लिए जबरदस्त मारामारी और होटल निर्माण की होड़ शुरू हो गई।
जब इस परियोजना को सुप्रीम कोर्ट में 2018 में चुनौती दी गई थी तो सरकार ने शुरु में तर्क दिया कि ऐसे हाईवे बनने से पर्यटकों और तीर्थ यात्रियों को कम समय लगेगा। उस समय सरकार को चेताया गया था कि इस परियोजना के तहत मार्ग निर्माण उन नियमों का उल्लंघन है जिसमें पहाड़ी रास्तों पर 5.5 मीटर से अधिक चौड़ी सड़क नहीं बनाई जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी बना दी थी। पांच स्वतंत्र सदस्यों वाली इस कमेटी में 15 सरकारी अधिकारी भी थे। कमेटा का काम परियोजना का आंकलन करना था। कमेटी के स्वतंत्र सदस्यों ने मुद्दा उठाया था कि यह परियोजना पारिस्थिकि तौर पर आत्महत्या जैसा कदम है, लेकिन कमेटी में शामिल सरकारी अधिकारियों ने इन आपत्तियों और आशंकाओं को खारिज कर दिया था।
इतना ही काफी नहीं था कि सरकार ने 2020 में पहाड़ों पर सड़क निर्माण के नियम बदल दिए और पहाड़ी रास्तों पर 12 मीटर चौड़ी सड़कें बनाने की मंजूरी दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्र सदस्यों की रिपोर्ट की जांच के बाज आदेश दिया था कि पहाड़ों पर 5.5 मीटर से अधिक चौड़ी सड़कें न बनाई जाएं, लेकिन सरकार ने इस आदेश को चुनौती दी और इसकी समीक्षा की मांग की।
इस बार सरकार की तरफ से रक्षा मंत्रालय ने शपथपत्र देकर तर्क दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से और सैन्य सामग्री और सैनिकों की आवाजाही के लिए चौड़ी सड़कें अनिवार्य हैं। इस दौरान याचिकाकर्ताओं और विशेषज्ञों ने तर्क दिया था कि भारतीय सेना तो इन सड़कों का बीते 70 साल से इस्तेमाल करती रही है, और सड़क मार्ग के बजाए सैन्य उपकरणों और तोपखाने आदि को हवाई मार्ग से ले जाना ज्यादा सुगम और कम समय वाला होता है।
लेकिन कोर्ट को भी शायद पता था कि अगर राष्ट्रीय सुरक्षा की बात कही गई है तो फिर उसमें अड़ंगा लगाना ठीक हीं। कोर्ट ने रक्षा मंत्रालय के शपथपत्र और अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल की इस बात को मान लिया कि ब्रह्मोस या वज्र मिसाइल लॉन्चर और स्मर्च रॉकेट जैसे महत्वपूर्ण उपकरणों को सीमा तक ले जाने के लिए सड़कों का बेहतर होना बहुत जरूरी है।
इसी तरह के तर्क रेलवे नेटवर्क बिछाने और पुल और सुरंगे बनाने के लिए भी दिए गए। निर्माण को गित देने के लिए चारधाम परियोजना को छोटी-छोटी परियोजनाओं में बदल दिया गया जिससे कि 100 किलोमीटर से अधिक लंबाई के रास्ते बनाने के लिए होने वाले पर्यावरणीय आंकलन से बचा जा सके।
सिल्कियारा-बाड़कोट सुरंग जो दीवाली वाले दिन धंस गई और उसमें 41 लोगों की जिंदगी कैद हो गई है, इसी चारधाम परियोजना का हिस्सा है।
हालांकि उम्मीद बाकी है कि इन फंसे हुए कामगारों को बचा लिया जाएगा, लेकिन ऐसे कोई संकेत नहीं दिखाई देते कि यह पहला हादसा है या इसके बाद कोई और हादसा नहीं होगा। इस बात के भी संकेत नहीं हैं कि इस हादसे से सबक लेकर सरकार हिमालय को हिला देने वाले प्रोजेक्ट से कदम पीछे खींचेगी, या फिर उन लोगों की जिंदगियों से खेलना बंद करेगी जिनके वोट के दम पर वह सत्ता के शिखर तक पहुंची है।
संभवतः इस दुर्घटना को इकलौता हादसा साबित करने के लिए सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी सक्रिय हो गए हैं। उन्होंने 19 नवंबर को दुर्घटना स्थल का दौरा कर कहा था कि रेल और सड़क परियोजनाओं के लिए हिमालय में कई सुरंगों की खुदाई की जा रही है। इनकी लागत सुनकर चौंक मत जाइएगा, इन पर 2.75 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे! यह सब सुनने में डेथ वारंट जैसा क्यों लगता है?
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