लोकतांत्रित दल और भारत के आंदोलन सद्भावना की विरोधी शक्तियों से करें मुकाबला: गोपालकृष्ण गांधी
‘आज सद्भावना का मतलब यह नहीं है कि सत्ता के साथ कदम ताल मिलाया जाए। सद्भावना बुरे सुरों से तालमेल नहीं बिठा सकती है। इसका अर्थ हर वक्त सत्ता से सच्चाई कहना होना चाहिए, खास तौर से अहंकारी सत्ता से।’
दिल्ली के जवाहर भवन में हुए कार्यक्रम में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वरिष्ठ कांग्रेस नेता डॉ कर्ण सिंह ने गोपालकृष्ण गांधी को राष्ट्रीय एकता, सांप्रदायिक सद्भाव और शांति को बढ़ावा देने में अहम योगदान के लिए यह पुरस्कार दिया। इस मौके पर गोपालकृष्ण गांधी ने उम्मीद की कि लोकतांत्रित दल और भारत के आंदोलन अपनी बुद्धिमता, तीव्रता के साथ और अपनी मजबूती को एकताबद्ध करते हुए सद्भावना की विरोधी शक्तियों संदेह, कट्टरता और हिंसा का मुकाबला करेंगे। पढ़ें उनका पूरा भाषण।
हम आज ऐसे इंसान की याद में यहां जमा हुए है जिसने बचपन से सरकार के शामियानों को जाना था, अधिकार की कनात को। लेकिन वह इंसान कुछ अपने में ही रहता था और उस से अपनेपन की वजह से वह राज की तंग छतों को लांघते हुए, खूले आसमान में उड़ रहा था। उसने सत्ता की कोठियों को ढूंढ़ा नहीं, बादल उसके घर थे। कुर्सी की तरफ घुमकर देखा नहीं उसने- सितारों की गोद में वह पलता था। अपनी अर्धांगिनी के साथ उसने चांदनी की ओढ़नी बुनी थी। पर तकदीर ने उसको धरती में ले आना चाहा, उसको तख्त सौंपा, ताज पहनाया। साथ ही देश के लिए एक बड़ी आधुनिक गतिशिल तस्वीर दी और देशवासियों के लिए सद्भावना। राजीव गांधी के सद्भावना कोई राजनीतिक तरकीब नही थी। वह कोई युक्ति या रणनीति नहीं थी। वह उनके मनोभाव में थी, इनकी नस्ल में, उनकी सिफत में थी।
राजनीति में रहते हुए विरोध की उनको पहचान हुई, विरोध का सामना दिया और खुद भी विरोध किया, पर दुश्मनी वे दूर रहे। विरोध एक बात होती है, दुश्मनी एक और। विसम्मति एक बात होती है और देशद्रोह एक और। दुश्मनी वो करते जो प्यार में अपना मौका देखते है, उससे सौदा करते है। तु आ मेरे साथ, तु है मुझसे परे। दोस्ती वो निभाते हैं जो सहज प्यार में कुदरत देखते हैं, इंसानियत देखते हैं, प्यार की तकसीम (विभाजन) नहीं, प्यार का गुनन, उसका जर्ब (बहुतायत) देखते है।
सद्भावना का गहरा मतलब है अंग्रेजी में, हारमोनी।
लेकिन किस तरह की सद्भावना? हम लोग सद्भावना के कई पहलुओं और उसके मतलब के पार जा चुके हैं। आज सद्भावना आपस में सब भाई-भाई से ज्यादा अर्थ रखती है। हर भारतीय इस पूराने विचार से अवगत हैं। सुर मिलाना हैं हमें आज भी। लेकिन कैसे और कौन से सुर? हां में हां मिलाने वाले सुर नहीं। जी-हुजूरी, ठकुर-सुहाती के सुर नहीं। ‘जी-हां, जी-बिल्कुल’, वाले डर का सुर नहीं। डर से दबे हुए कोमल गंधार में नहीं। पर उन सुरों में जो अच्छे को अच्छे कहने में कोमल हों और बुरे को बुरा कहने में तीव्र हों।
आज सद्भावना का मतलब यह नहीं है कि सत्ता के साथ कदम ताल मिलाया जाए। सद्भावना बुरे सुरों से तालमेल नहीं बिठा सकती है। इसका अर्थ हर वक्त सत्ता से सच्चाई कहना होना चाहिए, खास तौर से अहंकारी सत्ता से। और सद्भावना का मतलब यह भी होना चाहिए कि सच्चाई को जनता तक ले जाया जाए, जो अपनी तरह से उसे पहले से ही जानते हैं और कहते हैं, ‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है…’ साहस के साथ सच कहने से ज्यादा किसी और चीज में सद्भावना नहीं हो सकती।
सद्भावना सिखाती है: झूठे हर जगह मिलेंगे, अपनों में भी। सच्चे हर जगह मिलेंगे, बैरों में भी। अगर अपनों में कोई गलत काम करे तो हमें उसे रोकना चाहिए। अगर बैरों में कोई सही करे तो उसे सराहना करना चाहिए, और तो और खुद से गलती हो जावे तो उसको कबूल कर, दुरूस्त करना चाहिए। गांधी, नेहरू से यही सीखा हैं हमने। जय प्रकाश नारायण से भी। यही सद्भावना है। जब जवाहर लाल जी का निधन हुआ, तब राजा जी जो उनका विरोध कर रहे थे, बोले: ‘वे हमारे बीच सबसे ज्यादा सभ्य थे।’ अटल जी दिया हुआ तब का संदेश सबसे ज्यादा मर्मस्पर्शी था। उन्होंने कहा, “दलितों का सहारा छूट गया।”
सद्भावना आसान नहीं। उसमें भोलापन नहीं, बड़प्पन है। उसका स्वाभिमान उसके ईमान में है। हिंदुस्तान की खूबी यही है कि उसको यहां बहलाया जा सकता है, वहां बहकाया जा सकता है पर उसके निज को, उसके अंतस को, उसकी आत्मा को कोई झूठला नहीं सकता। उसकी काशी में फजर और उसके बनारस में सुप्रभात होता है। वह प्रयाग का इस्तेमाल करता है और इलाहाबाद का प्रयोग- अपनी सद्भावना की एक सांस में।
जब गांधी जी ने ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम गाया, वे हमें सद्भावना की कुंजी दे रहे थे - आध्यात्मिक, राजनीतिक और सभ्यतागत। और वे इसे धर्मनिष्ठा के साथ नहीं कर रहे थे, बल्कि खतरा उठाते हुए साहस के साथ कर रहे थे। जब कट्टरता चाकू, गोली के रूप में मौजूद थी, उस वक्त उन शब्दों का उच्चारण करना साहस की मांग करता था। तो सद्भावना का एक और मतलब होता है - साहस। कमजोर, दबे-कुचले, मारे जा रहे लोगों के पक्ष में लड़ने के लिए यह अहिंसक और गैर-समझौतापरस्त साहस था। और सद्भावना का एक मतलब प्राकृतिक आपदाओं की चुनौती से मुकाबला करने के लिए साथ आना भी है। केरल की बाढ़ ने हम सबको हिला दिया है लेकिन उन्होंने स्वत: स्फूर्त सद्भावना की शक्ति भी दिखाई है। उसी तरह, आतंक, बुरे इरादों से चालित, सशस्त्र आतंक हमें हिला देता है। राज्य लचीले तरह से इस विध्वंसक शक्ति को रोकने के लिए आगे बढ़ता है। लेकिन हमें यानी नागरिक समाज को आतंक की विभाजनकारी शक्ति और ध्रुवीकरण की कोशिशों को हराकर अपनी प्रतिक्रिया देनी होगी।
वे सभी लोग जो जबरदस्ती, कट्टरता, नफरत और डर, सत्ता की केंद्रीयता, बड़ी सत्ता और बड़ी पूंजी के गठजोड़ का विरोध करते हैं, उन्हें साथ मिलकर काम करना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि निजी और सांस्थानिक अहम को किनारे रखना चाहिए। चाहे नेता हो या कोई पार्टी या कोई समुदाय, सबको एक बड़प्पन दिखाना होगा। एक दोस्त पर कृपा करने के लिए अपने भाई और बहन को मना करना आसान नहीं है। यह बहुत पीड़ादायक है। लेकिन जैसा कि लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था, “जब देश के लिए हवन होता है, तब बड़े हाथ को बड़ी आहुती देनी पड़ती है।” विनम्रता और आभार के साथ राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार लेते हुए मैं यह उम्मीद करता हूं कि लोकतांत्रित दल और भारत के आंदोलन अपनी बुद्धिमता, तीव्रता के साथ और अपनी मजबूती को एकताबद्ध करते हुए सद्भावना की विरोधी शक्तियों संदेह, कट्टरता और हिंसा का मुकाबला करेंगे।
नफरत के जबड़ (जोर) का मुकाबला सद्भावना के जर्ब (बहुतायत) से करना होगा।
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