बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियों के कारण दुनिया में बढ़ रही भूखमरी, ये देश झेल रहे जलवायु परिवर्तन की सबसे ज्यादा मार
ऑक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का दुनिया में असमानता बढ़ा रहा है। जलवायु परिवर्तन अमीर और औद्योगिक देशों द्वारा किये जा रहे ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ रहा है, पर इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब देश हो रहे हैं।
नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार जी20 देशों के उपभोक्तावादी रवैय्ये के कारण बड़े पैमाने पर वर्षा वन और उष्णकटिबंधीय देशों के जंगल काटे जा रहे हैं। दुनिया के धनी और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देशों का एक समूह जी20 है। अनुमान है की जी20 के सदस्य देशों में चौकलेट, कॉफी, बीफ, पाम आयल जैसे उत्पादों का इस कदर उपभोग किया जाता है कि इन देशों के प्रति नागरिकों की मांगों को पूरा करने के लिए हरेक वर्ष 4 पेड़ काटने पड़ते हैं। अमेरिकी नागरिकों के लिए यह औसत 5 पेड़ प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है।
जंगलों में पेड़ों के कटने से जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि हो रही है, इससे वन्य जीव विलुप्त हो रहे हैं और वन्य जीव घनी आबादी वाले जगहों पर पहुंचने लगे हैं। आबादी के बीच वन्य जीवों के पहुंचने के कारण घने जंगलों में पनपने वाले वायरस अब मनुष्यों में पनप रहे हैं। इस शोध को क्योटो स्थित रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर ह्यूमैनिटी एंड नेचर के वैज्ञानिकों ने किया है। इस अध्ययन के लिए जंगलों के कटने की दर का आकलन हाई रेसोल्यूशन मैप्स से किया गया है और उपभोक्ता उत्पादों की बिक्री के आंकड़े दुनिया की 15000 बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लिए गए हैं। इस शोध के लेखकों का दावा है कि यह पहला अध्ययन है जिससे उत्पादों की बिक्री का सीधा सम्बन्ध जंगलों के कटने से स्थापित किया गया है।
शोध के अनुसार यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी में चौकलेट की भारी मांग को पूरा करने के लिए आइवरी कोस्ट और घाना में बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। अमेरिका, यूरोपीय संघ के देशों और चीन में बीफ और सोयाबीन की मांग को पूरा करने के लिए ब्राजील में जंगल काटे जा रहे हैं। अमेरिका, जर्मनी और इटली में कॉफी के लिए मध्य वियतनाम के जंगल और चीन, दक्षिण कोरिया और जापान में फर्नीचर की लकड़ी की मांग को पूरा करने के लिए उत्तरी वियतनाम के जंगल काटे जा रहे हैं। अमेरिका के फलों और बादाम की खपत को पूरा करने के लिए ग्वाटेमाला के जंगल, रबर की आपूर्ति के लिए लाइबेरिया के जंगल और फर्नीचर की लकड़ी के लिए कम्बोडिया के जंगल कट रहे हैं। चीन के पाम आयल की मांग को पूरा करने के लिए मलेशिया में बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं।
इस अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि वैश्विक व्यापार के इस दौर में अमीर देशों की उपभोक्ता संस्कृति अपने देश के जंगलों को नहीं बल्कि विकासशील देशों के जंगलों को बर्बाद कर रही हैं। यूनाइटेड किंगडम, जापान, जर्मनी, फ्रांस और इटली जैसे देशों के बाजार में जो उत्पाद बिक रहे हैं, उनके उत्पादन के लिए जितने जंगल काटे जा रहे हैं उसमें से 90 प्रतिशत गरीब देशों में स्थित हैं और इसमें भी आधे से अधिक उष्णकटिबंधीय देशों में हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ यॉर्क के डॉ क्रिस वेस्ट के अनुसार अमीर देशों का उपभोक्तावाद पूरी दुनिया के वन क्षेत्र पर असर कर रहा है, इसलिए ऐसे देशों को वनों को बचाने की नीतियां केवल अपने देशों तक सीमित नहीं रखनी चाहिए। इन देशों को अपने बाजार का व्यापक अध्ययन कर देखना चाहिए को उत्पाद किन देशों से आ रहे हैं, और फिर उन देशों के जंगल बचाने में भी मदद करनी चाहिए।
जी20 की अध्यक्षता भारत को मिलना ऐसा प्रचारित किया जा रहा है, मानो यह एक अजूबा हो। जी20 का उद्देश्य है, आपसी व्यापार को और व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना। इसके सदस्य हैं – अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, यूरोपियन यूनियन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मेक्सिको, रूस, सऊदी अरब, साऊथ अफ्रीका, साउथ कोरिया, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका। इन देशों में से सबसे धनी–अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, जापान, इटली, जर्मनी, फ्रांस और कनाडा – का एक दूसरा समूह या मनोरंजन क्लब भी है, जिसे दुनिया जी7 के नाम से जानती है।
भारत के पास अध्यक्षता आने पर तमाम शहरों में इसके विज्ञापन भी लगाए गए हैं, जिसमें “एक दुनिया, एक परिवार, और एक भविष्य” का नारा वसुधैव कुटुम्बकम के साथ लिखा है। कहीं-कहीं तो इसके विज्ञापन के साथ गांधी जी भी खड़े दिख रहे हैं। दुनिया में 190 से अधिक देश हैं और सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि इनमें से महज 20 देशों के समूह को एक विश्व और एक परिवार से कैसे जोड़ा जा सकता है? यदि जी20 एक दुनिया, एक परिवार, एक भविष्य पर सही में विश्वास रखता है तब तो इसे सबसे पहले जी20 समूह को ही ध्वस्त करना होगा।
पूरी दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद में से जी20 देशों का योगदान 90 प्रतिशत है और वैश्विक व्यापार में इसकी भागीदारी 80 प्रतिशत से भी अधिक है। इन आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि जी20 समूह जो संख्या के सन्दर्भ में दुनिया के कुल देशों का लगभग 10 प्रतिशत है, पूरे दुनिया के व्यापार और प्राकृतिक संसाधनों को पूरी तरह नियंत्रित करता है।
इन आंकड़ों से वैश्विक स्तर पर व्यापक असमानता के कारण को आसानी से समझा जा सकता है। जाहिर है, दुनिया की अर्थव्यवस्था जिसमें वैश्विक आर्थिक मंदी भी शामिल है, इन्ही देशों की देन है। अर्थव्यवस्था से परे, दुनिया के सभी मानवाधिकार, समानता और पर्यावरण संबंधित समस्याए भी जी20 समूह के देशों की देन हैं। यही जी20 का असली चेहरा है, जहां भाषण, आश्वासन और सदस्य देशों द्वारा एक-दूसरे की तारीफ के अलावा कुछ नहीं होता।
दुनिया के सभी प्राकृतिक संसाधनों की लूट में इन देशों का ही हाथ है और दुनिया में जितना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है उसकी 80 प्रतिशत भागीदारी इन्हीं देशों की है। कार्बन डाइऑक्साइड के लगातार उत्सर्जन के कारण जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि हो रही है जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। यानि दुनिया के 10 प्रतिशत देश पूरी दुनिया का तापमान बढ़ा रहे हैं। सबसे आश्चर्य तो यह है कि यही देश अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में दुनिया के सभी देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने और प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की सीख भी देते हैं।
पिछले कुछ महीनों से दुनिया में खाद्य संकट और भूखमरी पर जब भी चर्चा की गई, उसे हमेशा रूस-यूक्रेन युद्ध से जोड़ा गया और चरम पर्यावरणीय आपदाओं पर कम ही चर्चा की गई। ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट, “हंगर इन अ हीटिंग वर्ल्ड” के अनुसार बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियों के कारण दुनिया में भूखमरी बढ़ रही है और इसका सबसे अधिक असर उन देशों पर पड़ रहा है जो जलवायु परिवर्तन की मार से पिछले दशक से लगातार सबसे अधिक प्रभावित हैं। रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक प्रभावित 10 देशों – सोमालिया, हैती, जिबूती, केन्या, नाइजर, अफगानिस्तान, ग्वाटेमाला, मेडागास्कर, बुर्किना फासो और जिम्बाब्वे - में पिछले 6 वर्षों के दौरान अत्यधिक भूखे लोगों की संख्या 123 प्रतिशत बढ़ गई है। इनमें से कोई देश जी20 का सदस्य नहीं है और ना ही जी20 कभी इन देशों की बात करता है। इन सभी देशों पिछले एक दशक से भी अधिक समय से सूखे का संकट है। इन देशों में अत्यधिक भूख की चपेट में आबादी तेजी से बढ़ रही है – वर्ष 2016 में ऐसी आबादी 2 करोड़ से कुछ अधिक थी, अब यह आबादी लगभग 5 करोड़ तक पहुंच गई है और लगभग 2 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं।
ऑक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का दुनिया में असमानता बढ़ा रहा है। जलवायु परिवर्तन अमीर और औद्योगिक देशों द्वारा किये जा रहे ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ रहा है, पर इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब देश हो रहे हैं। इसीलिए, ऐसी परिस्थितियों में यदि अमीर देश गरीब देशों की मदद करते हैं तब उसे आभार नहीं कहा जा सकता, बल्कि ऐसी मदद अमीर देशों का नैतिक कर्तव्य है। रिपोर्ट के अनुसार इन 10 देशों को भुखमरी से बाहर करने के लिए कम से कम 49 अरब डॉलर के मदद की तत्काल आवश्यकता है। दूसरी तरफ अमीर देशों की पेट्रोलियम कंपनियां केवल 18 दिनों के भीतर ही 49 अरब डॉलर से अधिक का मुनाफा कमा लेती हैं, इसके लिए ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर पृथ्वी को गर्म कर रही हैं और इसका खामियाजा गरीब देश भुगत रहे हैं। अमीर देशों के समूह, जी-20 के सदस्य दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैसों का तीन-चौथाई से अधिक उत्सर्जन करते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि बढ़ता जा रहा है – दूसरी तरफ दुनिया में जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार झेलने वाले 10 देशों का सम्मिलित ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन महज 0.13 प्रतिशत है।
दुनिया के चुनिन्दा देशों का कोई भी समूह हो, विश्वव्यापी भुखमरी का एक ही हल बताता है – कृषि उत्पादन बढ़ाना। दरअसल कृषि उत्पादन बढाने के नाम पर अमीर देश गरीन देशों की भूमि और प्राकृतिक संसाधन आसानी से हड़प लेते हैं। दूसरी तरफ दुनिया में भुखमरी का कारण अनाज की कमी नहीं बल्कि गरीबी है। दुनिया में चरम पर्यावरण की मार झेलने के बाद भी जितना खाद्यान्न उपजता है, उससे दुनिया में हरेक व्यक्ति को प्रतिदिन 2300 किलोकैलोरी का पोषण मिल सकता है, जो पोषण के लिए पर्याप्त है, पर समस्या खाद्यान्न के असमान वितरण की है, और गरीबी की है। गरीबी के कारण अब बड़ी आबादी खाद्यान्न उपलब्ध होने के बाद भी इसे खरीदने की क्षमता नहीं रखता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने वर्ष 1943 के दौरान बंगाल में पड़े अकाल का भी विस्तृत विश्लेषण कर बताया था कि उस समय अधिकतर मृत्यु अनाज की कमी से नहीं बल्कि गरीबी के कारण हुई थी। जाहिर है, वर्ष 1943 से आज तक इस सन्दर्भ में दुनिया में जरा भी बदलाव नहीं आया है – उस समय भी गरीबी से लोग भुखमरी के शिकार होते थे और आज भी हो रहे हैं।
अभी हाल में ही प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक और जी20 समूह के सदस्य देश पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित कर रहे हैं। इस अध्ययन को अमेरिका की रिसर्च यूनिवर्सिटी डार्टमौथ कॉलेज के वैज्ञानिक क्रिस काल्लाहन के नेतृत्व में किया गया है और इसे क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। दरअसल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है और वे वायुमंडल में मिलकर पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन करती हैं। इसलिए यदि इनका उत्सर्जन भारत या किसी भी देश में हो, प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है। सबसे अधिक प्रभाव गरीब देशों पर पड़ता है। इस अध्ययन को वर्ष 1990 से 2014 तक सीमित रखा गया है। इस अवधि में अमेरिका में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया को 1.91 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा, जो जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में होने वाले कुल नुकसान का 16.5 प्रतिशत है।
इस सूचि में दूसरे स्थान पर चीन है, जहां के उत्सर्जन से दुनिया को 1.83 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है, यह राशि दुनिया में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले कुल नुकसान का 15.8 प्रतिशत है। तीसरे स्थान पर 986 अरब डॉलर के वैश्विक आर्थिक नुकसान के साथ रूस है। चौथे स्थान पर भारत है। भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण दुनिया को 809 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा और यह राशि वैशिक आर्थिक नुकसान का 7 प्रतिशत है। इस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया में होने वाले आर्थिक नुकसान के योगदान में हमारे देश का स्थान दुनिया में चौथा है। पर, हमारे प्रधानमंत्री लगातार बताते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन केवल अमेरिका और यूरोपीय देशों की देन है।
इस सूचि में पाचवे स्थान पर ब्राज़ील, छठवें पर इंडोनेशिया, सातवें पर जापान, आठवें पर वेनेज़ुएला, नौवें स्थान पर जर्मनी और दसवें स्थान पर कनाडा है। अकेले अमेरिका, चीन, रूस, भारत और ब्राज़ील द्वारा सम्मिलित तौर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया को 6 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है, यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 11 प्रतिशत है। इस पूरी सूचि में वेनेज़ुएला को छोड़कर शेष सभी देश जी20 समूह के सदस्य हैं।
जाहिर है, जी20 या ऐसा कोई भी समूह महज अमीर देशों का आपसी संबंध मजबूत करने का एक साधन है। ऐसे समूहों द्वारा पूरे विश्व या धरती के विकास की बात करना एक छलावा है और कुछ भी नहीं। ऐसे सभी समूह पूरी दुनिया में केवल असमानता बढाते हैं वरना इतने समूहों के बाद भी दुनिया में हरेक स्तर पर असमानता का बसेरा नहीं रहता।
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