मृणाल पाण्डे का लेखः भारत में विविधता और सह अस्तित्व
लगातार सत्ता की हनक के तले सही इतिहास की जगह तमाम तरह की मानसिक संकीर्णताओं से भरे सुनी-सुनाई पर आधारित रूढ़िवादी सोच को पाशवीबल से धुकाने के आग्रहियों द्वारा देश की अद्वितीय बहुलता की विरासत को पर्यावरण की तरह जानबूझ कर नष्ट किया जाता देखना तकलीफदेह है।
अमेरिका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्रीजी के ह्यूस्टन में अनिवासी भारतीयों के समूह के सामने दिए भाषण का एक अंश (उनके ट्विटर एकाउंट पर पढ़कर) सुखद अचरज हुआ। उसके अनुसार आज भारत का सबसे चर्चित शब्द है- विकास, सबसे बड़ा मंत्र है- सबका साथ-सबका विकास, और सबसे बड़ी नीति है- जनभागीदारी। उसके तुरंत बाद संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के पर्यावरण सम्मेलन में उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर बात करते जाने की बजाय ठोस कदम उठाने का समय आ गया है। अचरज इस पर भी हुआ।
अभी गए माह जम्मू-कश्मीर को खास दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को अचानक हटाकर और सभी प्रमुख दलों के नेताओं को नजरबंद करके इस देश की मुख्यधारा से लाखों कश्मीरियों को काट दिया गया। यह कोई नहीं बतला रहा है कि उनको कब तक इससे दोबारा जोड़ा जाएगा। इसी बीच माननीय गृहमंत्री जी ने एक अखंड देश, एक ही विधान और एक ही राजभाषा, हिंदी की बाबत सरकार के पक्के मंसूबे को सार्वजनिक मंच पर उजागर करके अहिंदी भाषी राज्यों को बेतरह उत्तेजित कर दिया है। अब महामहिम के बयान को गलत प्रसंग में लिया गया, कह कर उसकी कचोट कम करने की कोशिश हो रही है। पर दक्षिण भारत में हिंदी की मार्फत आर्यावर्त का उपनिवेश बनने को लेकर जो शंकाएं आजादी के बाद से लगातार बड़ी मेहनत से निर्मूल कर दी गई थीं, वे फिर सर उठाने लगी हैं।
रही बात बतकही के बजाय पर्यावरण क्षरण या मंदी की समस्या सुलझाने के लिए सरकार के खुद ठोस कदम उठाने की, वहां अभी भी कोई उल्लेखनीय हरकत नजर नहीं आती। उल्टे जिस समय प्याज जैसी चीज सत्तर रुपये प्रतिकिलो के पार बिक रही है, बिकवाली बढ़ाने के लिए हाट बाजार लगवाए जा रहे हैं, पर्यटकों को भारत का अतिथि बनकर पहाड़ों, वादियों, अभयारण्यों, हवेलियों, मरु महोत्सवों की सैर कराने और मजेदार खान-पान का लुत्फ उठाने की कोशिशें की जा रही हैं। भारत ही नहीं सारी दुनिया पर यही छाती फाड़ पैसा कमाने की आतुरता छाई हुई है।
ऐसे में याद आता है कि कभी द्रौपदी ने भरी सभा में कह कर कि- ‘वह सभा, सभा नहीं होती, जहां वृद्ध नहीं, और वे वृद्ध, वृद्ध नहीं होते जो सच नहीं बोलते’, सबको सन्न कर दिया था। आज स्वीडन की 16 साला बच्ची ने भी यूएन में जमा बड़े-बड़े विश्व नेताओं की बैठक को सन्न करते हुए सारी बुजुर्ग पीढ़ी को जमकर लताड़ लगाई है। उसने कहा, “तुमने हमारा बचपन ही नहीं छीना, हमको लालच और पैसा कमाई की कहानियां परीकथाओं की तरह देकर उम्मीद लगाते हो कि हम भविष्य को संवारेंगे? तुम्हारी यह हिम्मत कैसे हुई? तुमने तो हमारे सपने तोड़ डाले हैं। जिस समय मुझ को स्कूल में होना चाहिए था उस समय तुम्हारे लालच की वजह से आने वाले प्रलय के खिलाफ आगाह करने मैं यहां खड़ी हूं।”
इस बच्ची का अटूट साहस जनता और मीडिया में जिनका जमीर मर नहीं गया, उन सब के मनों में कई तरह के सवाल उठाता है। इस लेखिका सहित लगभग हम सारे हिंदी पत्रकार पर्यावरण और राजनीति दोनों मोर्चों पर तबाह हो गए हिंदी क्षेत्र में जनमे, पले-बढ़े हैं। हमारी पत्रकारिता में उस परिवेश की कई झलकें और गूंजें हमेशा रहती हैं। पर हिंदी पट्टी की स्थानिकता से आगे एक और बड़ा भारत है, जिसकी बहुभाषा भाषी राजधानी दिल्ली, देश की जनता की कहीं ज्यादा संपूर्ण और असली प्रतिनिधि है। एक मतदाता और पत्रकार के नाते हम लोग इन दोनों दुनियाओं से अनिवार्य तौर से जुड़े हुए हैं। इसलिए भारत की कोई भाषा या कोई संप्रदाय हमारे लिए पराया या गैरभारतीय नहीं है, और इसलिए हिंदी को इकलौती राजभाषा बनाने के मुद्दे पर हम भी शेष अहिंदी भाषी भारत का मन और राजनीतिक पर्यावरण को प्रदूषित करना अनैतिक समझते हैं।
भाषा ही नहीं, इतिहास को नए सिरे से गढ़ने का हालिया सरकारी उत्साह भी इस मुद्दे पर हमारे बीच आता है। देश की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता से सच्चा जुड़ाव जिस तरह हर पत्रकार की दृष्टि को अधिक ग्लोबल, अधिक पैना बनाता है, उसी तरह एक राजनेता को भी अधिक दृष्टि संपन्न और संवेदनशील बनाता है। नेहरू ने जब ‘भारत एक खोज’ लिखी, तो वह भारत के साथ खुद अपनी सही पहचान की भी खोज कर रहे थे। इधर लगातार सत्ता की हनक के तले सही इतिहास की जगह तमाम तरह की मानसिक संकीर्णताओं से भरे सुनी-सुनाई पर आधारित रूढ़िवादी सोच को पाशवीबल से धुकाने के आग्रहियों द्वारा हजारों सालों में बन सकी देश की अद्वितीय बहुलता की विरासत को पर्यावरण की ही तरह जानबूझ कर नष्ट किया जाता देखना तकलीफदेह है।
तिस पर सरकारी लोग कहते हैं कि पत्रकारों को पॉजीटिव खबरें देनी चाहिए। विकास के नाम पर आधा भरा गिलास दिखाना देशद्रोह है। इस दई मारे वक्त में देश के भौतिक और मानसिक पर्यावरण के विनाश के मर्माहत साक्षी हम लोगों को अगर समृद्धि का उत्सव मनाने का आदेश दिया जा रहा है, तो क्या हम अपने धंधई उसूल त्याग कर उस तरह की समृद्धि के विनाशकारी पहलुओं से जनता को कतई आगाह न करें?
आज हम एक उतावले वक्त से गुजर रहे हैं। हमारे युवा पाठक खबरों को लेकर निरंतर बेसब्र और झपटने की हद तक चौकन्ने हैं। पर इस हड़बड़ाहट के बीच वे थोड़े से समय में बहुत कुछ पा लेना चाहते हैं। उनकी स्वार्थी लपक बार-बार उनको बड़बोले राजनेताओं की तरफ खींचती है जो उनसे कहते हैं कि वे सोचने, सपने रचने का सामाजिक दायित्व नेताओं पर छोड़कर चुनाव दर चुनाव अपने वोट देकर उनको सत्ता में बनाए रखें। फिर देखो हम तुमको कैसे सीधे चांद-सूरज तक की सैर कराएंगे। पर पत्रकारिता को मेहनत से जमा किए और जोखिम उठाकर पेश किए गए संदर्भों के बल पर ही साख मिलती है। वे संदर्भ इनमें से अधिकतर दावों को साफ नकारते हैं। फिर भी अधिकतर भारतीय पत्रकार क्षणिक फायदे के लिए युवा उपभोक्ताओं को वही रंगारंग झूठ और तथ्यहीन भाषण परोस रहे हैं। नतीजतन अपने समय, इतिहास और जमीनी परिवेश से कटकर हमारे ज्यादातर अखबार और चैनल अपनी भाषा, ईमान और नैतिक आधार तीनों को खोकर सोशल मीडिया में बहाए जा रहे फेक खबरों के मलबे के बीच खो चुके हैं।
यूएन का विश्व पर्यावरण सम्मेलन उस मॉडल के फैसलों, नतीजों पर सोच-विचार की दुर्लभ घड़ी है जिनको हम ह्यूस्टन मंच से खाए-पिए-अघाये देश त्यागियों की जमात के सामने बॉलीवुड स्टाइल नाचगाने और नारेबाजी के बीच निरस्त होता पा रहे हैं। उनसे अधिक जागरुक तो 16 बरस की स्कूली बच्ची ग्रेटा थन्बर्ग है जो आसन्न अमेरिकी चुनावों में जीत के लिए हर तरह के भावताव और रणनीति अपना रहे ट्रंप सरीखे राजनेता या उद्योगपतियों से मिलना भी नहीं चाहती। वह सीधी-सादी जुबान में सीधे अपने करोड़ों हमउम्रों से कह रही है, कि अब और नहीं, हमको एक साबुत और साफ दुनिया चाहिए। उसकी सादगी, उसकी भाषा और सात्विक जिद हमको गांधी की याद करा रही है। जिनके 150वें साल में जल्द ही बड़बोले नेताओं के भाषण चालू हो जाएंगे।
1917 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे गांधी ने औपनिवेशिक शासन के बीच भारत को हर मोर्चे पर गरीबी, भुखमरी और अन्याय से घिरा पाया था। औपनिवेशिक विभेदकारी राजनीति की ही तरह आज पर्यावरण करोड़ों को विस्थापित कर रहा है, फर्क यह है कि यह मार अब अमीर देश भी भुगत रहे हैं, जिन्होंने उपनिवेश बनाकर अकूत दौलत जमा की थी। कुदरत का न्याय सबको सब जगह लील रहा है। आर्थिक लाभ के बही खातों में उलझी सरकार कितने दिन तक नागरिक रजिस्टर बनवाकर भूख, विस्थापन और खुले अन्याय को नजरअंदाज कर सकती है?
पत्रकारों के निजी और सामाजिक बोध के लिए यह एक परीक्षा की कठोर घड़ी है। नई सदी का दूसरा दशक भी अब समाप्ति पर है। सारे एशिया, अफ्रीका और यूरोपीय महाद्वीप में दुनिया कई जगह युद्ध और विनाश की कगार पर खड़ी है। धुर दक्षिणपंथी, नस्लवादी, आवारा पूंजी के उपासक नेता एकाधिक बड़े देशों में शीर्ष पर विराजमान हैं। तमाम तकनीकी तरक्की और दार्शनिक आर्थिक चिंतन के बाद भी दुनिया वह मानसिकता नहीं बना पा रही है जो बर्बरता को अप्रासंगिक बना दे। हमारे सुख-दुख की भाषा हिंदी की पत्रकारिता, अपने को हाड़मांस के मनुष्यों के सुख-दुख से अलग कर सिर्फ एक नेता, एक निशान, एक विधान, एक जुबान के नेता के संदर्भ में ही व्याख्यायित करती हुई कब तक जिंदा रह सकेगी?
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