मोदी सरकार के आर्थिक नीतियों के कारण देश में बढ़ रही आर्थिक विषमताएं!

मोदी जी की अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश स्टॉक मार्केट में आ रहा है, जिसका लाभ अमीरों तक ही पहुँच रहा है। तमाम दावों के बाद भी उद्योगों में निवेश कम हो रहा है, और जिन उद्योगों में निवेश आ भी रहा है उससे रोजगार नहीं पैदा हो रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

उद्योगपति गौतम अडानी ने हाल में ही मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि वर्ष 1991 से 2014 तक कांग्रेस सरकारों के समय की आर्थिक नीतियों ने देश में विकास के लिए एक माहौल और आधारभूत ढांचा विकसित किया, और वर्ष 2014 के बाद उसी ढाँचा पर सवार होकर मोदी सरकार विकास की उड़ान भर रही है। जैसी उम्मीद थी मोदी के दरबारी मीडिया में से अधिकतर में यह वक्तव्य गायब रहा, कारण स्पष्ट है प्रधानमंत्री मोदी को स्वयं को महान साबित करने का एकमात्र रास्ता पिछली सरकारों की उपलब्धियों को भौडे तरीके से नकारना है। मोदी जी अधिकतर भाषणों में वर्ष 2014 से पहले की अर्थव्यवस्था की भयानक स्थिति का तथ्यहीन बयान करते हैं, जबकि मोदी सरकार के समय में भी तमाम सरकारी विभागों या नीति आयोग की अर्थव्यवस्था या सामाजिक आंकड़ों से संबंधित हरेक प्रकाशित रिपोर्ट यही बताती है की मनमोहन सिंह के समय देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्तर मोदी काल की तुलना में अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ा था।

दूसरी तरफ वर्ष 2014 के बाद से मोदी सरकार के आर्थिक नीतियों पर दुनियाभर में सवाल उठते रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है की अब तक मोदी अकेले निरंकुशता से अर्थव्यवस्था का खाका खींचते थे, जिसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाना था पर इस बढ़ती अर्थव्यवस्था का लाभ समाज तक नहीं पहुँचता था और ना ही रोजगार के अवसर पैदा होते थे। तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के बाद यदि प्रधानमंत्री मोदी अपनी ही व्यवस्था में सुधार करना भी चाहें तब भी वे अकेले निर्णय नहीं ले सकते क्योंकि अब उन्हें गठबंधन-धर्म निभाना पड़ेगा। इस स्थिति में सुधार लाना कठिन है क्योंकि जनता तक अर्थव्यवस्था का लाभ पहुंचाना मोदी जी की सोच ही नहीं है – उनकी अर्थव्यवस्था पांचवीं और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और 5 खरब डॉलर पर टिकी है।

मोदी जी की अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश स्टॉक मार्किट में आ रहा है, जिसका लाभ अमीरों तक ही पहुँच रहा है। तमाम दावों के बाद भी उद्योगों में निवेश कम हो रहा है, और जिन उद्योगों में निवेश आ भी रहा है उससे रोजगार नहीं पैदा हो रहे हैं। देश में लगभग 1 अरब युवा रोजगार की तलाश में हैं, जबकि सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान स्थिति में देश में कुल रोजगार के अवसर 43 करोड़ लोगों के लिए ही हैं।


रोजगार के इन अवसरों में भी अधिकतर अवसर असंगठित क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूर और कृषि में हैं, जिसमें श्रमिकों के लिए कोई रोजगार सुरक्षा नहीं है। दरअसल उद्योगों के विस्तार से तेजी से बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर पैदा होते हैं। मोदी राज में हरेक राज्य में इन्वेस्टर समिट एक बड़े जलसे जैसा हो गया है, जहां देश के बड़े पूंजीपति, विदेशी पूंजीपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री 5-स्टार पिकनिक मनाते हैं, एक दूसरे की तारीफ़ करते हैं, दरबारी मीडिया जनता को विकास और रोजगार का सब्जबाग दिखाता है – इससे आगे कुछ नहीं होता, नंगी जनता नागी ही बनी रहती है। पर, अगले साल जलसे की भव्यता बढ़ जाती है। मनमोहन सिंह सरकार के समय उद्योगों के विस्तार की दर औसतन 17 प्रतिशत थी, जबकि मोदी काल में तमाम हंगामे के बाद भी यह औसतन 14 प्रतिशत ही रह गयी है।

अप्रैल 2024 में बिज़नस टुडे ने वरिष्ठ कांग्रेसी नेता पी चिदंबरम का एक वक्तव्य प्रकाशित किया था। इसमें उन्होंने कहा था कि अर्थव्यवस्था का बढ़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, पर मोदी जी हरेक वक्तव्य को जादू और रहस्य की तरह प्रस्तुत करते हैं। जीडीपी के बढ़ने की रफ्तार से यह पता नहीं चलता कि आम आदमी तक इसका कितना लाभ पहुँच रहा है – इसके लिए प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा अधिक सटीक है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के मानव विकास इंडेक्स 2023-2024 के अनुसार प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आमदनी वैश्विक स्तर पर औसतन 17254 डॉलर है, विकासशील देशों का औसत 11125 डॉलर है, दक्षिण एशिया में 6972 डॉलर है, पर भारत में यह आंकड़ा महज 6951 डॉलर ही है और इस सन्दर्भ में भारत का स्थान विश्व में 136वां है। दूसरी तरफ अरबपतियों के मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है और इनकी संपत्ति साल-दर-साल बेतहाशा बढ़ती जा रही है।

आर्थिक असमानता तो अब सरकार द्वारा बड़े तामझाम से प्रकाशित रिपोर्ट से भी जाहिर होता है। भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की एक रिपोर्ट, पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-2023, के अनुसार देश का ग्रामीण व्यक्ति हरेक महीने औसतन 3773 रुपये खर्च करता है, जबकि शहरी व्यक्ति औसतन 6459 रुपये खर्च करता है। यहाँ तक तो सब सामान्य दीखता है, पर जब बारीकी से रिपोर्ट को पढ़ेंगे तब यह स्पष्ट होता है कि इस औसत तक देश की 60 प्रतिशत से अधिक जनता नहीं पहुँचती है। रिपोर्ट से दूसरा तथ्य यह उभरता है कि देश की सबसे गरीब 50 प्रतिशत जनता जितना सम्मिलित तौर पर हरेक महीने खर्च कर पाती है, लगभग उतना खर्च देश की सबसे अमीर 5 प्रतिशत आबादी कर लेती है।


मोदी जी के आर्थिक विकास की सच्चाई बताने के लिए यह तथ्य काफी है की वर्ष 2004 में भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में 12वें स्थान पर थी, जो वर्ष 2014 में सातवें स्थान पर पहुँच गयी। जाहिर है, मोदी जी जिन 10 वर्षों को अर्थव्यवस्था का काला अध्याय बताते हैं और दरबारी मीडिया जिसे प्रचारित करता है उन दस वर्षों में वैश्विक स्तर पर हमारे अर्थव्यवस्था की रैंकिंग 12वें से 7वें स्थान तक पहुँच गयी, यानि 5 स्थान बढ़ गयी। दूसरी तरफ वर्ष 2014 के बाद के दस वर्षों में तमाम कुप्रचार के बाद भी अर्थव्यवस्था 7वें स्थान से 5वें स्थान तक पहुँची है, यानि दो स्थान का ही अंतर आया है।

देश के साथ यह समस्या नहीं है कि तमाम समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, बल्कि समस्या यह की देश की सत्ता और मीडिया हरेक समस्या को नकारने में व्यस्त है। सत्ता हरेक समस्या को ताल ठोककर गारंटी का नाम देती है, तो दूसरी तरह दरबारी मीडिया इसे विकास बताता है।

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