खरी-खरी: अयोध्या फैसले की समीक्षा पर मुस्लिम समाज में मंथन- क्या उलेमाओं के कदम से सहमत हैं सभी मुसलमान !
बाबरी मस्जिद मामले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा हिंद जैसी संस्थाएं इस समय स्वयं मुस्लिमों के एक वर्ग के निशाने पर हैं। यह मुस्लिम समाज को एक नई दिशा दे सकता है। ऐसा होने ही जा रहा है यह कहना अभी कठिन है, लेकिन मुस्लिम समाज करवट जरूर ले रहा है।
अयोध्या एक ऐसी समस्या है जो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती है। इस 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद लोगों ने चैन की सांस ली कि चलो जो भी हुआ पर अब अयोध्या अध्याय समाप्त तो हुआ। इसका कारण यह था कि फैसला आने से कुछ दिनों पहले इस मुद्दे से जुड़े हर पक्ष की ओर से यह बयान आ चुका था कि फैसला जो भी आए वह सबको मान्य होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा हिंद जैसे हिंदू-मुस्लिम सभी संगठन फैसले के बारे में एक ही सुर में बोल रहे थे।
लेकिन फैसला आए 15 दिन भी नहीं बीते कि पहले जमीयत उलेमा हिंद और फिर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से यह ऐलान हो गया कि वे फैसले से संतुष्ट नहीं हैं और वे इस सिलसिले में रिव्यू पिटिशन दाखिल करेंगे। लीजिए एक बार फिर वही कोर्ट- कचहरी की चिक-चिक, अयोध्या मामला फिर से विवादों में घिर गया। खैर, स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने हर पक्ष को इस फैसले पर रिव्यू पिटिशन का अधिकार दिया था। यह हर किसी का कानूनी अधिकार है कि वह इस मामले में पुनः सुप्रीम कोर्ट जा सकता है।
लेकिन क्या मुसलमानों की तरफ से जमीयत और बोर्ड का यह फैसला आज की स्थिति में मुनासिब फैसला है? क्या यह फैसला स्वयं मुस्लिम पक्ष में सही और उचित फैसला है? इन दोनों सवालों की गूंज इस समय खुद मुस्लिम समाज में काफी जोर-शोर से सुनाई पड़ रही है। वह सोशल मीडिया हो अथवा मुस्लिम मोहल्लों के चाय खाने अथवा बैठकों के अड्डे, मुस्लिम समाज के लगभग हर तबके में यह बहस चल रही है।
जाहिर है कि जब सामाजिक स्तर पर कोई बहस छिड़ जाए तो फिर दो पक्ष तो हो ही जाते हैं। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि मुसलमानों की ओर से जमीयत और बोर्ड के रिव्यू पिटिशन के फैसले से मुस्लिम समाज बंटा हुआ नजर आ रहा है। इससे पहले की इस मुद्दे पर आगे बात हो, यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि 9 नवंबर के अयोध्या फैसले से मुस्लिम समाज संतुष्ट नहीं है। मुस्लिम समाज के अधिकतर लोगों का यह विचार है कि जब कोर्ट ने यह मान लिया कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई, मस्जिद में कई सौ सालों से नमाज होती चली आ रही थी और फिर मस्जिद को गैर कानूनी तौर पर गिराया गया, तो फिर किस आधार पर कोर्ट ने बाबरी मस्जिद स्थल को राम मंदिर निर्माण के लिए दे दिया। कुछ लोगों का तो यह भी विचार है कि इस मुद्दे पर मुस्लिम पक्ष को इंसाफ नहीं मिला।
इसके बावजूद मुस्लिम समाज को यह महसूस हो रहा था कि अब यह मामला यहीं समाप्त हुआ और इसी के साथ अब चैन-सुकून पैदा होगा। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अधिकांश मुस्लिम जनसंख्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पश्चात बाबरी मस्जिद मामले को इतिहास मानने लगी थी। यह प्रतिक्रिया आस्था से जुड़ी नहीं थी। बाबरी मस्जिद गिराए जाने की टीस और फिर मुस्लिम पक्ष को सुप्रीम कोर्ट से भी कोई बड़ी राहत नहीं मिलने का दर्द तो लगभग सभी को ही था। लेकिन इस मामले को अब भुलाकर आगे बढ़ने की सबल इच्छा भी थी। इस इच्छा के राजनीतिक और सामाजिक कारण अधिक थे।
साल 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद से लेकर 2019 तक बाबरी मस्जिद, राम मंदिर विवाद एक ऐसा मसला था जिसने मुस्लिम समाज को पूरी तरह से अपनी चपेट में ले लिया था। एक तो इस मुद्दे के कारण देश में ऐसी हिंदू-मुस्लिम खाई पैदा हुई कि जिसकी मिसाल देश के बंटवारे के बाद और नहीं मिलती है। स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक वर्ग होने के कारण इस विवाद ने मुस्लिम वर्ग को जो क्षति पहुंचाई उसका आकलन हो ही नहीं सकता। बाबरी मस्जिद ढहाई गई और उसकी जो जिल्लत उठानी पड़ी वह अपनी जगह है, फिर हजारों लोग सांप्रदायिक दंगों में मारे गए, वह अलग है।
सामाजिक स्तर पर मुसलमान, हिंदू प्रतिद्वंद्वी के तौर पर हिंदू दृष्टि में घर कर गया। इस एक कारण से संघ और बीजेपी को भारतीय राजनीति में जो लाभ पहुंचा वह अब सबको दिखाई पड़ रहा है। भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को तो क्षति पहुंची ही, लेकिन सबसे बड़ी हानि यह हुई कि भारत ने लगभग हिंदू राष्ट्र का रूप ले लिया। देश में बहुसंख्यक राजनीति का डंका बज उठा। इसका सबसे अधिक खामियाजा अगर किसी ने भुगता तो वह मुसलमान ही था। कभी एक सशक्त वोट बैंक रहने वाला मुस्लिम वर्ग भारतीय राजनीति में हाशिये पर पहुंच गया। सामाजिक स्तर पर वह लगभग दूसरे दर्जे का शहरी हो गया।
अब स्थिति यह है कि मोदी सरकार इस संसद सत्र में एनआरसी कानून को देशव्यापी स्तर पर लागू करने के लिए कमर कस चुकी है। अर्थात सारे देश के मुस्लिम वर्ग की नागरिकता ही खतरे में है। और तो और, जो नागरिकता से गया वह केवल अपने तमाम संवैधानिक अधिकारों से ही नहीं हाथ धोएगा बल्कि वह फिलिस्तीनियों की तरह ‘कंसंट्रेशन कैंपों’ (यातना शिविरों) में कैद भी रहेगा।
मुस्लिम समाज की ऐसी दुर्दशा की कल्पना बाबरी मस्जिद, राम मंदिर विवाद से पहले संभव नहीं थी। यदि ऐसी दुर्दशा में मुस्लिम समाज में अब भी अयोध्या मामले पर बहस नहीं होती तो वह कहीं ज्यादा आश्चर्यजनक होता। अतः जमीयत और बोर्ड के रिव्यू पिटिशन में जाने के पश्चात इस मुद्दे पर बहस एक स्वभाविक बात है। लेकिन मुस्लिम समाज में इस चर्चा से जुड़ी जो बहस है, वह केवल यहीं तक सीमित नहीं है कि यह फैसला सही है या नहीं है। इस चर्चा का एक अहम बिंदु यह भी है कि क्या मुस्लिम समाज का हर फैसला लेने का अधिकार केवल उलेमाओं को ही है। क्योंकि बाबरी मस्जिद का मामला सीधे धर्म और आस्था से जुड़ा मामला था, अतः 1986 से लेकर अभी तक इस मुद्दे पर सारे फैसले उलेमाओं की निगरानी में ही हुए। जमीयत और बोर्ड, ये दोनों संस्थान भी धार्मिक मामले से जुड़ी संस्थाएं हैं।
अतः इस समय होने वाली चर्चा में एक बड़ा वर्ग उलेमाओं को ही निशाना बना रहा है। मुस्लिम समाज में यह एक बड़ा परिवर्तन है। इससे पहले धार्मिक मामलों पर उलेमा की जो राय होती थी वही लगभग संपूर्ण मुस्लिम समाज की अंतिम राय मानी जाती थी। हमारे जैसे चंद सिर फिरे भले ही उसका विरोध करें तो करें लेकिन ऐसी आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज से अधिक हैसियत नहीं रखती थीं। लेकिन बोर्ड और जमीयत के रिव्यू पिटिशन के फैसले पर सवाल उठाने वालों में मुस्लिम वर्ग का कट्टरपंथी और धार्मिक आस्था रखने वाला एक बड़ा वर्ग भी शामिल है। इसका एक सीधा उदाहरण यह है कि इस देश में सुन्नी मुस्लिम वर्ग के सबसे सम्मानित मदरसे दारूल उलूम देवबंद ने भी यह ऐलान कर दिया है कि उसका बाबरी मस्जिद मामले से कोई लेना-देना नहीं है। फिर दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी भी खुलकर जमीयत और बोर्ड के फैसले की मुखालफत कर रहे हैं।
सोशल मीडिया पर जो चर्चा है उसमें अधिकांश हिस्सा आस्था से जुड़ा है, लेकिन पढ़ा-लिखा वर्ग है। यह मुस्लिम समाज में एक प्रकार के मंथन का प्रतीक है। यह मंथन कितना गहरा है, यह अभी कहना कठिन है। लेकिन वो मुस्लिम समाज जिसमें किसी प्रकार के मंथन की कोई लहर कभी दिखाई ही नहीं पड़ती थी, उसमें ऐसा मंथन उल्लेखनीय है। हमारी याद में यह पहला मौका है जबकि मुस्लिम धार्मिक उलेमा से सवाल पूछा जा रहा है। तीन तलाक से लेकर बाबरी मस्जिद और फिर राजनीतिक मुद्दों तक मुस्लिम राय धार्मिक उलेमा ही बनाते थे। वह राय अधिकांश लोगों को मान्य भी होती थी, ऐसा वर्चस्व रहा है उलेमाओं का। लेकिन वही तबका ही जब बहस का मुद्दा बन जाए तो उसके पीछे कुछ कारण तो अवश्य होगा।
इसका पहला कारण तो यह है कि बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद से अब तक मुस्लिम पक्ष में जो भी फैसले हुए वे उलेमाओं के फैसले थे। उन फैसलों के चलते मुसलमान दूसरे दर्जे के शहरी की दुर्दशा को पहुंच गए। इस बात की समझ कहीं मुस्लिम समाज में पैदा हो रही है। दूसरा एक बड़ा कारण यह है कि पिछले तीन दशकों में मुस्लिम समाज में एक मध्य वर्ग, जिसको मिडिल क्लास कहा जाता है, भी पैदा हुआ है। वह धार्मिक तो है, लेकिन पढ़ाई-लिखाई के बाद वह आंख मूंद कर अपने जीवन की बागडोर मदरसों से पैदा मुल्ला समूह को नहीं देना चाहता है।
इसमें कोई शक नही कि बाबरी मस्जिद मामले पर जमीयत और बोर्ड जैसी कट्टरपंथी संस्थाएं इस समय स्वयं मुस्लिमों के एक वर्ग के निशाने पर हैं। यह मुस्लिम समाज को एक नई दिशा भी दे सकता है। ऐसा होने ही जा रहा है यह कहना जरूर अभी कठिन है। लेकिन मुस्लिम समाज करवट जरूर ले रहा है और यह बात देश तथा मुस्लिम समाज दोनों के ही पक्ष में है।
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