मोदी सरकार का पूंजीपतियों की ओर झुकाव जारी, देश में बढ़ती जा रही आर्थिक विषमता
मोदी सरकार का विश्वास है कि पूंजीवादी विकास को जमीन पर उतारने से ही देश का विकास जल्दी और प्रभावशाली ढंग से होगा। सरकार खुलकर पूंजीवाद को न केवल बड़े-बड़े उद्योगों में, बल्कि छोटे और मंझोले उद्योगों के साथ शिक्षा और संस्कृति के कामों में भी घुसा रही है।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की यह लगतार दूसरी सरकार है, इसलिए बुनियादी बातों में कुछ विशेष परिवर्तन संभव नहीं है। अभी लोकसभा में भारी बहुमत है और अगले साल राज्यसभा में भी एनडीए ने बहुमत पा लेने की आस लगा रखी है। ऐसा हो गया, तो बहुत सारे पुराने अधिनियमों के प्रस्ताव भी पारित हो जाएंगे। लेकिन इससे गहरा सवाल है कि आने वाले समय में सरकार की मुख्यधारा क्या होगी? अभी तो इतना ही कहना काफी होगा कि सरकार में समाज और संस्कृति के प्रति बहुत ज्यादा उत्साह नहीं दिख रहा है। कारण उन्हें भी साफ हो गया है कि भारत में सामासिकता (इनक्लूसिवनेस) की कीमत पर कोई भी समाज व्यवस्था चलाना मुश्किल है।
अभी अपने भाषणों में प्रधानमंत्री मोदी ने कुल मिलाकर समावेशी (इनक्लूसिव) समाज व्यवस्था पर जोर दिया है। पिछले कार्यकाल में प्रधानमंत्री रहते हुए जब वह बनारस गए थे, तब भी उन्होंने कहा था कि हिंदू और मुसलमान भारत माता की दो आंखें हैं और उसमें यदि किसी एक का विकास नहीं होगा, तो देश भी कमजोर हो जाएगा। इसी आधार पर उन्होंने “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” नारा दिया है।
इसी भारतीय संस्कृति का ध्यान रखकर गांधीजी ने भी “सर्वोदय” की बात कही थी। गांधीजी ने सर्वोदय के लिए “अंत्योदय” पर जोर दिया था। लेकिन यह बात रेखांकित करने वाली है कि नरेंद्र मोदी सरकार की छवि अंत्योदय से भिन्न बड़े-बड़े उद्योगपतियों की ओर अधिक है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण है, कर्ज मुक्ति में किसानों को जितना मिला, उसकी अपेक्षा पूंजीपतियों की कई गुना अधिक कर्जमाफी हुई।
इसीलिए एक सामान्य बात लग रही है कि यह सरकार पूंजीपतियों की है। सरकार का भी विश्वास है कि पूंजीवादी विकास को जमीन पर उतारने से ही देश का विकास जल्दी और प्रभावशाली ढंग से होगा। सरकार खुलकर पूंजीवाद को न केवल बड़े-बड़े उद्योगों में, बल्कि छोटे और मंझोले उद्योगों में भी तथा शिक्षा और संस्कृति के कामों में भी घुसा रही है। अंत्योदय से सर्वोदय की कल्पना भुला दी गई है। इस कारण देश में आर्थिक विषमता बेहद बढ़ती जा रही है।
आदिवासियों के बीच काम करने वाले रिटायर्डआईएएस अधिकारी स्वर्गीय डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा के अनुसार, देश में दस लाख गुना से भी अधिक विषमता हो चुकी है और वह दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। इसी वजह से समाज में विभाजन बढ़ रहा है, सभी क्षेत्रों में हिंसा बेतरह बढ़ती जा रही है। ऐसी हालत में सर्वोदय का स्वप्न मृगमरीचिका है।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने निधन से कुछ ही महीने पहले जनवरी, 1964 में भुवनेश्वर के कांग्रेस अधिवेशन में खुलकर “लोकतांत्रिक समाजवाद” का पांचजन्य फूंका था। पिछले भाजपाई प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी गांधीवादी समाजवाद की बातें कही थीं। साफ है कि चाहे भारतीय संस्कृति या गांधी विचार की शरण में जाएं, हमें अंतिम व्यक्ति के कल्याण को ही सर्वोपरि स्थान देना होगा और पूंजीवाद पर विश्वास अंतिम व्यक्ति के साथ विश्वासघात है। इस पूंजीवाद के चलते पवित्र शिक्षा और संस्कृति भी व्यापारवाद का रूप ले चुकी है। देश के 40 प्रतिशत नौजवानों के लिए रोजी-रोटी ही “राममंदिर” है।
प्रधानमंत्री सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास की बातें कह तो रहे हैं, पर सोचना होगा कि वह कैसे संभव हो। जिस देश में अब भी सात विभिन्न धर्मों के लोग स्वतंत्र होकर अपनी-अपनी पूजा पद्धतियों को चला रहे हों, जहां बाहर से आकर यूनानी, हूण, शक्य, सीथियन, पठान, मुगल, ईसाई आदि अनेक लोग मिल-जुल गए, उस देश की विभिन्नता में एकता के अमृत को भारत की शक्ति मानना चाहिए।
हमें बहुत विनम्रता और शालीनता से मानना होगा कि लाखों-करोड़ों कर्मचारी और शिक्षक किसी दल विशेष के नौकर नहीं हैं। वे सब भारत माता के सेवक हैं। उन सबका सम्मान भारत का सम्मान है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोकतंत्र का सबसे बड़ा मूल्य है। जनता के विभिन्न निकायों की स्वतंत्रता में ही भारत की आंतरिक स्वतंत्रता भी लक्षित है। आज जननिकायों की स्वतंत्रता पर शंका होने लगी है। पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते भी हमें सामान्य बनाने होंगे। अब इस आणविक युग में कोई आणविक युद्ध नहीं हो सकता है।
आज लगभग एक दर्जन देशों के पास आणविक अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। आणविक युद्ध का मतलब है सर्वनाश। इसका नमूना हम हिरोशिमा में देख चुके हैं। वियतनाम युद्ध में लगभग 56 हजार लोग मारे गए, फिर भी अमेरिका अणु बम के उपयोग का साहस न कर सका। इराक और ईरान में भी अमेरिका ने अणु बम का प्रयोग नहीं किया। अभी हाल में दक्षिण कोरिया में युद्ध की कसरत और उत्तर में हाईड्रोजन बम फेंकने की तैयारी चलती रही। आखिर, अमेरिकी राष्ट्रपति को आकर शांति समझौता करना पड़ा।
चीन के समुद्र में छोटे से कारमुसा को चीन कब्जे में नहीं कर पा रहा है, चूंकि वहां अमेरिका के अणु बम का भंडार पड़ा हुआ है। युद्ध का विकल्प शांति ही है। इसको समझते हुए असैनिक साधनों से भारत-पाक समस्या को हल करना एक अनिवार्यता है। यह कोई कायरता नहीं, बल्कि परिस्थिति की अनिवार्यता है। इसी प्रकार नक्सलियों को भी हमें समझाना होगा कि आज के समय में विज्ञान और तकनीक ने राज्य शक्ति को इतना शक्तिशाली बना दिया है कि उसके सामने छोटी-मोटी शक्तियां बेकार हैं। नक्सली क्षेत्रों में लोगों के कल्याण के लिए पूरी मशीनरी झोंकनी होगी।
संविधान में स्वतंत्रता और समता की बात कही गई है। लेकिन सिर्फ इसका राग गाने से काम नहीं चलने वाला बल्कि हर व्यक्ति को काम और रोटी के साथ वोट का हक देना होगा। लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने के लिए लोगों को अपने निकम्मे प्रतिनिधियों को पांच साल के भीतर हटाने और उन्हें वापस बुलाने का अधिकार देना भी जरूरी है।
(लेखक पूर्व सांसद, और गांधीयन इंस्टिट्यूट ऑफ स्टडीज, वाराणसी के पूर्व निदेशक रह चुके हैं )
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