संपादकीय: मीडिया का अखंड भक्ति उत्सव

न तो मीडिया ने कभी ऐसी ‘चाकरी’ की और न ही शीर्ष संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति ने पहले ऐसा किया। इस लिहाज से 22 जनवरी, 2024 को याद रखा जाएगा।

राम मंदिर उद्घाटन के मौके पर तमाम मीडिया संस्थान इसी रंग में डूबे नजर आए
राम मंदिर उद्घाटन के मौके पर तमाम मीडिया संस्थान इसी रंग में डूबे नजर आए
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संपादकीय

2002 के गुजरात दंगों में नरेन्द्र मोदी की भूमिका पर बीबीसी की जिस विवादास्पद डॉक्यूमेंट्री पर पिछले साल जनवरी में भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया था, उसमें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री का एक सनसनीखेज खुलासा भी था। यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें लगता है कि तब कुछ अलग तरीके से किया जा सकता था, नरेन्द्र मोदी ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा कि वह दंगों के मद्देनजर मीडिया को ‘संभालने’ में कमजोर रहे। लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने अपनी उस ‘गलती’ को सुधार लिया: उनके शासन ने मीडिया को अपने कब्जे में कर लिया है और इसमें शक नहीं कि भविष्य में कभी इस विषय पर कोई किताब लिखी जाएगी। 

1963 में ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के तत्कालीन प्रकाशक स्वर्गीय फिलिप एल. ग्राहम ने ‘पत्रकारिता के दैनिक और साप्ताहिक ब्योरे’ को ‘इतिहास के पहले मसौदे’ के तथ्य प्रदान करने वाला बताया था। हममें से कुछ लोगों ने इसे सच मानकर पत्रकारिता के बारे में ऐसी ही धारणा बना ली। लेकिन तब हमने भारतीय मीडिया के वर्तमान रूपांतरण के बारे में सोचा न था। इसलिए हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं जब देखते हैं कि अयोध्या में ‘प्राण प्रतिष्ठा’ समारोह के दिन मीडिया ने कैसा ‘इतिहास का पहला मसौदा’ लिखा। राष्ट्रीय दैनिक समाचारपत्रों के पहले पन्नों पर सरसरी नजर डालने से सब साफ हो जाता है। 

हालांकि यह कोई हैरानी की बात नहीं। हो सकता है कि उनकी परस्पर ‘भक्ति की होड़’ कुछ लोगों के लिए चौंकाने वाली रही हो लेकिन यह अंतर तो काफी समय से बिल्कुल साफ है- मुख्यधारा का मीडिया या तो ‘धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ की राजनीतिक पुनर्रचना में शामिल हो गया है या उसने हिन्दुत्व की उग्र ताकतों के सामने हथियार डाल दिए हैं। जो भी हो, 22-23 जनवरी की सुर्खियां मीडिया की ओर से केवल उस देवता को प्रसन्न करने के लिए उसकी वंदना में साष्टांग अभिवादन नहीं था। यह उससे भी आगे की बात थी। 

उदाहरण के लिए, ‘प्राण प्रतिष्ठा’ के दिन के कुछ कवरेज पर गौर करें। ‘दैनिक भास्कर’ ने मुखपृष्ठ पर शीर्षक दिया- ‘भारत के प्राण की प्रतिष्ठा’; अगले दिन (23 जनवरी को) उनके मुखपृष्ठ पर घोषणा की गई: ‘राष्ट्र की आस्था का नया सूर्योदय’। दैनिक भास्कर ने अपना मास्टहेड बदलकर ‘रामचरित भास्कर’ कर दिया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने प्रधानमंत्री के भाषण से अपने पहले पन्ने की लीड का शीर्षक निकाला- देव से देश, राम से राष्ट्र। शीर्षक के नीचे लिखा गया: ‘परस्पर सद्भाव की अपील के साथ राम लला की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा के मौके को राष्ट्र ने जिस तरह आतिशबाजी और उत्सव के साथ मनाया, उससे लगा कि दीवाली समय से पहले ही आ गई।’ ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का शीर्षक था: ‘नए काल चक्र का उद्भव’ जबकि ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने ‘अयोध्या में राम लला का उदय’ शीर्षक रखा। 


लगभग सभी टीवी समाचार चैनलों ने इस मौके के लिए पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी। कार्यक्रम से करीब एक हफ्ते पहले से ही उन्होंने अयोध्या में भव्य उद्घाटन समारोह की तैयारियों पर ध्यान केन्द्रित कर दिया था। जरा सोचिए, पूरी अयोध्या, पूरा भारत, बस इस ‘युगांतकारी’ घटना का जैसे इंतजार कर रहा था और जीवन तथा इससे जुड़े दुख-तकलीफ का मानो अंत हो गया था। लगभग नॉन-स्टॉप टीवी कवरेज में एक अभूतपूर्व तमाशे के सभी आकर्षण थे: रथों, रामलीला जैसे कपड़े पहने टीवी होस्ट से लेकर गेस्ट, भगवाधारी संत। स्टूडियो हो या बाहर सरयू के तट स्थित राम की पैड़ी- हर जगह एक-सा नजारा।

वैसे भी, सजना-संवरना टीवी समाचारों का अभिन्न हिस्सा है और 22 जनवरी जैसे ‘बड़े’ मौके पर तो तमाम टीवी एंकरों ने अपने आप को उसी रंग-रूप में ढाल लिया- भगवा कपड़े और टीके के साथ। कुछ लोगों ने अपने माथे से तुलसी का टुकड़ा लगाकर रामचरित मानस के श्लोकों और चौपाइयों का पाठ भी किया।

मीडिया का फोकस प्रत्यक्ष रूप से तो मंदिर और राम लला तथा प्राण प्रतिष्ठा समारोह पर था लेकिन उन्हें असल में तो ध्यान उस ‘शीर्ष पुजारी’ पर केन्द्रित करना था। यहां तक कि जब वह पुजारी अयोध्या पहुंचने से पहले दक्षिण के अपने मंदिर अभियान पर थे, तब भी कैमरे का फोकस कभी नहीं भटका: इसलिए हमारे पास पूरी जानकारी है कि प्रधानमंत्री 11 दिन तक उपवास पर थे; इस दौरान उन्होंने क्या खाया और क्या नहीं; कि वह ‘सिर्फ नारियल पानी’ पी रहे थे और नंगे फर्श पर सो रहे थे। ये सब हेडलाइन बन रहे थे।

‘लोकप्रिय’ एंकर सुधीर चौधरी ने एक पूरा कार्यक्रम इस पर किया कि मोदी अपने सरकारी आवास में कैसे गायों को पालते और उन्हें खाना खिलाते हैं। यहां तक कि उन्होंने दर्शकों को सलाह तक दे डाली कि वे अपने घरों में भी इन्हें आजमा सकते हैं। इस ‘अखंड कवरेज’ के बीच-बीच में विपक्ष को कोसा भी जाता रहा क्योंकि इसने प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से इनकार करके सबसे बड़ा ‘पाप’ किया था। 

हमें बताया गया कि विपक्ष ने अयोध्या का राजनीतिकरण किया, न कि भाजपा या आरएसएस या उनकी किन्हीं ‘सांस्कृतिक’ शाखाओं ने। ‘टाइम्स नाऊ’ की नविका कुमार इस तरह खफा थीं कि स्क्रीन पर ही खीज उठीं: ‘मंदिर पर भी सियासत?’ उनके मुताबिक, ये कांग्रेस के आमंत्रित लोग थे जिन्होंने निमंत्रण को अस्वीकार करके समारोह का राजनीतिकरण किया था। उनके लिए इस बात का कोई सियासी कनेक्शन नहीं था कि अधूरे राम मंदिर का उद्घाटन- जिस पर धार्मिक दिग्गजों ने भी गंभीर आपत्ति व्यक्त जताई- लोकसभा चुनाव से चंद महीने पहले ही किया जा रहा था। यह कार्यक्रम इंतजार नहीं कर सकता था और जाहिर तौर पर इसमें कुछ भी राजनीतिक नहीं था। भले ही इस धार्मिक समारोह की अध्यक्षता हमारे नाराज शंकराचार्यों या किसी अन्य हिन्दू पुजारी में से कोई नहीं बल्कि हमारे प्रिय प्रधानमंत्री कर रहे थे, यह राजनीतिकरण नहीं था!


जब भी हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि पद की शपथ लेते हैं, तो वे भारत के संविधान के प्रति अपनी निष्ठा की प्रतिज्ञा करते हैं, और संविधान की प्रस्तावना में भारत की एक ‘संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ के रूप में कल्पना की गई है। इससे पहले किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने अपनी धार्मिक आस्था का ऐसा प्रदर्शन नहीं किया और उन्होंने यह सुनिश्चित करने का भरसक प्रयास किया कि आस्था के किसी भी सार्वजनिक कार्य में उनकी ओर से कोई धार्मिक पूर्वाग्रह प्रदर्शित न हो। इसके अलावा आजाद भारत के 75 साल के इतिहास में मीडिया ने पहले कभी इस तरह सत्ता की चाकरी नहीं की। 

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