हर पल के साथ पास आ रही है कयामत की घड़ी, इंसानी तारीख में अंतिम युग हो सकता है ‘एंथ्रोपोसीन’

इंसान एक ही साथ भगवान और शैतान- दोनों के किरदार निभा रहा है। पिछले 12 हजार साल में इंसानों ने इस पृथ्वी का इतना नुकसान कर दिया जितना उससे पहले के लाखों सालों में नहीं हुआ।

फोटोः GettyImages
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अभय शुक्ला

मौजूदा समय में हम जिस भू-वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, उसे ‘होलोसीन’ के नाम से जाना जाता है जो तकरीबन 12 हजार साल पहले हिम युग के कुछ ही समय बाद शुरू हुआ था। यह समय मानव विकास के साथ-साथ सभ्यताओं और तकनीकी प्रगति के लिए जाना जाता है लेकिन इस दौरान इंसानी गतिविधियों का पृथ्वी के पर्यावरण और जलवायु पर इतना गहरा असर पड़ा कि भू-वैज्ञानिकों ने इस अवधि को ‘एंथ्रोपोसीन’ या मानव युग कहना शुरू कर दिया।

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ जियोलॉजिकल साइंसेज में इस नए युग की शुरुआत की तारीख के बारे में तीन विकल्प बताए जाते हैं: (क) 12 से 15 हजार साल पहले कृषि क्रांति की शुरुआत से; (ख) 1945 में पहले परमाणु बम के विस्फोट से; (ग) 1963 में पहली आंशिक परमाणु प्रतिबंध संधि की तारीख से। पिछले 12 हजार सालों के दौरान इस ग्रह पर इंसानी गतिविधियों की वजह से जितना खराब असर पड़ा है, वह इससे पहले के लाखों सालों की तुलना में कहीं बड़ा और विनाशकारी रहा है।

हम वस्तुतः ग्रह का आकार-प्रकार ही बदल रहे हैं- पहाड़ों को समतल कर रहे हैं, नदियों का रास्ता मोड़कर उनके प्राकृतिक प्रवाह को रोक रहे हैं, ज्यादा से ज्यादा खनिज के लिए धरती का सीना खोद रहे हैं, आर्द्रभूमि को निचोड़ रहे हैं, लाखों साल से जल संचय करने वाले पृथ्वी के अंदरूनी भाग को विक्षत कर रहे हैं, जंगलों को खत्म करते जा रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद में इजाफे के लिए हर प्राकृतिक संसाधन का इस हद तक दोहन किया गया है जिसकी भरपाई संभव ही नहीं।

• भोजन के लिए हर साल एक सौ अरब जानवरों को मार दिया जाता है

70% महासागरों से इतनी मछलियां निकाली जा चुकी हैं कि प्राकृतिक तरीके से उनकी भरपाई नहीं हो सकती

• हर साल दस हजार प्रजातियां लुप्त हो रही हैं जो प्राकृतिक दर से हजार गुना ज्यादा है

• पिछले 25 सालों में अंटार्कटिका की तीन खरब टन बर्फ पिघली है। अगर यहां की बर्फ पूरी तरह पिघल जाए तो इससे महासागरों का स्तर 60 मीटर तक बढ़ जाएगा

• हर साल एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल काटे जाते हैं। पिछले 30 सालों में हमने आठ करोड़ हेक्टेयर प्राथमिक वनों को खो दिया है। अमेजॉन के वर्षा वनों का 30 फीसद हिस्सा गायब हो चुका है

• सिर्फ टॉयलेट पेपर के लिए रोजाना 27 हजार पेड़ काटे जाते हैं।


भारत को भी सर्वनाश की इस दौड़ में पीछे नहीं रहना है, जैसा कि जोशीमठ के धंसाव, 140 वर्ग किलोमीटर वन भूमि को सपाट करने की इजाजत और ग्रेटर अंडमान में कथित विकास के लिए आठ लाख पेड़ों को काटने के फैसले से पता चलता है। हर साल पांच करोड़ टन ई-कचरा पैदा होता है जिसका 90 फीसद हिस्सा लैंडफिल में फेंक दिया जाता है। तकनीकी काबलियत पर सवार इंसान विषाणु तैयार कर रहा है और खबरें तो इस तरह की भी हैं कि चीन इंसानों की नई उप-प्रजाति बनाने पर काम कर रहा है। इस तरह, इंसान एक ही साथ भगवान और शैतान- दोनों का किरदार निभा रहा है।

वातावरण में पहले से ही 800 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड है और हम हर साल इसमें 40 अरब टन और जोड़ते जा रहे हैं। वर्ष 2050 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.50 सें. तक सीमित करने की कोई संभावना नहीं दिखती। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन में 50% की कटौती करनी होगी जबकि फिलहाल तो यह दर हर साल बढ़ ही रही है। हालत यह है कि ज्यादातर जलवायु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2050 के आसपास तापमान वृद्धि दर 2 डिग्री सें. को पार कर लेगी।

चौंकाने वाली बात यह है कि शर्म-अल-शेख में हाल ही में हुई सीओपी में, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर चर्चा की गई और हमारा जोर इसकी रोकथाम की जगह इस पर था कि इसके साथ कैसे जीया जा सकता है। सच है कि इस मामले में किसी भी बदलाव की उम्मीद बेमानी है जब दुनिया के ज्यादातर नेता चार्टर्ड उड़ानों से आते-जाते हैं, हर तरीके से हानिकारक उत्सर्जन करते हैं, या जब हालिया सीओपी के 20 में से 18 कॉर्पोरेट प्रायोजक या तो जीवाश्म ईंधन के हामी हों या फिर इससे जुड़े उद्योगों के भागीदार। पृथ्वी के लिए ऐसे हालात हमारे लालच, गलत आर्थिक नीतियों और तकनीक के गलत इस्तेमाल की वजह से हैं।

आज हम जिस स्थिति का सामना कर रहे हैं, यह तो होना ही था। आठ अरब की आबादी के गुणवत्ता पूर्ण जीवन के लिए हमें ऐसा करने की जरूरत नहीं थी: बशर्ते संसाधन के वितरण में औचित्यपूर्ण समानता होती। अगर वैश्विक जीडीपी तकरीबन 100 खरब अमेरिकी डॉलर है- तो दुनिया की 8 अरब आबादी में प्रत्येक के लिए 12.5 हजार डॉलर, यानी भारतीय मुद्रा में 10 लाख रुपये आते हैं। लेकिन यहां तो वितरण ही गड़बड़ है। सबसे अमीर 10% आबादी के पास 85% वैश्विक संपत्ति है जबकि शेष 90% को 15% से संतोष करना पड़ता है। अगर सरकारों के पास बेहतर कराधान और वितरण नीतियां होतीं तो हमारे पास पृथ्वी के सभी लोगों के लिए पर्याप्त संसाधन होता और हमें जीडीपी लक्ष्यों को पूरा करने के क्रम में इस ग्रह का गला नहीं घोंटना पड़ता।


‘एंथ्रोपोसीन’ युग में अन्य पहलू भी शामिल हैं जो जलवायु परिवर्तन और ग्रह की तबाही में योगदान करते हैं: 1990 के दशक की शुरुआत से लोकतंत्र का पतन और फासीवाद का उदय, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं का बढ़ना, शोषणकारी पूंजीवाद का कसता शिकंजा वगैरह। वह चरम बिंदु जहां पर्यावरण पर पड़ते विपरीत असर की भरपाई असंभव हो जाए, अब दूर नहीं है। यह ‘एंथ्रोपोसीन’ इंसानी तारीख में अंतिम युग हो सकता है। वर्ष 1947 में शिकागो में जिस ‘कयामत’ की घड़ी के सात मिनट दूर होने का अंदाजा लगाया गया था, अब वह हमसे महज 90 सेकंड दूर रह गई है। यह खतरे की घंटी हमारे लिए ही बज रही है।

(अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं)

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